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अंडमान यात्रा में मिलीं कामयाबी की कहानियां

एक भारत जो अंडमान में है! (सफरनामा-1) अंडमान का सफरनामा-2 प्रो श्रीश चौधरी आइआइटी, मद्रास के प्रोफसर श्रीश चौधरी ने समुद्र के रास्ते से तय किये गये अंडमान निकोबार द्वीपसमूह के अपने सफर को बहुत ही रोचक ढंग से शब्दबद्ध किया है. पेश है उनकी इस यात्रा का अगला भाग.. 28 नवंबर, बुधवार. सूर्योदय के […]

एक भारत जो अंडमान में है! (सफरनामा-1)

अंडमान का सफरनामा-2
प्रो श्रीश चौधरी

आइआइटी, मद्रास के प्रोफसर श्रीश चौधरी ने समुद्र के रास्ते से तय किये गये अंडमान निकोबार द्वीपसमूह के अपने सफर को बहुत ही रोचक ढंग से शब्दबद्ध किया है. पेश है उनकी इस यात्रा का अगला भाग..

28 नवंबर, बुधवार. सूर्योदय के बाद जागा. दुख हुआ कि मैं सूर्योदय के नजारे को देखने से वंचित रह गया. खैर मुझे बताया गया कि सूर्योदय के समय आकाश में बादल थे. थोड़ा सुकून मिला. फिर सोचा कि चलो सूर्यास्त देखने का मौका मिलेगा. केबिन में तब तक गरम चाय आ चुकी थी. मेरे आग्रह पर ब्लैक टी भेजी गयी. नाश्ते के बाद दोबारा चाय मिली. ऊपर के डेक पर पहुंच कर फिर एक कप ब्लैक टी ली.

डेक की दुकान के कैश काउंटर पर मोहम्मद जकारिया नाम के एक शख्स मिले. 63 वर्षीय जकारिया दुबई में 30 वर्षो तक एक इलेक्ट्रिक पावर हाउस कंपनी में काम करने के बाद अब पोर्ट ब्लेयर में रह रहे थे. उनकी कंपनी ने कुछ कंसल्टेंसी कार्यो के लिए उन्हें बेंगलुरु बुलाया था. वह वहीं से लौट रहे थे. वह चाहते, तो हवाई जहाज से भी जा सकते थे, पर पैसे की बरबादी उन्हें उचित नहीं लगी. केबिन में बैठे रहने की बजाय वह अपने साले की काम में मदद कर रहे थे. डेक की दुकान उनके साले की थी. जकारिया नहीं जानते कि अंडमान में उनके माता-पिता किस जगह से आकर बसे. जब वह युवा थे, तभी उनके माता-पिता की मृत्यु हुई. अंडमान में उनकी एक बहन और मौसी हैं. वह उनसे बराबर मिलते हैं. उनकी बहन पोर्ट ब्लेयर से दूर एक गांव में रहती हैं. दो बेटे हैं, जो चेन्नई में काम करते हैं. एक सॉफ्टवेयर इंडस्ट्री में है, तो दूसरा कंसल्टेंसी फर्म में है.

केबिन से मैं लंच के लिए चला गया. 12 बजे के कुछ मिनट बाद ही लंबी कतार लग चुकी थी. मैंने तय किया कि एक बार फिर बंक क्लास पर एक नजर डाली जाये और फिर तीसरे, दूसरे और सबसे नीचे के डेक पर पहुंच गया. वहां के छोटे से डाइनिंग हॉल में बंक क्लास और दूसरे दरजे के सभी यात्रियों को खाना सर्व किया जाता है. उस लिहाज से हॉल छोटा था. महिलाएं और पुरुष पहले से ही कतार में थे. हाथ में खाली ट्रे लिये यात्री खाने की टेबलों की ओर बढ़ रहे थे. टेबल पर चावल-करी, सब्जी, नॉन वेज आदि सर्व किया जा रहा था. सब ट्रे लेकर हॉल में इकट्ठा हुए और खाने बैठ गये. फ्लोर पूरी तरह से सूखा नहीं था. टेबल पर चादर भी बिछी हुई नहीं थी. रूम गरम था. एक अजीब तरह की सीलन थी.

