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असम में झारखंडी आदिवासियों का दर्द

कोड़ा राजी यानी असम और भूटान के चाय बागान. असम के रूकम, टिपम और नागाहाट में जंगली पौधों के रूप में चाय के पौधे पहले से ही थे. 1834 में रॉबर्ट ब्रूस, चाल्र्स ब्रूस और डॉ वालिक- तीन अंगरेज व्यापारियों ने चीन से चाय के बीज मंगवाये और असम के चबुआ में पौध तैयार की […]

कोड़ा राजी यानी असम और भूटान के चाय बागान. असम के रूकम, टिपम और नागाहाट में जंगली पौधों के रूप में चाय के पौधे पहले से ही थे. 1834 में रॉबर्ट ब्रूस, चाल्र्स ब्रूस और डॉ वालिक- तीन अंगरेज व्यापारियों ने चीन से चाय के बीज मंगवाये और असम के चबुआ में पौध तैयार की गयी.

1836 में जयपुर बागान तैयार हुआ, जो देश का पहला चाय बागान है. सस्ती जमीन, सस्ता श्रम, अनुकूल मौसम और भविष्य का बड़ा बाजार- ये चार कारक चाय बागानों की स्थापना के प्रेरक बने. असम और उत्तर बंगाल उन दिनों घने जंगलों से भरा था. वर्षा बहुत होती थी. अत: कई तरह के कीड़े-मकोड़े और बीमारियां उन इलाकों में आम थीं. इसी वजह से शुरुआती दौर में वहां लाये गये चीनी और असमी मजदूर टिक नहीं पाये. तब अंगरेजों की नजर पड़ी झारखंड के मेहनती आदिवासियों पर.

अंगरेजों, जमींदारों, महाजनों की तिकड़ी के अत्याचार ने बड़ी संख्या में आदिवासियों को चाय बागान जाने को मजबूर किया. सर्वप्रथम 1840 में अंगरेज झारखंड से मजदूरों को असम ले गये. पहली खेप में 1,000 मजदूर थे, उनमें से आधे से अधिक भूख-प्यास और बीमारी से रास्ते में मर गये. लेकिन कोड़ा राजी जाने का सिलसिला रुका नहीं. 1850 के दशक में और अधिक संख्या में यहां के लोग वहां गये. 1890 के दशक में भयानक अकाल पड़ा. उस दौरान झुंड के झुंड यहां के लोग कोड़ा राजी गये. इसी तरह बहुत से लोग उस दौरान अंडमान निकोबार भी गये. तभी से इन दोनों दूरदराज क्षेत्रों में झारखंड के आदिवासी रह रहे हैं.

असम और उत्तर बंगाल में अभी छोटे-बड़े 1500 चाय बागान हैं, जहां तकरीबन 72 लाख ; उत्तर बंगाल में लगभग 12 लाख और असम में लगभग 60 लाख झारखंडी आदिवासी रहते हैं. इनमें 40 लाख आदिवासी चाय मजदूर हैं. आज भी इनकी स्थिति औपनिवेशिक दासों जैसी है. कंपनी ने उन्हें जो क्वार्टर दिये थे, डेढ़-दो सदियों बाद भी उस पर उनका मालिकाना हक नहीं है. उन्हें लौटने से रोकने के लिए खेती की जो थोड़ी-बहुत जमीन दी गयी थी, उस पर आज भी उन्हें रैयती हक नहीं मिल पाया है.

ये लोग शिक्षा को लेकर गंभीर नहीं रहे, क्योंकि उनके बच्चों को चाय बागान में ही काम मिल जाता था. लेकिन अब चाय बागान बंद हो रहे हैं, शिक्षा के अभाव में बच्चों का भविष्य अंधकारमय हो गया है. पश्चिम बंगाल के जलपाइगुड़ी जिले में साक्षरता का प्रतिशत 68 है, लेकिन इसी जिले के डुवार्स अंचल में, जहां चाय मजदूर अधिक रहते हैं, साक्षरता 30 प्रतिशत से अधिक नहीं है. और जो साक्षर हैं भी, उनमें से ज्यादातर के पास केवल प्राथमिक शिक्षा है. चाय मजदूरों को साफ पीने का पानी और शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाएं भी मयस्सर नहीं हैं. कुपोषण आम है. नतीजतन, अधिसंख्य मजदूर मलेरिया, टीबी और एनीमिया से पीड़ित हैं. अब भी चाय बागान के मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी 52 रुपये ही है, जो देश की औसत न्यूनतम मजदूरी के आधे से कम है. चाय मजदूरों के बीच मैट्रिकुलेट, इंटरमीडिएट और ग्रेजुएट लोगों की संख्या नगण्य है. आदिवासी बागान में क्लर्क या अफसर नहीं बन पाते थे. अब कहीं-कहीं इन पदों पर आ रहे हैं, परंतु मैनेजर के पद पर नहीं पहुंच पाये.

चाय बागान में अब भी आदिवासी मजदूर ही काम करते हैं. स्थानीय लोगों की नियुक्ति नहीं हो पाती. इसकी वजह से आदिवासियों और स्थानीय लोगों के बीच कभी-कभी हिंसक घटनाएं भी हो जाती हैं. आदिवासियों को निशाना बनाया जाता है.

आज भी वहां रह रहे 72 लाख आदिवासियों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्राप्त नहीं है. झारखंड बनने के बाद वहां के आदिवासी यहां लौटना तो चाहते हैं, लेकिन यहां भी उनके लिए जगह कहां हैं? रोजगार के अवसर कहां हैं? दूसरी तरफ इसी तरह के पलायन से झारखंड में आदिवासियों की संख्या कम होती जा रही है. परिसीमन आयोग का फैसला लागू हुआ तो आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटें घटेंगी. अगर असम, अंडमान- निकोबार और अन्य राज्यों में रह रहे डेढ़-दो करोड़ आदिवासी झारखंड में ही होते, तो ऐसा नहीं होता.

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