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अंडमान का सफरनामा:प्रो श्रीश चौधरी आइआइटी, मद्रास के प्रोफसर श्रीश चौधरी ने समुद्र के रास्ते से तय किये गये अंडमान निकोबार द्वीपसमूह के अपने सफर को बहुत ही रोचक ढंग से शब्दबद्ध किया है. पेश है उनकी इस यात्रा के कुछ दृश्य आपके लिए..जैसा बताया गया था, मैं चेन्नई बंदरगाह के गेट नंबर पांच पर […]

अंडमान का सफरनामा:प्रो श्रीश चौधरी

आइआइटी, मद्रास के प्रोफसर श्रीश चौधरी ने समुद्र के रास्ते से तय किये गये अंडमान निकोबार द्वीपसमूह के अपने सफर को बहुत ही रोचक ढंग से शब्दबद्ध किया है. पेश है उनकी इस यात्रा के कुछ दृश्य आपके लिए..

जैसा
बताया गया था, मैं चेन्नई बंदरगाह के गेट नंबर पांच पर पहुंचा. एमवी स्वराज दीप (एसडी) अलगअलग वर्गो में एक साथ 1200 यात्रियों को ले जा सकता था. इस ट्रूप में सौ लोग कम ही थे. राजाजी सलाई रोड पर गेट से पहले एक खुली जगह पर जहां कुछ कंस्ट्रक्शन का काम चल रहा था, सभी जमे थे. वहां पर कोई शेड या छाया वाली जगह नहीं थी. कोई बेंच या ऐसी कोई चीज जिस पर बैठा जा सके. सुबह ही पारा 32 डिग्री पहुंच चुका था. लोग इंतजार के साथसाथ ठेले पर बिक रहे चाय, कॉफी, स्नैक्स आदि का आनंद उठा रहे थे. दो पुलिसवाले अपनी डय़ूटी में लगे थे. वहां युवकों का एक समूह था, जिसमें 24-25 साल के कुछ लड़के और इसी उम्र की एकदो लड़कियां थीं. वे सभी निकोबार द्वीप पर नवोदय विद्यालय में कांट्रैक्ट पर पढ़ाते थे और हैदराबाद से स्थायी नियुक्ति के लिए लिखित परीक्षा देकर लौट रहे थे. वे अच्छी हिंदी बोल रहे थे, हां बोलने की टोन थोड़ी नयी जरूर थी. लोगों की उस भीड़ में कई लोग हिंदी बोल रहे थे, पर उनके उच्चरण में थोड़ाबहुत अंतर था.

अंडमान-निकोबार द्वीपसमूह के नामकरण के बारे में कई धारणाएं प्रचलित हैं. कुछ लोग कहते हैं कि इसका नामकरण हनुमान से हुआ, तो कुछ इसे एक तमिल शब्द से उत्पन्न मानते हैं, जिसका अर्थ ‘नग्न आदमी’ होता है. जारवा और कुछ दूसरी जनजातियां, जो अब महज कुछ सैकड़ों तक सिमट चुकी हैं, हमेशा से यहां रही हैं. यूरोपियन उपनिवेश बनने पर (पहले डेनमार्क और फिर अंगरेज) बर्मा और भारत के कई हिस्सों से लोग अंडमान आकर बसने लगे. कई मजदूर के रूप में आये, तो कई सेलुलर जेल में आजीवन कालापानी के सजायाफ्ता कैदी के रूप में. जब भारत आजाद हुआ और इन कैदियों को रिहा कर दिया गया, तो इनमें से कइयों के पास कोई विकल्प नहीं था कि वे कहां जायें, क्या करें. दूसरे शब्दों में कहें, तो उन्होंने लौटने की इच्छा शक्ति खो दी थी. हिंदी उनके लिए जोड़नेवाली भाषा थी. यहां आज उनके क्षेत्रीय संगठन हैं. एक ‘बिहार एसोसिएशन’भी है. आज कई युवक यह नहीं जानते कि उनके पूर्वज कहां से आये थे. हालांकि आज भी इन द्वीपों में एक भी विश्वविद्यालय नहीं है. कोई मेडिकल या इंजीनियरिंग कॉलेज नहीं है. अंतरद्वीपीय संवाद (इंटर आइलैंड कम्यूनिकेशन) स्थापित करने की कोई बेहतर सुविधा नहीं है, जैसा कि हांगकांग और मकाऊ जैसे द्वीपों के बीच है. इसमें कोई शक नहीं है कि अंडमान भारत में है, पर क्या भारत का अंडमान से कोई रिश्ता है. मुझे इसमें संदेह है!

