।। रवि दत्त बाजपेयी ।।
प्रतिरोध के प्रतिमान श्रृंखला की छठी कड़ी में आज आप रू–ब–रू होंगे साप्ताहिक पत्रिका ‘तुगलक’ से. 1970 में इस पत्रिका की स्थापना श्रीनिवास अय्यर रामास्वामी ने की. अपने मूल्यों व तेवर के कारण पत्रिका शासक वर्ग और उनके अनुचरों के आंख की किरकिरी था.
वैसे यह आज भी अपने ग्राहकों के बीच बेहद लोकप्रिय है. सरकार की जनविरोधी नीतियों के विरुद्ध संघर्ष छेड़ने मेंअग्रणी भूमिका निभा रहा है. विशेषकर तमिलनाडु में.
श्रीनिवास अय्यर रामास्वामी (चो रामास्वामी) का जन्म मद्रास के मयलापुर में पांच अक्तूबर, 1934 को वकीलों के एक परिवार में हुआ. रामास्वामी को अपनी पढ़ाई और उसके बाद वकालत करने का एकमात्र विकल्प था.
अपने वकालत के आरंभिक दिनों में एक कनिष्ठ वकील के तौर पर रामास्वामी को अदालती मुकदमों की तैयारी करने में ही दिन भर का समय निकल जाता था, लेकिन इस अतिरिक्त परिश्रम के चलते वे मद्रास हाइकोर्ट के नामी वकीलों में गिने जाने लगे. इसी बीच उन्हें नाटक देखने और स्वयं नाटक लिखने में रुचि विकसित हुई, अपनी निजी वकालत में समय न निकल पाने के कारण रामास्वामी ने स्वतंत्र वकालत का काम छोड़ कर टीटी कृष्णामचारी एंड कंपनी में कानूनी सलाहकार का काम ले लिया.
रामास्वामी ने नाटक लेखन, अभिनय, निर्देशन और बाद में फिल्मों में अभिनय और पटकथा लेखन का काम भी किया. वर्ष 1964 में रामास्वामी द्वारा लिखित ‘संभवामि युगे–युगे’ बहुत विवादास्पद हुआ.
इस नाटक में श्रीकृष्ण तत्कालीन भारत की प्रशासनिक–राजनीतिक व्यवस्था सुधारने के लिए पुन: अवतरित होते हैं, लेकिन लोग श्रीकृष्ण को ही घूस–रिश्वत देने का प्रयास करते है. तमिलनाडु पुलिस ने इस नाटक के मंचन पर रोक लगा दी, लेकिन कोर्ट के आदेश के बाद इसका मंचन संभव हुआ, यह नाटक बेहद लोकिप्रय हुआ.
वर्ष 1968 में भारतीय राजनीतिक परिदृश्य पर लिखा गया रामास्वामी का नाटक ‘तुगलक’ बहुत प्रसिद्ध हुआ था, जिसमें उन्होंने मुहम्मद बिन ‘तुगलक’ को तत्कालीन भारत में प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत किया था. एक विश्वविद्यालय में नाटक के मंचन के बाद विद्यार्थियों के साथ बातचीत में रामास्वामी ने तत्कालीन राजनैतिक–सामाजिक–समसामयिक विषयों पर खुल कर अपने विचार व्यक्त किये.
नाट्य मंडली के अन्य सदस्यों ने रामास्वामी को इन विषयों पर सार्वजनिक रूप से बोलने से परहेज करने को कहा, क्योंकि उन सहयोगियों के अनुसार, पूर्णकालिक कलाकार के रूप में उन्हें इन विषयों के बारे में गंभीर समझ होना संभव नहीं है. रामास्वामी ने अपने सहयोगियों के इस रवैये को एक चुनौती के रूप में लिया और कहा कि उन्हें इन विषयों पर इतनी जानकारी है कि वे इन विषयों पर लिख भी सकते हैं. अपने नाटक ‘तुगलक’ की लोकप्रियता से उत्साहित होकर रामास्वामी ने वर्ष 1970 में ‘तुगलक’ नामक एक साप्ताहिक पत्रिका की स्थापना की और एक पत्रकार–संपादक के रूप में काम शुरू किया.
‘तुगलक’ पत्रिका में रामास्वामी ने अपनी व्यंग्यात्मक शैली में मुख पृष्ठ पर समसामयिक घटना पर एक हास्यचित्र प्रकाशित करने का निर्णय लिया और पत्रिका में सामाजिक–राजनैतिक–सांस्कृतिक विषयों पर लेख प्रकाशित किये. इस पत्रिका में रामास्वामी के संपादकीय और पाठकों से उनके प्रश्नोत्तर सबसे लोकप्रिय स्तंभ माने जाते हैं. रामास्वामी का लेखन मनोविनोद–परिहास का पुट लिए समकालीन घटनाओं पर तीक्ष्ण व अंतर्दृष्टि पूर्ण विश्लेषण के लिए जाना जाता है.