मैं दो सबसे नीचे के डेक पर गया. सबसे नीचे वाले डेक पर एक या दो सेक्शन केवल लड़कियों के लिए थे. वे सभी टीन-एजर्स थीं. बंक क्लास के नीचे के दो सेक्शनों में 97 लड़कियां थीं. उम्र 10 और 14 के बीच रही होंगी. वे हिंदी में ही बात कर रही थीं. वे चेन्नई और बेंगलुरु-मैसूर घूमने गयी थीं और यात्रा से लौट रही थीं. सरकार ने उनके खाने, यात्रा करने, ठहरने आदि का प्रबंध किया था. उनके साथ आठ शिक्षक थे, जिनमें छह महिलाएं और दो पुरुष थे. शिक्षक सेकेंड क्लास में यात्रा कर रहे थे. बंक में काफी गरमी और केबिनों के मुकाबले अंधेरा भी था. कुछ लड़कियों ने अपनी नोटबुक को एयर कंडीशन पाइपों में फंसा कर रखा था, जो कि उनके सेक्शन की दीवारों से होकर गुजरता था. इस प्रकार कुछ ठंडी हवा उनके बंक तक भी पहुंच रही थी. उन्होंने चरितार्थ किया कि जहां चतुराई होती है, वहीं आनंद भी होता है.

दिन में दो बार शिक्षकों के निरीक्षण में वे ऊपर के डेक पर गयीं. एक महिला शिक्षक ने एस्कॉर्ट करते हुए कहा कि यहां पानी के सिवा देखने को है क्या? मैंने भी लगभग उनसे सहमति दिखाते हुए मन ही मन कहा, हां और वो भी कालापानी. पर मैं चुप रहा. मैंने ईश्वर का शुक्रिया अदा किया कि रुडयार्ड किपलिंग, सीवी रमन और दुनिया के मशहूर वैज्ञानिक, कलाकार, लेखक, कवियों का ऐसे शिक्षकों ने मार्गदर्शन नहीं किया. मुझे बड़ा अचरज होता है कि हम अपने देश का भविष्य किस तरह तैयार कर रहे हैं. दुख हुआ कि मैं इन लड़कियों को ऐसे अंधेरे-सीलन भरे बंक क्लास में छोड़ कर अपने एयर कंडीशन और शानदार सजावटवाले केबिन में जा रहा हूं, जहां से समुद्र का नजारा लिया जा सकता है.

दोपहर में कुछ घोषणा हुई, जिससे यात्री असहज हुए. सबकुछ ठीक नहीं दिख रहा था. लहरें ऊंची उठ रही थीं और जहाज से प्रचंड वेग से टकरा रही थीं. जहाज एक तरफ झुका जा रहा था, संभवत: कोई तूफान आ रहा था. डेक पर टहलना कठिन था. कुछ नाविक और कैडेट अफसरों ने लाइफ जैकेट पहन लिया था. बाद में इमरजेंसी के तहत काम शुरू कर दिया गया. जहाज पर कर्नाटक सरकार के संस्कृति विभाग का एक ग्रुप था. वह अंडमान में होने वाले एक कंसर्ट में भाग लेने जा रहा था.

ग्रुप के लीडर ने कार्यक्रम की शुरुआत की. एक महिला नीचे बैठी और सरस्वती के लिए संस्कृत में एक प्रार्थना गायी. एक व्यक्ति पुरानी हिंदी फिल्मों का एक गाना गा रहा था. ‘ओ दुनिया के रखवाले’. एक युवक कीबोर्ड पर पुरानी हिंदी फिल्म का गाना बजा रहा था. पहले वाला युवक एक युवती के साथ फिर आया और उन्होंने फिल्मी डय़ूट ‘कहो ना प्यार है’ गाया. साथ में इलेक्ट्रॉनिक पियानो भी बज रहा था. गानेवाले युवक की आवाज अच्छी थी, पर युवती को सुनना बहुत मुश्किल था. स्टेज पर जो कुछ भी बजाया या गाया जा रहा था, वह अनावश्यक रूप से बहुत तेज और कानफाड़ू था. मैंने पीछे खड़े एक लड़के को कुरसी दे दी और उस शोरगुल और भीड़ से बाहर निकल गया. केबिन में मेरे साथ ठहरे सहयात्री को ठंड के साथ बुखार था. मैंने डॉक्टर को इसकी सूचना दी. मुझे कुछ दवाइयां दी गयीं, जिसे मैंने हाजी साहब को दे दिया. पंखे के बिना भी केबिन में ठंड थी. मैं सहज नहीं महसूस कर रहा था. मैंने अलग से एक और चादर मांगी.