बस खुली और जहाज के नजदीक स्थित प्लेटफॉर्म पर रुकी. यात्रियों को एक गोदाम जैसे हॉल में ले जाया गया, जहां बहुत कम रोशनी थी. कहीं कुछ पता नहीं चल रहा था कि कहां क्या है? यात्रियों के सामान की तलाशी ली जा रही थी. मैं हाथ में टिकट लिए बोर्डिग वाले स्थान पर पहुंचा. वहां एससीआइ का कर्मचारी अमुथन लोगों की जांच कर रहा था. अमुथन ने मेरी टिकट जारी की थी. पहले दिन मैं अपनी टिकट बुक नहीं करा पाया था. इस जहाज के लिए टिकटों की बिक्री एससीआइ बिल्डिंग के एक ही काउंटर से होती है. जो मैनेजर मुझे डीलक्स टिकट की बुकिंग के लिए पासवर्ड देता, वह लंच टाइम में बाहर चला गया. जब काफी देर हो गयी, तो मैंने रिजर्वेशन फॉर्म और पैसा दोनों अमुथन के पास छोड़ दिया. दो दिन बाद उसने बुकिंग की जानकारी दी.जहाज पर चढ़ते समय अमुथन मुस्कुराया. उसने मेरा स्वागत करते हुए मुझे पानी की एक बोतल दी और यात्रा के लिए शुभकामना. मैं आगे बढ़ गया. अब मैं जहाज के क्रू वाले एरिया में था. दो कैडेट नाविकों ने मेरे टिकट की जांच की और मुझे एक बूढ़े व्यक्ति के पास भेजा, जो दो फ्लोर ऊपर मुझे डीलक्स क्लास के केबिन नंबर 506 तक ले गया. केबिन का आकार हाउसिंग बोर्ड के ड्राइंग रूम की तरह था, जहां से बंदरगाह को देखा जा सकता था. बंदरगाह पर जहाजों, छोटी नावों, बंदरगाह की इमारतों, निर्यात किये जाने के लिए कतार में खड़ी कारें, यह सब मन को आनंदित करने वाला था. केबिन में तीन खिड़कियां थीं. दो बेडरूम, चार सोफे की कुर्सियां, लिखने के लिए दो टेबल, दो आलमारी, एक फ्रिज, एक लाइफ जैकेट और शॉवर लगा हुआ एक टॉयलट-बाथरूम. केबिन एयरकंडीशन था.

जहाज ने जब बंदरगाह छोड़ा, उसके एक घंटे बाद मोबाइल फोन का टावर नहीं दिख रहा था. यह अलग बात है कि एसडी के पास सभी आधुनिक नैविगेशन और कम्यूनिकेशन सुविधाएं हैं. विशाखापत्तनम जहाजबाड़ा में बना 156 मीटर लंबा, 21 मीटर चौड़ा और 42 मीटर ऊंचा यह एक मध्यम आकार का जहाज है. इसकी उच्चतम स्पीड सात नॉटिकल मील है यानी प्रति घंटे 14 किमी. अगर सब कुछ ठीक रहा, तो यह चेन्नई से पोर्ट ब्लेयर की दूरी 60 घंटे में तय कर लेता है. जहाज की रवानगी से पहले सुरक्षा उपायों के बारे में घोषणा की गयी. पहले अंगरेजी, फिर हिंदी में. जहाज के हरेक फ्लोर पर केटरिंग आउटलेट था. केबिन में बैग रखवाने के बाद मैं जहाज के ऊपरी डेक पर गया. वहां पानी की दो बोतलें खरीदी. वहां हमें बताया गया कि पूरी यात्रा के लिए भोजन की बुकिंग की जा सकती है. या फिर लंच या डिनर के लिए कूपन भी लिया जा सकता है. केबिन क्लास में तीन तरह के केबिन थे-सेकेंड, फस्र्ट और डीलक्स. वे सभी तीसरे, चौथे और पांचवें डेक पर हैं. सेकेंड क्लास केबिन आठ यात्रियों के लिए जगह है, पहले क्लास में चार और डीलक्स क्लास में दो. सबके लिए समान स्पेस. करीब 75 प्रतिशत यात्री(लगभग 900) नीचे के डेक में यात्रा करते हैं. यह सबसे सस्ता क्लास है. इस डेक पर बहुत कम रोशनी है और यहां से समुद्र बिल्कुल नहीं दिखता.

