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इशरत : सवाल एक, जवाब अनेक

।। अहमदाबाद से ब्रजेश के सिंह ।।– इशरत जहां को लेकर तीन प्रमुख सरकारी एजेंसियां जिस तरह भिड़ रही हैं, उससे जहां की पृष्ठभूमि को लेकर माहौल और गरमा गया है. हद तो यह है कि सीबीआइ, आइबी और एनआइए के विरोधाभासी स्टैंड को भी कांग्रेस और बीजेपी अपनी सुविधा के हिसाब से इस्तेमाल कर […]

।। अहमदाबाद से ब्रजेश के सिंह ।।
– इशरत जहां को लेकर तीन प्रमुख सरकारी एजेंसियां जिस तरह भिड़ रही हैं, उससे जहां की पृष्ठभूमि को लेकर माहौल और गरमा गया है. हद तो यह है कि सीबीआइ, आइबी और एनआइए के विरोधाभासी स्टैंड को भी कांग्रेस और बीजेपी अपनी सुविधा के हिसाब से इस्तेमाल कर रही है. ऐसे में सवाल है कि आखिर कौन थी इशरत. –

कौन थी इशरत. सवाल एक जवाब अनेक. परिवार वालों के लिए 19 साल की सीधी-सादी कॉलेज छात्रा, तो गुजरात पुलिस और केंद्रीय खुफिया विभाग के लिए लश्कर की आतंकी. केंद्र में यूपीए सरकार की अगुआई करने वाली कांग्रेस के लिए नरेंद्र मोदी पर हमला बोलने के लिए बड़ा ट्रंप कार्ड, तो मोदी सहित पूरी बीजेपी के लिए सीबीआइ को ‘कांग्रेस ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टीगेशन’ कहने का सबसे बड़ा हथियार.

महाराष्ट्र में एनसीपी जैसी पार्टी के लिए इंसाफ की लड़ाई के नाम पर वोट को गोलबंद करने की तैयारी, तो बिहार में बीजेपी से अलग हुए जदयू के लिए है वो बिहार की बेटी, जिसके बहाने मुसलिम वोटों को है अपने और करीब लाने की तैयारी. लेकिन इशरत को लेकर देश की तीन प्रमुख सरकारी एजेंसियां जिस तरह एक-दूसरे से भिड़ रही हैं, उससे इशरत की पृष्ठभूमि को लेकर माहौल और गरमा गया है. ये तीन एजेंसियां है- सीबीआइ, आइबी और एनआइए.

हद तो ये हो गयी है कि इन तीन एजेंसियों के विरोधाभासी स्टैंड को भी अपनी सुविधा के हिसाब से देश की दो प्रमुख पार्टियां कांग्रेस और बीजेपी इस्तेमाल करने में लगी हैं. कांग्रेस की तरफ से दिग्विजय सिंह इस बात से खफा हैं कि आखिर हेडली के नाम से इशरत को फिदायीन कहने की खबरें मीडिया में कौन-सी एजेंसी प्लांट कर रही है, तो बीजेपी के नेता कमोबेश एक सुर में इशरत और उसके साथ मारे गये लोगों की पृष्ठभूमि को जानबूझ कर दरकिनार करने का आरोप सीबीआइ पर लगा रहे हैं.

हद तो ये भी है कि राजनीतिक दल और उनके नेता तो ठीक, तीनों सरकारी एजेंसियां भी एक-दूसरे पर आरोप लगाने से अब चूक नहीं रही हैं. भारत के इतिहास में इस तरह की घटना इक्का-दुक्का ही हैं, जब देश की प्रमुख खुफिया एजेंसियां एक-दूसरे से लड़ रही हों, जीत किसकी होगी, कोई नहीं जानता फिलहाल.

इस तरह का आखिरी बड़ा किस्सा नब्बे के दशक में तब सामने आया था, जब इसरो जासूसी कांड को लेकर आइबी और सीबीआइ एक-दूसरे से टकराये थे, दोनों ने एक-दूसरे पर आरोप लगाया था मामले को बिगाड़ने और दूसरी दिशा में ले जाने का. बहरहाल, सवाल ये उठता है कि आखिर इशरत को लेकर देश की इन प्रीमियर एजेंसियों के बीच विरोधाभास कैसा है और क्या है इसकी पृष्ठभूमि. ये टटोलने के लिए एक बार फिर से जाना पड़ेगा 15 जून, 2004 की तारीख पर.

