।। राज लक्ष्मी सहाय ।।
* शिव के स्थल से शक्ति को हटाने का दुष्कर्म शिव झेल न सके. शवों और विनाश से पट गया उत्तराखंड. मीडिया इसे संयोग कहती है, वैज्ञानिक भू-स्खलन का नतीजा. नयी पीढ़ी के लोग शर्तिया नहीं मानेंगे, लेकिन धर्म व आस्था पर प्रहार का नतीजा थी यह विनाशलीला.-
हिमालय से बरसते पत्थर, पानी के सैलाब को देख कर दिनकर की कविता ‘हिमालय’ याद आयी. कविता की पंक्तियां देवभूमि में तबाही के पश्चात और सार्थक होती दिखाई देती है. मौन तपस्वी रूपी हिमालय को कवि जागृत होने के लिए झकझोरता है. देवभूमि भारत की सोयी चेतना, क्षत्-विक्षत् होती आस्था, व्यापार बनते धर्म और बढ़ते पाप को ललकारने के लिए कवि हिमालय से आग्रह करता है :
हे हिमालय
तेरे कदमों तले तड़पता स्वदेश!
‘कैसी अखंड यह चिर समाधि?
यतिवर कैसा यह अमर ध्यान?
ओ मौन तपस्यालीन यती,
तू सिंहनाद कर, जाग तपी,
तू मौन त्याग, कर सिंहनाद,
ले अंगड़ाई, उठ हिले धरा
तू जाग-जाग मेरे विशाल
कवि यह भी कहता है हिमालय से –
‘कह दे शंकर से एक बार
फिर करे प्रलय-नृत्य एक बार.’
मिटती आस्था..
सचमुच हिमालय जाग उठा. प्रलय की चेतावनी देता. बिफर उठा भारत के नैतिक पतन की पराकाष्ठा देख कर हिमालय. अदृश्य हाथों से हिमालय ने पत्थर और चट्टानों की चोट की. मरघट बन गये तीर्थ. आदमी भौंचक, व्यथा भी व्यथित. हिमालय का यह विरोध कतई अनुचित नहीं. आखिर कब तक भौतिकवादी वाणों की चुभन सहन करता यह निर्मल साधक.
हिमालय देवधरा पर उभरा पर्वत मात्र नहीं, धर्म और आस्था का प्रतीक रहा है, जिसने युगों-युगों से भारत की सभ्यता, संस्कृति, इतिहास और अध्यात्म को संवारा है, सहेजा है. इन्हें टूटते-बिखरते देखना पर्वतराज के लिए असहनीय बन गया. हिमालय का यह झटका महाप्रलय का संकेत है, चेतावनी है धार्मिक पाखंडियों को, निठल्ली सरकार को और मौन साधी प्रजा को भी.
सचेत हो जायें धनलोलुप अधर्मी, जो तीर्थ और प्रभु के नाम पर धर्म और आस्था को खुलेआम बाजार में बेच रहे हैं. अध्यात्म से कोसों दूर, लेकिन मॉडर्न शिक्षा की डिग्रियों से सजी नयी पीढ़ी सचेत हो जाये, जिनकी सोच में पूजा, हवन, यज्ञ, तीर्थ, व्रत, अंधविश्वास ढकोसला और अज्ञानता का पर्याय है. हिमालय का यह सिंहनाद राजा (सरकार) को भी संदेश है कि मशीनी विकास की अंधी दौड़ में बौरा न जायें. प्रभु के स्वच्छंद प्राकृतिक वातावरण से छेड़छाड़ और खिलवाड़ कतई न करें.
याद रहे, भारतवर्ष सिर्फ देश नहीं, बल्कि एक दर्शन है, जिसे ऋषि-मुनियों, साधु-संतों, चमत्कारों, पूजा-अर्चना, हवन-यज्ञ, उपवास-व्रत, संयम-नियंत्रण के रत्नों ने प्रकाशित किया था. भगवान, देवी-देवता क्या यहां तो पत्थर, पेड़, नदियां और नाग भी पूजे जाते हैं. इनसे एक तसवीर बनी थी भारत की. अलौकिक, आध्यात्मिक तसवीर. इसी का बखान किया था विवेकानंद ने शिकागो के धर्म सम्मेलन में. तालियां बजीं, तो 20 मिनट तक बजती रहीं. पश्चिम के मंच पर एक भारतीय संत के भाषण से भौंचक थी दुनिया.