पहले बिहार, यूपी, आंध्र, तमिलनाडु आदि प्रदेशों से गिरमिटिया मजदूर बड़ी संख्या में इस क्लास में सफर करते थे. वो महीनों यात्रा करते. उन्हें खेतों में काम करने के लिए मॉरीशस, त्रिनिदाद, फिजी, द अफ्रीका, उत्तर पूर्वी अफ्रीका और दूसरे ब्रिटिश उपनिवेशों में ले जाया जाता था. नॉयपाल के वंशज जो गोरखपुर के नजदीक एक गांव के रहने वाले थे, उन्होंने भी इसी क्लास में यात्रा की थी. उन दिनों अंगरेज सिपाही, अधीनस्थ कर्मचारी, कैडेट्स, क्लर्क (तब उन्हें राइटर्स कहा जाता था) और दूसरे मिडिल और वर्किग क्लास के यात्री भी इसी क्लास से यात्रा किया करते थे.गुलामों को तो जहाजों पर सबसे नीचे वाले स्थानों पर रखा जाता था. उनके हाथ बंधे होते थे. उनमें से 60 प्रतिशत तो कई बीमारियों के शिकार होकर मर जाते. भारतीय कैदियों (अधिकांश स्वतंत्रता सेनानी) को हफ्तों-महीनों इसी तरह की दयनीय परिस्थितियों में यात्रा करना पड़ता था.

केबिन क्लास के डाइनिंग हॉल की तुलना किसी अच्छे रेस्टोरेंट से की जा सकती है. यह जानना दिलचस्प होगा कि यह केबिन क्लास का डाइनिंग हॉल ही था, जहां ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के पहले गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग ने एक जर्मन चित्रकार को उसकी पत्नी बेचने के लिए प्रेरित किया. उसी महीने उस महिला का उस चित्रकार पति से तलाक और फिर गवर्नर जनरल के साथ शादी हुई, जिसने कलकत्ता में हंगामा खड़ा किया. रॉबर्ट क्लाइव जिसे भारत में ब्रिटिश साम्राज्य खड़ा करने का श्रेय जाता है, उसने भी बंक क्लास में ही भारत की पहली यात्रा की थी. वापसी के लिए हालांकि उसने केबिन क्लास चुना. बाद में उसके लिए पूरा का पूरा डेक ही उपलब्ध था.

धीरे-धीरे चेन्नई किनारे का दृश्य धूमिल पड़ने लगा. लंच के लिए हमें उबला हुआ चावल, वेज करी, चिकन करी और साथ में पापड़ मिला. खाने के दौरान ही मैं ऊपर के डेक पर स्थित रेस्टोरेंट गया और शेष खाना वहीं खाया. लेकिन मुझे यह उम्मीद नहीं थी कि हवा का तेज झोंका मेरे ट्रे से पापड़ उड़ा ले जायेगा. उस समय तक हमारे केबिन के दूसरे बेड पर एक हाजी आ चुके थे, जो आस्थावान मुसलमान थे. उन्होंने पाया कि बाथरूम में पानी नहीं आ रहा, सीट टूटी हुई है, मग चू रहा है और साबुन भी नहीं है. प्रार्थना और टॉयलेट के अलावा वह हमेशा बेड पर ही रहते थे. हमने पीए सिस्टम ऑन कर दिया. इससे जहाज पर होने वाली उद्घोषणाएं, रेडियो पर समाचार और म्यूजिक आदि प्रसारित होता था.