इसी दिन अहमदाबाद पुलिस की क्राइम ब्रांच ने जब इशरत सहित चार लोगों को मुठभेड़ के बहाने मार डाला था, तो पहली बार इशरत का नाम देश के आम लोगों के जेहन में आया था, मीडिया के जरिये. उससे पहले ये नाम मुंबई के मुंब्रा इलाके मे रहने वाली शमीमा कौसर, उसके पड़ोसियों या फिर उस कॉलेज के छात्रों के बीच ही जाना-पहचाना था, जहां पढ़ती थी इशरत.

इशरत जहां, जावेद उर्फप्रणोश पिल्लै, जीशान जौहर और अमजद अली को मारने के बाद अहमदाबाद पुलिस की क्राइम ब्रांच ने ये दावा किया कि इशरत सहित चारों लोग लश्कर के आतंकी थे, जो गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या करने के इरादे से आये थे.

इस मुठभेड़ और मारे गये लोगों को असली साबित करने के चक्कर में गुजरात पुलिस की तरफ से ये भी कहा गया कि ये मुठभेड़ आइबी से मिली खुफिया सूचना के आधार पर अंजाम दी गयी है. लेकिन खुद आइबी का इस मामले में क्या था स्टैंड, ये पहली बार तब सामने आया, जब केंद्रीय गृह मंत्रालय की तरफ से गुजरात हाइकोर्ट में एक हलफनामा दाखिल किया गया.

ये हलफनामा मंत्रालय के एक अधिकारी आरवीएस मणि ने 6 अगस्त 2009 को दाखिल किया, इशरत की मां शमीमा कौसर की उस याचिका के जवाब में, जिसमें इस पूरे मामले की सीबीआइ जांच की मांग की गयी थी. हलफनामे में ही इस बात का इशारा किया गया था कि इसमें रखी गयी सूचनाएं केंद्रीय खुफिया एजेंसियों से मिली जानकारी के आधार पर डाली गयी हैं. हलफनामे में जोर देकर ये कहा गया कि इशरत जहां और उसके साथ मारे गये तीन और लोग लश्कर के ही आतंकी थे.

इस दावे के समर्थन में कई तर्क प्रस्तुत किये गये. इसमें ये कहा गया कि केंद्र सरकार को इस बात के पुख्ता सबूत मिले थे कि लश्कर-ए-तैयबा गुजरात सहित भारत के कई हिस्सों में आतंकी गतिविधियों को अंजाम देना चाहता है, साथ में कई बड़े नेताओं की हत्या की साजिश भी रच रहा है. हलफनामे के मुताबिक, लश्कर में ये जिम्मेदारी मुजम्मिल नामक आतंकी को दी गयी थी, जिसके नियमित संपर्कमें था इशरत का दोस्त जावेद उर्फप्रणोश पिल्लै.

जावेद के बारे में ये भी कहा गया कि साजिदा नामक मुसलिम युवती से शादी करने के चक्कर में हिंदू से मुसलिम बने प्रणोश पिल्लै ने दो पासपोर्ट हासिल किये थे- पहला अपने मुसलिम नाम जावेद से, 1994 में और दूसरा 2003 में अपने हिंदू नाम प्रणोश पिल्लै से. जावेद ने अपने हिंदू नाम से दूसरा पासपोर्ट तब हासिल किया, जब उसका पहला पासपोर्ट वैध था.

हलफनामे में ये सवाल उठाया गया था कि आखिर जब अपने पिता के घर पर रहता नहीं था जावेद, तो फिर केरल के पते पर उसने पासपोर्ट क्यों बनवाया. इसके बारे में खुद हलफनामे में ही तर्कये दिया गया कि भारतीय सुरक्षा एजेंसियों की नजर से बचने के लिए जावेद ने अपने हिंदू नाम से भी पासपोर्ट बनवाया. जावेद मार्च-अप्रैल 2004 में ओमान जाकर लश्कर के कमांडर मुजम्मिल से मिला था, इसका भी जिक्र है हलफनामे में.

जहां तक इशरत के जावेद और लश्कर कनेक्शन का सवाल है, इसके बारे में हलफनामा ये कहता है कि जावेद ने इशरत को अपने साथ इसलिए रखा था, ताकि देश के तमाम शहरों में जब वो आतंकी गतिविधियों की योजना बनाने या फिर उसे लागू करने के लिए जाये, तो सुरक्षा एजेंसियों को कोई शक न हो और इशरत का साथ रहना उसके लिए कवर का काम करे.