भारत की इस दिव्य आध्यात्मिक तसवीर के अब चीथड़े उड़ने लगे हैं. आध्यात्मिक कलेवर अब बड़ी-बड़ी मशीनों के घर्र-घर्र में पिसने लगा है.
जैसे-जैसे भारत इंडिया बन रहा है. इसकी बाजारू छवि और उभर रही है. इसी बाजार ने धर्म-आस्था, पूजा-हवन-यज्ञ को भी लील लिया है. भक्ति और धर्म अब धन के तराजू पर तौले जा रहे हैं. आस्था, सदियों पुरानी परंपराओं को अब अंधविश्वास और अज्ञानता की उपाधि दी जा रही है. विज्ञान के आगे सब फेल.
लेकिन, जब देवभूमि उत्तराखंड में तबाही मची, तो विज्ञान मुंह बाये तमाशा देखता रह गया. वैसे लकीर पर लाठी खूब पीटी जा रही है. एक से बढ़ कर एक बेजोड़ विश्लेषण. पर्यावरण विशेषज्ञ, के अपने तर्क हैं. सेटेलाइट की तसवीरें अपनी काबिलियत बताती है. भू-गर्भशास्त्री, शिक्षाविद, राजनेता, मीडिया आदि सबका अपना-अपना हल्लाबोल कार्यक्रम है. लेकिन इस संदर्भ में प्रासंगिक एक ही दृश्य मानस पटल पर बार-बार कौंधता है. सिनेमा के दृश्य की भांति क्लाइमेक्स से भरा.
उत्तराखंड की रक्षक देवी ‘धारी देवी’ को हाइड्रोप्रोजेक्ट 2की वजह से उनके स्थान से हटाया जा रहा था. शाम के वक्त हाथ लगाते ही प्रकृति में हलचल मच गयी. भागीरथी, अलकनंदा की लहरों का रौद्र रूप उभर उठा. दैत्यों की भांति काले बादल गरजने लगे. तूफानी हवा के साथ तेज बारिश शुरू हो गयी. एकदम अचानक. लोक डर कर भाग खड़े हुए. फिर दो दिन के बाद ही प्रलय सामने था. शिव के स्थल से शक्ति को हटाने का दुष्कर्म शिव झेल न सके. शवों और विनाश से पट गया उत्तराखंड. मीडिया इसे संयोग कहती है, वैज्ञानिक भू-स्खलन का नतीजा. नयी पीढ़ी के लोग शर्तिया नहीं मानेंगे, लेकिन धर्म और आस्था पर प्रहार का ही नतीजा थी यह विनाशलीला.
आये दिन तीर्थो में मंदिरों और धार्मिक स्थलों में आम होते हादसों से मन में सवाल उठता है कि क्या भगवान को स्वीकार नहीं अब तथाकथित भक्तों का जमघट? पाप और पुण्य की खबर उस सर्वशक्तिमान ईश्वर से छिपी नहीं. कैसे-कैसे भक्त, कैसे-कैसे साधु-संत और धार्मिक गुरुओं की भीड़ जमा है. कुरेद-कुरेद कर जगाया गया हिमालय, जख्मी की गयी गंगा. फिर इसी की गोद में बसे तीर्थो के भगवान क्या रुष्ट नहीं होंगे.
फिर जरा मौजूदा धर्म की छवि पर गौर करें. साधु-संतों, गुरुओं और बाबाओं की भीड़ जितनी बढ़ी, पाप उतना ही बढ़ा समाज में. चरित्र का पतन भी उतनी ही तेजी से हुआ. बाजारवाद और आरामतलबी ने भक्ति को सुख-सुविधा का लिबास पहनाया. फिर भक्ति कैसी? बद्रीनाथ, केदारनाथ, अमरनाथ, वैष्णो देवी के भक्त उड़नखटोले से जाते हैं. माता का निवास भले कंदरा में हो, भक्तों के लिए पहाड़ काट कर पक्की सड़क बना दी गयी है, नीचे से ऊपर तक कदम-कदम पर दुकान, बाजार, होटल सजे हैं. नीरवता को शोर से भर दिया.