29नवंबर, गुरुवार. आज फिर सुबह देर से जागा. केबिन में चाय आ चुकी थी, पर मुझे पता नहीं चला. मैंने चाय-नाश्ता किया. चूंकि जहाज को पहुंचने में विलंब होना था, इसलिए यात्रियों को सलाह दी गयी कि वे पांचवें डेक पर जाकर अपना डिनर बुक करा लें.

नाश्ते पर मैं सुधाकर से मिला. वे टूर पर आयी लड़कियों के शिक्षक थे और पोर्ट ब्लेयर में रहते थे. इस ग्रुप में शामिल लड़कियों में उनके स्कूल की एक भी लड़की नहीं थी. फिर भी सरकार की तरफ से उनका चयन किया गया था. वह तीसरी बार इस तरह के ग्रुप का नेतृत्व कर रहे थे, लेकिन हर बार कुछ न कुछ समस्या के साथ. सुधाकर ने मुझे बंदरगाह से उनके घर के नजदीक स्थित होटल ले जाने के लिए अपनी बस में चलने को कहा. अपना मोबाइल नंबर भी दिया और मेरा नंबर लिया. मुझसे गेट पर मिलने को कहा. उनके पिता आंध्र प्रदेश से पोर्टब्लेयर आये थे पुलिस कांस्टेबल की नौकरी में. रिटायरमेंट के बाद उन्होंने वहीं रहने का फैसला किया. स्कूल से निकलने के बाद सुधाकर ने भोपाल के हामिदिया कॉलेज में विज्ञान की पढ़ाई की. वहीं बीएड किया. अब स्थानीय स्कूल में पढ़ाते हैं.

कल शाम से ही जहाज सामान्य से धीरे चल रहा था. नैविगेशन डेक ने बताया कि जहाज 2.4 नौटिकल मील प्रति घंटे की रफ्तार से चल रहा है. जहाज ने पहले ही 585 नौटिकल मील की दूरी तय कर ली थी. अभी भी 174 नौटिकल मील की दूरी तय करनी थी. इस रफ्तार से चलते हुए जहाज मध्यरात्रि में पाइलट प्वांइट तक पहुंचता, जहां जहाज को स्थानीय पाइलट के सुपुर्द कर दिया जाता. लेकिन यह बंदरगाह पर सुबह पांच बजे ही आ सकता था, क्योंकि मध्यरात्रि में पाइलट जहाज नहीं ले जा सकता था. सुबह जहाज के कैप्टन मेरे केबिन के सहयात्री को देखने आये, लेकिन वह उस समय प्रार्थना के लिए बाहर गये हुए थे. इसलिए कैप्टन तुरंत ही चले गये. जाने से पहले, उन्होंने दोपहर में मुझे अपने केबिन में बुलाया. मुझे गले में कुछ परेशानी थी, इसलिए बोलने में तकलीफ हो रही थी. लेकिन मैंने सोचा कि कैप्टन के पास जाना चाहिए. उनका केबिन मेरी केबिन से दो फ्लोर ऊपर था. मैं उनके ऑफिस में बैठा. उन्होंने मुझे बिस्किट और चाय दिये.

स्वराज डीप के कैप्टन शांताराम राजाराम लोखंडे उर्फ प्रशांत लोखंडे जैसी सफलता की कहानी अत्यंत विरले लोगों की ही होती है. महाराष्ट्र के वर्धा जिले में एक छोटे किसान परिवार में जन्मे शांताराम गणित में इंजीनियरिंग करना चाहते थे, लेकिन उनके पिता पढ़ाई का खर्च उठाने में सक्षम नहीं थे. शांताराम ने जिद करके यवतमाल के एक कॉलेज में दाखिला लिया. यह कॉलेज महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री रहे वीपी नायक के परिवार ने खोला था.