पति-पत्नी के तौर पर ही जावेद और इशरत मुठभेड़ से पहले अहमदाबाद, लखनऊ और फैजाबाद जिले के इब्राहिमपुर में होटलों में जाकर रुके थे, इसका भी उल्लेख गृह मंत्रालय के हलफनामे में किया गया है. हलफनामे में इशरत और जावेद की आतंकी पृष्ठभूमि की चर्चा करते हुए इशरत की मां शमीमा कौसर और जावेद के पिता गोपीनाथ पिल्लै की तरफ से दाखिल की गयी याचिका में विरोधाभास का जिक्र भी है. मसलन जहां गोपीनाथ अपने बेटे के ट्रेवेल्स कारोबार की बात करते हैं, तो शमीमा जावेद को इत्र का व्यापारी बताती हैं.

हलफनामा ये भी कहता है कि शमीमा कौसर को अपनी बेटी इशरत के कॉलेज जाने और ट्यूशन कराने जैसी एक-एक बात याद है, लेकिन उन्हें ये याद नहीं कि आखिर अगर इशरत सेल्स गर्ल के तौर पर जावेद के लिए काम करती थी, तो उसका ऑफिस कहां था. साथ में हलफनामे में सवाल ये भी खड़ा किया गया कि आखिर इत्र और साबुन का वो कैसा कारोबार था, जिसे लेकर जावेद इशरत को कई बार मुंबई से बाहर, देश के दूसरे हिस्सों और शहरों में लेकर गया था, वो भी कई-कई दिनों के लिए.

इशरत और जावेद को लश्कर का आतंकी ठहराने के बाद ये हलफनामा बड़े विस्तार से जीशान जौहर और अमजद अली के पाकिस्तानी होने और उनके लश्कर से संबंधित होने का ब्योरा मुहैया कराता है. यही नहीं, हलफनामे में इस बात का भी जिक्र है कि किस तरह से मुठभेड़ के एक महीने बाद लश्कर के मुखपत्र माने जाने वाले गजवा टाइम्स ने इशरत और उसके साथ मारे गये लोगों को मुजाहिदीन करार देते हुए इशरत के शव को बिना परदा जमीन पर लिटाये जाने पर एतराज जताया था.

इसके करीब तीन साल बाद 2 मई, 2007 को लश्कर के एक और फ्रंट जमात उद दावा की तरफ से जब ये दावा किया गया कि इशरत का लश्कर से कोई संबंध नहीं था और वो इस संबंध में इशरत के परिवार से माफी मांगता है, तो हलफनामे में इसे भी आतंकी संगठनों की रणनीति करार दिया गया.

हलफनामे में ये कहा गया कि जावेद के पिता गोपीनाथ पिल्लै ने 18 मई 2007 को सुप्रीम कोर्ट में सीबीआइ जांच की अर्जी दी और उससे पहले इस तरह का जमात उद दावा का बयान न सिर्फ भारतीय सुरक्षा एजेंसियों की साख को गिराने के लिए किया गया था, बल्किअदालतों को गुमराह करने के लिए भी. हलफनामे में लिखे गये इन्हीं पहलुओं को गिना कर इस मामले में सीबीआइ जांच की मांग का केंद्र सरकार की तरफ से विरोध किया गया.

हालांकि जब इस हलफनामे का मोदी सरकार और बीजेपी ने अपने हक में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया, तो अपनी ही पार्टी के दबाव में आयी केंद्र सरकार को दूसरा हलफनामा दाखिल करना पड़ा. ये हलफनामा आरवीएस मणि के जरिये ही 29 सितंबर, 2009 को दाखिल करवाया गया. इसमें ये कहा गया कि केंद्र सरकार को इस मामले में सीबीआइ जांच से कोई परहेज नहीं है और दूसरा ये कि आतंकियों के बारे में खुफिया सूचना देने का मतलब ये नहीं कि गुजरात पुलिस उसी आधार पर उन्हें मार डाले.

गौर करने वाली बात ये है कि हलफनामे में इशरत सहित चारों लोगों की जो आतंकी पृष्ठभूमि दी गयी थी, उसका खंडन नहीं किया गया. खास बात ये भी है कि पहले और दूसरे हलफनामे के बीच ही अहमदाबाद के न्यायिक मजिस्ट्रेट एसपी तमांग की जांच रिपोर्ट सामने आयी, जिसमें उन्होंने इशरत सहित चार लोगों को मुठभेड़ में मारे जाने के वाकये को फरजी करार दिया और कहा कि इसमें शामिल पुलिस अधिकारियों ने शोहरत और प्रोन्नति के लिए ठंडे कलेजे से इन चारों की हत्या की.
..जारी (लेखक एबीपी न्यूज से संबद्ध हैं.)

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