यात्रियों के कई समूह अलग-अलग डेकों पर बैठे थे. हालांकि वहां एक ही जगह ऐसी थी, जहां से खुले आकाश का नजारा लिया जा सकता था. यह जगह थी, ऊपर का डेक, जो कि ब्रिज के ठीक नीचे थी. पूरे जहाज पर सबसे अधिक हवा यहीं चलती थी. यहां एक कैंटीन है. एक बड़ी पानी की टंकी (खुली और खाली) इसी डेक पर स्थित है. संभवत: इस टंकी में वर्षा का पानी एकत्रित किया जाता है और जरूरत पड़ने पर इसे स्वीमिंग पुल के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है. वहां कुछ युवक थे, जो या तो आराम कर रहे थे या फिर गिटार बजा रहे थे. बाद में मैंने यह जाना कि उन तीनों में एक कनाडा का, दूसरा इस्राइल का और तीसरा फिनलैंड का था. 14 वीं का चांद आकाश में चमक रहा था और साथ ही समुद्र का जल भी. कुछ तारे भी दिख रहे थे. दूर तक समुद्र में काले दिखते जल के ऊपर एक चमकीला रास्ता बनता दिख रहा था. जहाज बड़े आराम से चल रहा था. सभी पुरुषों, औरतों, बच्चों के चेहरे पर मुस्कान थी. ऐसा लग रहा था मानो मनुष्य ने प्रकृति को अपने वश में कर लिया है.

घोषणा हुई कि कुछ लोकप्रिय हिंदी फिल्में जहाज के तीसरे डेक पर स्थित छोटे थियेटर में दिखायी जायेंगी. कुछ लोकप्रिय हिंदी फिल्में जैसे ‘स्टूडेंट ऑफ द इयर’,‘ब्लैक’, ‘बोल बच्चन बोल’ आदि और कुछ लोकप्रिय अंगरेजी और तमिल फिल्में पूरी यात्रा में दिखायी गयीं. डिनर चौथे डेक पर डाइनिंग हॉल में दिया गया. आधे घंटे में करीब तीन सौ यात्रियों को खाना सर्व किया गया. जिस तरह आर्मी बैरेक में खाना ट्रे में सर्व किया जाता है, उसी तरह डिनर पर बुलाने से पहले खाना टेबलों पर लगा दिया गया था. हॉल के प्रवेशद्वार पर एक सूचना लगी थी-लुंगी, नाइटी और शॉर्ट्स की अनुमति नहीं है. कृपया डाइनिंग हॉल में मर्यादा का ध्यान रखें.शाकाहारी यात्रियों को रेड कार्ड दिये गये थे, जो हॉल के एक सेक्शन में आ सकते थे, जबकि मांसाहारी हॉल के दूसरे सेक्शन में. टेबल को साफ-सुथरे साधारण कपड़े से ढका गया था. एक टेबल पर एक साथ 12 लोग बैठ सकते थे. किसी के पास सीट चुनने का विकल्प नहीं था. ट्रे में जो खाना सर्व किया गया था, उसमें चपाती, चावल, दाल, सब्जी आदि थी. ट्रे में अंडा करी भी था. अगर वह थोड़ा तीखा कम होता, तो और भी मजेदार होता. एक मीठी डिश भी थी, जो तमिल के पायासम जैसा लग रहा था.

डिनर के बाद कई लोग ऊपर के डेक पर पहुंचे और चंद्रमा की रोशनी में लहरों को देखा. कुछ समय बाद मैं अपने केबिन लौट आया. मेरे साथी यात्री को रात में खिड़कियां खुली रखना पसंद नहीं था, इसलिए मुझे खिड़कियों पर परदा लगाना पड़ा. उन्होंने मुझे कॉकरोचों से सावधान किया. मैंने भी दीवार पर चलते एक-दो नये तरह के कॉकरोचों को देखा था. हाजी साहब ने बताया कि यदि लाइट बुझा देंगे, तो सारे कॉकरोच हमलोगों के देह पर भ्रमण करेंगे. वे हमारे कानों में भी घुस सकते हैं. ऐसे कॉकरोच तेज डंक भी मारते हैं. मुझे भी थोड़ा डर लगा. हमने तय किया कि लाइट नहीं बुझायेंगे और अगले दिन देखभाल कर्मियों को इसकी जानकारी देंगे. कुछ काम करने के बाद मैंने पंखा बंद कर दिया. धोती पहनी और बेड पर चला गया. जहाज आराम से आगे बढ़ रहा था. जल्द ही मुझे नींद आ गयी.
(अगले अंक में जारी)

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