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मंगल मिशन पर उठे सवाल

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने डॉ विक्रम साराभाई से लेकर के राधाकृष्णन तक के नेतृत्व में लंबा सफर तय किया है. इस दौरान संगठन ने कई नये आयाम गढ़े हैं. हाल ही में इसरो के महत्वाकांक्षी मंगल मिशन पर इसरो के पूर्व अध्यक्ष जी माधवन नायर ने कुछ सवाल खड़े किये हैं और उसे […]

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने डॉ विक्रम साराभाई से लेकर के राधाकृष्णन तक के नेतृत्व में लंबा सफर तय किया है. इस दौरान संगठन ने कई नये आयाम गढ़े हैं. हाल ही में इसरो के महत्वाकांक्षी मंगल मिशन पर इसरो के पूर्व अध्यक्ष जी माधवन नायर ने कुछ सवाल खड़े किये हैं और उसे पब्लिसिटी स्टंट बताया है. मंगल मिशन की चुनौतियों, खासियतों, कार्ययोजना और दूरगामी फायदों समेत दुनियाभर में चल रहे इस तरह के अभियानों पर नजर डाल रहा है आज का नॉलेज..

।। प्रवीण कुमार।।
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के पूर्व अध्यक्ष जी माधवन नायर ने हाल ही में इस दावे पर सवाल उठाये हैं कि देश का आगामी मानवरहित मंगल मिशन अर्थपूर्ण शोध करेगा. नायर 450 करोड़ रुपये की लागतवाली इसरो की मंगल मिशन परियोजना को एक पब्लिसिटी स्टंट बता रहे हैं. नायर का मानना है कि इसरो एक गैरजरूरी मिशन में लगा हुआ है, जबकि देश में संचार ट्रांसपोंडरों की जबरदस्त कमी है. उनका कहना है कि यदि इसे अंजाम दिया जाता है तो यह महज एक और पीएसएलवी प्रक्षेपण होगा.

इसरो के मौजूदा अध्यक्ष के राधाकृष्णन ने इस धारणा को सिरे से खारिज कर दिया है. उनका कहना है कि मार्स ऑर्बिटर मिशन एक फील गुड पैकेज है. मंगल की खोज का उद्देश्य केवल गौरव हासिल करना नहीं है बल्कि इसका अपना वैज्ञानिक महत्व है. साथ ही, भविष्य के संभावित आवासीय क्षेत्रों की तलाश करना भी है, जिसके बारे में हम बात कर रहे हैं. हो सकता है कि इसमें 20 या 30 वर्ष लग जायें, लेकिन ऐसा होना संभव है. इस मिशन को मंजूरी मिलने के बाद इसरो के ही पूर्व अध्यक्ष के कस्तूरीरंगन ने समाचार एजेंसी पीटीआइ से कहा था कि अपने बलबूते काम करने के अलावा इसरो को निश्चित तौर पर भविष्य में मंगल से जुड़े मिशनों में अमेरिका और यूरोप के साथ अंतरराष्ट्रीय टीम में भी शामिल किया जायेगा. भविष्य के उन संभावित अंतरराष्ट्रीय मिशनों में हिस्सा लेने की हमारी दावेदारी मजबूत होगी.

सरकार ने पिछले साल संसद में कहा था कि इस अभियान का प्राथमिक लक्ष्य और उद्देश्य स्पेसक्राफ्ट को मंगल की कक्षा में पहुंचाने की भारत की तकनीकी क्षमता का प्रदर्शन है. मिशन में इस्तेमाल होनेवाली तकनीक से यह साबित हो जायेगा कि भारत मंगल पर पहुंचने की क्षमता रखता है. इसके अलावा इसके जरिये लाल ग्रह के वातावरण के बारे में वैज्ञानिक अध्ययन किये जायेंगे. इस पहल से भविष्य में वैज्ञानिक मिशनों को भेजने में सहायता मिलेगी और रणनीतिक तौर पर भारत की स्थिति मजबूत होगी.

इस मिशन की खासियत
मानवरहित स्पेसक्राफ्ट को ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान ‘पीएसएलवी’ के जरिये श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से इसी वर्ष अक्तूबर-नवंबर में प्रक्षेपित करने की योजना है. इस 1,350 किलोग्राम वजनी अंतरिक्षयान को मंगल के चारों ओर 80,000 किलोमीटर लंबी दीर्घ वृत्ताकार कक्षा से 372 किलोमीटर अंदर तक प्रविष्ट कराने की योजना है. सबकुछ ठीक रहा तो यह करीब 300 दिन की यात्र के बाद अगले साल सितंबर में पृथ्वी की कक्षा से मंगल ग्रह की कक्षा में पहुंचेगा.