प्रथम श्रेणी में बीएससी के बाद एमएससी करने की इच्छा पर फिर वही दिक्कत सामने आयी. खैर उन्होंने कई जगह भाग्य आजमाया. बीएसएफ, त्रिची स्थित एक संस्थान में, बीएसएनएल और यहां तक कि शिक्षक के लिए भी. लेकिन कभी वेतन आकर्षक नहीं था, तो कभी जितना देना तय हुआ था, उतना नहीं मिलने पर उन्होंने इन सभी को ठुकरा दिया. तब किसी ने उन्हें एप्लाइड इलेक्ट्रॉनिक्स में एमएससी करने का सुझाव दिया. एमएससी के बाद 1990 में उन्होंने मर्चेट नेवी में दस हजार प्रतिमाह वेतन की एक नौकरी के लिए टेस्ट दिया और चुन लिये गये. बाद में उन्होंने चीफ मेट और कैप्टन लाइसेंस की परीक्षा पास की और शिपिंग कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया में नौकरी कर ली.

प्रशांत लोखंडे सात साल से कैप्टन हैं और छह माह से स्वराज डीप को कमांड कर रहे हैं. वह प्रति माह करीब चार लाख रुपये पाते हैं. उन्होंने 70 देशों की यात्रा की है और तीन चक्रवातीय तूफानों के समय में जहाज को कमांड किया है. नवंबर, 2012 में जब नीलम तूफान आया, तो शांताराम ने जहाज को कमांड किया. एक बार एक मरीज को पोर्ट ब्लेयर से जहाज पर चढ़ने के कुछ समय बाद ही दिल का दौरा पड़ गया, शांताराम ने वापस जहाज को पोर्ट की ओर मोड़ लिया. मरीज को तुरंत पोर्ट ब्लेयर के नजदीकी अस्पताल में भरती कराया गया.

लेकिन उनके कैरियर की सबसे बड़ी चुनौती पिछले साल 15 जून को आयी. जहाज पर एक यात्री अपनी पत्नी से लड़ाई करने के बाद जहाज से कूद गया. कुछ यात्री चिल्लाये, जब मामला प्रशांत को पता चला, उन्होंने जहाज को धीमा किया. लाइफ बोट को उतारा और उसमें लाइफ बॉय भी भेजा गया. पूरा क्रू उस डूबते हुए यात्री को बचाने में लग गया. उसे बोर्ड पर सुरक्षित लाया गया. शीपिंग कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया ने प्रशांत के कर्तव्य निर्वहन के लिए राष्ट्रपति से पुरस्कार की अनुशंसा की. महाराष्ट्र और अंडमान-निकोबार सरकार ने भी ऐसी ही अनुशंसा की है. कुछ समय बाद वह तमिलनाडु और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्रियों से भी मिले थे.

वह अंगरेजी भाषा, उसके शब्दकोष, व्याकरण आदि को लेकर कई प्रश्न उठा रहे थे. उन्होंने उम्मीद जतायी कि रात दस बजे तक मोबाइल चालू हो जायेंगे. उन्होंने बताया कि वह उनकी पत्नी को बता देंगे कि जहाज 30 की सुबह सात बजे तक पोर्ट ब्लेयर के डॉक पर पहुंच जायेगा और वह हवाई जहाज से यहां मुझसे मिल सकती है.

लेकिन मुक्ता को बुखार के साथ-साथ अस्थमा का भी जोर हो गया था. वह बात भी नहीं कर पा रही थी. उसे सांस लेने में परेशानी हो रही थी. इसलिए वह यहां नहीं आ सकेगी. कैप्टन ने मेरे लिए एक गेस्ट हाउस बुक करने की बात कही. उन्होंने कहा कि वह उनके पूरे टूर की व्यवस्था कर देंगे. मैंने केबिन में इंतजार करने की बात कही. मुझे रात में बुखार था. ठंड लग रही थी और मैं ठीक से नहीं सो सका था. जो कंबल मुझे बहुत अच्छा नहीं लग रहा था, अब वह भी बढ़िया लग रहा था. आधी रात के करीब मेरा मोबाइल फोन काम करने लगा.
(अगले अंक में जारी)

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