‘तुगलक’ में प्रकशित एक व्यंग्यचित्र में हंगामेदार तमिलनाडु विधानसभा के बाहर दो गधों को बाते करते दिखाया गया था, जिसमे एक गधा दूसरे से कहता है– ‘भाई अब भाग चलो, वरना लोग समङोंगे कि हम लोग ही रेंक रहे हैं.’ विधानसभा में उनके विरु द्ध अवमानना प्रस्ताव लिया गया और रामास्वामी से क्षमा मांगने को कहा गया. जवाब में कहा– ‘मैं अपने इस अपमानजनक कृत्य के लिए उन दोनों गधों से क्षमाप्रार्थी हूं.’
वर्ष 1975 में ‘तुगलक’ पत्रिका में एक कॉर्टून प्रकाशित किया गया था, जिसमें आचार्य कृपलानी, मोरारजी देसाई सहित कई प्रमुख विपक्षी नेताओं को कारावास में दिखाया गया था और यह कहा गया कि मूलभूत अधिकारों को स्थगित कर दिया गया है. इस प्रकाशन के कुछ ही दिनों के बाद भारत में आपातकाल और प्रेस सेंसरशिप की घोषणा हुई.
प्रेस सेंसरशिप के विरोधस्वरूप ‘तुगलक’ ने दो सप्ताह के लिए पत्रिका का प्रकाशन स्थगित कर दिया और इसके बाद प्रकाशित हुई प्रति में मुखपृष्ठ पर केवल काला आवरण दिया गया. ‘तुगलक’ के इतिहास में मुखपृष्ठ पर काला आवरण केवल दूसरी बार बाबरी मसजिद के विवादास्पद ढांचे को गिराने के बाद दिया गया था.
प्रेस सेंसरशिप को चकमा देने के लिए रामास्वामी ने अनेक तरकीबें आजमायीं, जैसे अपनी पत्रिका में 50 के दशक में बनी तमिल फिल्म ‘सर्वाधिकारी’ की समीक्षा प्रकाशित की, इस फिल्म में एक महिला को तानाशाह के रूप में दिखाया गया था. रामास्वामी ने अपनी पत्रिका में विज्ञापनों के माध्यम से आपातकाल के विरोध के संदेश प्रसारित किये. ‘तुगलक’ भारत की ऐसी अकेली समाचार पत्रिका थी, जिसके विज्ञापनों को भी सेंसर किया जाता था, हर सप्ताह प्रकाशन के लिए सेंसर अधिकारियों से बार–बार मिलने से हताश रामास्वामी ने अपना वेतन उन सेंसर अधिकारियों को देने का प्रस्ताव किया क्योंकि रामास्वामी के अनुसार पत्रिका के वास्तविक संपादक तो सेंसर अधिकारी ही थे.
आपातकाल में भी ‘तुगलक’ ने सरकार के उच्च पदस्थ लोगों को नहीं बख्शा था, जब इंडियन ऑयल ने हांगकांग की एक फरजी कंपनी ‘कुओ ऑयल’ के नाम पर 2.2 करोड़ का घोटाला किया तो ‘तुगलक’ ने एक व्यंग्य चित्र में इंदिरा गांधी को भारतीय राष्ट्रीय ध्वज पर काले रंग का तेल उड़ेलते हुए दिखाया था. रामास्वामी ने बाद में एक साक्षात्कार में कहा था कि जब उद्योगपति रामनाथ गोयनका और संपादक सीआर ईरानी जैसे लोगों को सरकारी दमन का भय नहीं था तो मेरे पास तो खोने के लिए सिर के बाल तक नहीं थे.
सरकारी उद्यमों व संसाधनों का व्यक्तिगत प्रचार के लिए दुरु पयोग का विरोध करने का रामास्वामी ने अनूठा तरीका निकला था. संजय गांधी की हवाई दुर्घटना में मृत्यु होने के बाद जब भारत सरकार ने संजय गांधी की स्मृति में डाक टिकट जारी किया, तो उसी दुर्घटना में मारे गये कप्तान सुभाष सक्सेना की स्मृति में रामास्वामी ने भी एक डाक टिकट जारी किया.
डाक विभाग के समझने तक कुछ दिनों तक लोगों ने ‘तुगलक’ को भेजे अपने पत्रों में इन्हीं टिकटों का उपयोग किया. ‘तुगलक’ आज भी अपने ग्राहकों के बीच बेहद लोकप्रिय है और विशेषकर तमिलनाडु में सत्तारूढ़ दल की नीतियों के विरु द्ध संघर्ष छेड़ने में आज भी अग्रणी भूमिका निभा रहा है.