जहां देखिए, जिधर देखिए, चाहे तिरुपति बालाजी का मंदिर हो या शिर्डी के साईं महाराज का. भक्त से लेकर प्रसाद तक की श्रेणी बनी हुई है. बाकायदा टिकट काउंटर बने हैं. वीआइपी दर्शन के प्रसाद का अलग रेट, साधारण के लिए सब कुछ साधारण. अब इंटरनेट से ‘प्रभु का प्रसाद पाओ’ भी संभव है. जिस भक्त की जेब जितनी भारी, भगवान के दरबार में उतना ही आदर, मान. अब भगवान को पाखंड कब पसंद रहा. उन्हें तो शबरी के जूठे बेर, विदुर का साग, तुलसी का एक पत्ता, केवट के आंसू, सुदामा के भुने चावल ने ही वश में कर लिया था. धर्म की ऐसी सहजता विलुप्त हो चुकी है आधुनिक लोभ और स्वार्थ के मोह-माया में. तभी तो केदारनाथ के साधुओं ने लोगों को लूटा, मंदिर की तिजोरी लूटी, शवों से गहने उतार लिये. अब ऐसे कुकृत्य पर तो हिमालय भी सिंहनाद करेगा और जटाधारी प्रलय नृत्य.
देवघर की श्रवणी मेला समीप है. भोलेनाथ के लाडले भक्त ‘ऐ गणेश के पापा’ गाने पर फूहड़ ढंग से नाचते गाते दिखेंगे. चिकनी चमेली और अनारकली डिस्को चली जैसी फिल्मी गीतों की धुन पर भोलेनाथ का भजन बन कर तैयार है. खूब बजेगा. कहां है भक्ति की सात्विकता?
सबसे ज्यादा हैरानी तो इस बात पर होती है कि जो जग का रखवाला है, उसकी रखवाली के लिए इंसान बेचैन हैं. सेना पुलिस के जवान प्रभु और भक्तों की रखवाली करते हैं, क्योंकि आस्था पर आस्था नहीं रही. वैसे एकमात्र शनिस्थल सिंगनापुर में यह भक्ति और आस्था अक्षुण्ण है. इस इलाके में घरों में दरवाजे और चौखट नहीं होते. फिर भी आज तक एक भी चोरी नहीं हुई. भक्तों को शनिदेव पर विश्वास है और चोरों को शनि के क्रोध पर.
पहले साधु-संत पर्वतों की गुफाओं और कंदराओं में धूनी रमाते थे. आश्रम भी वनों में होते थे. आज के बाबाओं के आश्रम पांच सितारा होटल को भी मुंह चिढ़ाते हैं. साधु-संत और बाबा अब चार्टर प्लेन से भ्रमण करते हैं. धनी और कॉरपोरेट लोगों को अपना भक्त बनाते हैं. वशिष्ठ मुनि का आश्रम अब तो केवल कथाओं और टीवी सीरियलों में ही देखा जाता है.
गौरतलब है कि केदारनाथ के पुजारियों ने भी केदारनाथ को नीचे गांव में ले जाकर पूजा का प्रस्ताव रखा. उद्देश्य एकदम साफ था. चढ़ावा होता रहे, क्योंकि दो-तीन साल तक भक्त केदारनाथ नहीं जा पायेंगे. स्वयं शंकराचार्य स्वरूपानांदजी ने इस पर टिप्पणी की. हिमालय और गंगा की भयानक प्रतिक्रिया चेतावनी है – संकेत है कि मानवजाति प्रकृति के आश्रम को छोड़ कर धर्मविहीन मशीनी युग को सराह रही है. सरकार, राजनेता और अधिकारी नयी पीढ़ी को हर कदम पर शह दे रहे हैं.
भागवत में साफ-साफ लिखा है, ‘कलियुग में राजा के पापों का फल प्रजा को भुगतना होगा.’ सचमुच भुगत रही है जनता. भरत का प्राचीन ज्ञान धर्म दर्शन पर आधारित रहा. सहज रूप से भारतवासी पर्वत, जल, सूर्य, वृक्ष, नदी, नाग, गौ आदि की पूजा करते रहे हैं. इनसे धार्मिक आस्था को जोड़ कर इनके नाश का ख्याल लेशमात्र भी नहीं होता था. मॉडर्न विज्ञान ने आस्था शब्द निकाल फेंका है. अब तो एक ही विकल्प है. या तो गंगा की चीत्कार और हिमालय का सिंहनाद सुनिए या धर्म, आस्था और सदियों पुरानी परंपराओं को आत्मसात कर जीवन मूल्य बना लें. वरना दिनकर की ये पंक्तियां साकार हो उठेंगी :
‘कह दे शंकर से एक बार
फिर करे प्रलय-नृत्य एक बार.’
(यह लेखिका के अपने विचार हैं)