कम नहीं हैं चुनौतियां
चंद्रयान की कामयाबी के बाद इसरो का अंतरिक्ष कार्यक्रम अपने लक्ष्य को पूरा कर लेगा, ऐसा नहीं कहा जा सकता. लौह तत्वों की अधिकता की वजह से लाल दिखनेवाले मंगल ग्रह पर यान भेजना चांद के मुकाबले कहीं ज्यादा कठिन है. इसरो को करीब 4000 लाख किलोमीटर की दूरी पर यान को भेजने के लिए जरूरी प्रणोदक (ईंधन), इससे संचार की सुविधा स्थापित करने जैसी जटिल चुनौतियों से जूझना होगा. वर्ष 2008 में चंद्रयान-1 अभियान के दौरान इन बाधाओं से पार पाने में कुछ हद तक सफलता मिली थी. चंद्रयान-1 ने इस बात के सबूत इकट्ठा किये थे कि वहां पानी मौजूद है. यह सही है कि पीएसएलवी से प्रक्षेपित किये जानेवाले स्पेसक्राफ्ट से संक्षिप्त वैज्ञानिक प्रयोग ही होंगे, लेकिन हमेशा एक ही झटके में सबसे बड़ा और सबकुछ हासिल करना संभव नहीं होता है. विशेषकर ऐसी स्थिति में जब इसरो का यह पहला अंतग्र्रहीय अभियान है.

मंगल की ओर शुरुआती मिशन
वैज्ञानिकों ने 18वीं सदी से ही मंगल में रुचि लेना शुरू कर दिया था और यह आज भी लोगों को रोमांचित करता है. आज मंगल पर अभियान भेजने के लिए कई देश कतार में हैं. करीब ढाई अरब डॉलर की लागतवाले क्यूरियोसिटी अभियान को मिली जबरदस्त सफलता से उत्साहित अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा इस वर्ष नवंबर में ‘मार्स एटमोस्फीयर एंड वोलाटाइल इवोल्यूशन मिशन और 2020 में रोवर मिशन की तैयारी में है. दूसरी ओर, यूरोपीय स्पेस एजेंसी और रशियन फेडरल स्पेस एजेंसी संयुक्त रूप से एक्सोमार्स आर्बिटर और रोवर भेजने की योजना बना रहे हैं. इसके अलावा नासा वर्ष 2030 के दशक में मंगल ग्रह पर मानव को उतारने की योजना पर काम कर रहा है. क्या ये सभी देश भी दिखावा करने के लिए ही ऐसा कर रहे हैं? बिल्कुल नहीं.

1960 के दशक में जब शीतयुद्ध अपने चरम पर था, उसी समय से मंगल पर मिशन भेजे जा रहे हैं. यह सही है कि मंगल पर भेजे गये मिशन में से आधे ही सफल हुए हैं. चीन का पहला मंगल मिशन ‘यिंगह्यो-1’ नाकाम रहा था. ऐसे में भारत सफलतापूर्वक मंगल पर अपना मिशन भेजकर तकनीकी और मनोवैज्ञानिक बढ़त बना सकता है. भारत मंगल मिशन को भेजने के मामले में अमेरिका, रूस, यूरोप, जापान और चीन के बाद छठा देश होगा.

खर्च को लेकर उठते सवाल
आलोचकों का सवाल है कि क्या देश इस अंतरिक्ष मिशन की भारी लागत का खर्च उठा सकता है. 1960 के दशक में कुछ इसी तरह के तर्क दिये गये थे कि भारत जैसे गरीब मुल्क आज उस समय दिखाये गये साहस का ही परिणाम है कि हम अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में विश्व के सर्वश्रेष्ठ छह राष्ट्रों में शुमार किये जाते हैं. हमारे पास अपने संचार उपग्रह के निर्माण करने की क्षमता है. पोलर सैटेलाइटल लांच व्हीकल के प्रक्षेपण में हमारा रिकॉर्ड ईष्र्या करने के योग्य है और आखिरकार हम क्रायोजनिक इंजन के निर्माण के भी करीब पहुंच गये हैं, जिससे इनसैट श्रेणी के सैटेलाइटों को प्रक्षेपित किया जा सकेगा.

कई मामलों में मददगार तकनीक
आज भारत न केवल अनुसंधान, आपदा, बाढ़ प्रबंधन, संसाधनों की निगरानी और खोज, जलवायु परिवर्तन से जुड़े अध्ययन, मौसम पूवार्नुमान आदि के लिए जरूरी उपग्रहों को प्रक्षेपित कर रहा है बल्कि संचार क्रांति, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लाइव टेलीविजन प्रसारण भी संभव हुआ है. साथ ही, विकसित और विकासशील देश भी इसरो से अपने-अपने उपग्रहों को प्रक्षेपित कराने के लिए कतारबद्ध हैं. इससे विकसित देश आशंकित हैं कि भारत उस स्पेस लॉन्च इंडस्ट्री पर कब्जा करता जा रहा है, जिसमें अरबों डॉलर की कमाई की संभावना है. ऐसा इसलिए क्योंकि इसरो से उपग्रहों का प्रक्षेपण करवाने की लागत अन्य देशों के मुकाबले 30-35 फीसदी कम है. इसी तरह की सकारात्मक सोच के साथ अगर हम मंगल मिशन पर आगे बढ़ेंगे तो इससे देश की साख में इजाफा होगा. इसकी सफलता के बाद हमारे विश्वसनीयता बढ़ेगी और अन्य देश भी इस ग्रह से जुड़े संभावित मिशनों में हमसे हाथ मिलाने को तैयार होंगे.

दूरगामी फायदा
देखा जाय तो वैज्ञानिक अनुसंधान और खोज तात्कालिक हितों और लाभों के लिए नहीं बल्कि आनेवाले समय में समाज और देश की चुनौतियों को ध्यान में रखकर किये जाते हैं. फिर हम वैश्विक शक्ति बनना चाहते हैं तो विज्ञान और अनुसंधान के क्षेत्र में भी आगे रहना होगा. यह सही है कि देश के समक्ष बहुत सारी दूसरी प्राथमिकताएं भी हैं, लेकिन हमें ज्ञान-विज्ञान के विकास के प्रति अपनी प्रतिबद्धता से पीछे नहीं हटना चाहिए.

भविष्य के मंगल मिशन
मंगल ग्रह के बारे में जानकारी जुटाने के लिए पहला अभियान सोवियत संघ ने 10 अक्टूबर 1960 को मार्स-1 एम भेजा था. हालांकि, यह अभियान असफल रहा था. इसके बाद नवंबर, 1964 में अमेरिका ने अपना मैरिनर अभियान शुरू किया जो कामयाब नहीं हो सका. इसके बाद अमेरिका ने मंगल ग्रह की ओर कई सफल और रूस ने कई असफल अभियान भेजे हैं. भविष्य में मंगल ग्रह की ओर भेजे जानेवाले अभियान इस प्रकार हैं.

1. अमेरिका का एमएवीइएन मिशन नवंबर, 2013 में रवाना होगा. यह मंगल ग्रह के वातावरण का अध्ययन करेगा.

2. अमेरिका का इनसाइट मिशन मार्च 2016 में छोड़े जाने की संभावना है. यह लाल ग्रह पर पूर्व में मौजूद जलवायु से जुड़े आंकड़े जुटायेगा.

3. यूरोपीय स्पेस एजेंसी और रशियन फेडरल स्पेस एजेंसी का संयुक्त अभियान एक्सोमार्स : इसके तहत 2016 में आर्बिटर तथा लैंडर, 2018 में लैंडर और रोवर भेजा जायेगा.

4. नीदरलैंड 2016 में मार्स वन भेजने की तैयारी में हैं.

5. फिनलैंड 2014-15 में मेटनेट अभियान भेजने की योजना बना रहा है. नीदरलैंड और फिनलैंड के अभियान लैंडर से युक्त होंगे.

6. अमेरिका स्थित इंसपिरेशन मार्स फाउंडेशन 2018 की शुरुआत में मंगल ग्रह के निकट मानवयुक्त यान भेजने की तैयारी में है.

7. अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा और अमेरीकी अंतरीक्ष विज्ञान एजेंसी नासा की योजना 1930 के दशक में मंगल ग्रह पर मानवयुक्त अंतरिक्षयान उतारने की है. माना जा रहा है कि अमेरिका इस परियोजना के लिए अभी से ही धन और तकनीक जुटाने में लगा है.

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