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देश को चाहिए और डॉक्टर

आज डॉक्टर्स डे है. यह दिन है हमारे जीवन में बेहद अहम भूमिका निभानेवाले डॉक्टरों को शुक्रिया कहने का. साथ ही यह दिन भारत में डॉक्टरी पेशे की महानताओं, कमियों और चुनौतियों के बारे में भी समझने का मौका लेकर आता है. हर व्यक्ति तक स्वास्थ्य सेवा पहुंचाने में डॉक्टरों की अहमियत बताने के लिए […]

आज डॉक्टर्स डे है. यह दिन है हमारे जीवन में बेहद अहम भूमिका निभानेवाले डॉक्टरों को शुक्रिया कहने का. साथ ही यह दिन भारत में डॉक्टरी पेशे की महानताओं, कमियों और चुनौतियों के बारे में भी समझने का मौका लेकर आता है.

हर व्यक्ति तक स्वास्थ्य सेवा पहुंचाने में डॉक्टरों की अहमियत बताने के लिए किसी रिसर्च पेपर की जरूरत नहीं है. अगर डॉक्टर न हों, तो देश की बड़ी आबादी तक स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचाने का काम असंभव होगा. अगर हालिया आंकड़ों पर गौर करें, तो देश में जन-जन तक डॉक्टरी सेवा पहुंचाना आज भी एक सपना है. ग्रामीण इलाकों में डॉक्टरों की उपलब्धता सुनिश्चित कराना आज भी एक चुनौती है.

आंकड़े बताते हैं कि देश के ग्रामीण इलाकों में जरूरत की तुलना में जनरल डॉक्टरों की साठ फीसदी, तो विशेषज्ञ डॉक्टरों की अस्सी फीसदी कमी है. इस कमी को दूर करने के लिए सरकार पोस्ट ग्रैजुएशन की पढ़ाई करने वाले डॉक्टरों के लिए एक साल तक ग्रामीण इलाकों में पोस्टिंग को अनिवार्य बनाने पर विचार कर रही है.

डॉक्टरों पर आमतौर पर यह आरोप लगाया जाता है कि वे ग्रामीण पोस्टिंग लेने से कतराते हैं और इस तरह समाज की सेवा नहीं करते हैं. इस विषय पर हमने कुछ डॉक्टरों से बात की. रांची के राजेंद्र मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस करनेवाले डॉ राकेश झा, जो इन दिनों दिल्ली के एक निजी अस्पताल में नौकरी कर रहे हैं, कहते हैं कि डॉक्टरों का काम अपने आप में ही समाजसेवा का है.

क्या कोई ऐसा पेशा है, जिसमें आप सीधे समाज की बेहतरी के लिए काम करते हैं? उनका यह भी कहना है कि जब दूसरे पेशे से जुड़े लोगों को अपना कैरियर, नौकरी करने की जगह के बारे में फैसला लेने की स्वतंत्रता है, तो फिर डॉक्टरों से ही यह अपेक्षा क्यों की जाती है कि वे अपनी इच्छा के विपरीत जाकर ग्रामीण क्षेत्रों में नौकरी करेंगे. उनका तर्क साफ है, कि ग्रामीण इलाकों में नौकरी करने के लिए डॉक्टरों को जरूरी प्रोत्साहन नहीं मिल रहा है, इस कारण से वहां डॉक्टरों की कमी है.

जानकार बताते हैं, समस्या का असल कारण यह नहीं है कि डॉक्टर गांवों में नहीं जाना चाहते, इसकी असल वजह यह है कि देश में अब भी डॉक्टरों की जरूरत के मुताबिक आपूर्ति नहीं हो रही है. यह समस्या वास्तव में डिमांड व सप्लाई में अंतर की वजह से है. 2011 के अंत में सरकार द्वारा जारी आंकड़े के मुताबिक देश में प्रत्येक 2000 की आबादी पर एक डॉक्टर था.

मेडिकल काउंसिल के आंकड़ों के मुताबिक 31 जुलाई, 2011 तक देश में रजिस्टर्ड डॉक्टरों की संख्या 8,56,065 थी, जिसे देश की आबादी के हिसाब से बेहद कम माना जा सकता है. एक अनुमान के मुताबिक इस वक्त देश को कम से कम दस लाख और डॉक्टरों की जरूरत है.

जाहिर है, यह समस्या सिर्फ शहर और गांव की नहीं है, बल्कि डॉक्टर तैयार करने के तंत्र की नाकामी की है. यह सही है कि डॉक्टरी पेशे पर उंगली उठानेवालों की भी कमी नहीं है, लेकिन ये हमारे डॉक्टर ही हैं, जो तमाम मुश्किलों का सामना करते हुए देश की स्वास्थ्य व्यवस्था को जीवित रखे हुए हैं.

आज नेशनल डॉक्टर्स डे है. प्रतिष्ठित समाजसेवी व चिकित्सक डॉ बीसी राय का जन्मदिन. समाजसेवा के लिए ‘भारत रत्न’ से नवाजे गये डॉ राय आज भी डॉक्टर और डॉक्टरी पेशे के लिए प्रेरणास्नेत बने हुए हैं. आज उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम डॉक्टरी पेशे की दशा-दिशा के साथ-साथ डॉक्टरों की चुनौतियों पर भी गौर करें.
ईश्वर का प्रतिरूप अब अपनी गरिमा खो रहा है

डॉ महेश परिमल

ईश्वर दु:ख से मुक्ति दिलाते हैं, तो डॉक्टर दर्द से. इसीलिए डॉक्टर को ईश्वर का दूसरा रूप कहा जाता है. पीड़ा से कराहता व्यक्ति डॉक्टर में ईश्वर को देखता है. उसे पूरा विश्वास होता है कि अब मैं डॉक्टर के पास आ गया हूं, तो दर्द से छुटकारा मिल जायेगा. डॉक्टर और मरीज का संबंध वर्षो से है और रहेगा.

मरीज का विश्वास ही डॉक्टर को आत्मबल प्रदान करता है. इसी आत्मबल के कारण वह हमेशा मरीजों की सेवा के लिए तत्पर रहता है. लेकिन अब इस पवित्र संबंध पर दवा कंपनियों की नजर लग गयी है, क्योंकि अब ज्यादातर डॉक्टर अपने धर्म को भूल कर मरीजों को ऐसी गैरजरूरी दवाएं लेने की हिदायत दे रहे हैं, जिनकी उसे जरूरत नहीं होती. इन दवाओं से मरीजों की जेब तो हल्की होती ही है, साथ ही उनके स्वास्थ्य से भी खिलवाड़ होता है.

इन दवाओं की बिक्री के एवज में डॉक्टर का घर भरता है. वे दवा कंपनियों से महंगे उपहार लेते हैं, विदेश यात्राएं करते हैं, बड़े होटलों में पार्टी का मजा लेते हैं, यहां तक कि डॉक्टरों के बच्चों की बर्थ डे पार्टी या फिर शादी के बाद हनीमून का खर्च भी ये दवा कंपनियां मुहैया कराने लगी हैं. ऐसी सौगात लेनेवाले डॉक्टरों को कैसे कहा जाये कि वे ईश्वर का दूसरा रूप हैं?

‘फोरम फॉर मेडिकल एथिक्स’ नामक एक एनजीओ ने इस संबंध में चौंकानेवाले तथ्य पेश किये हैं, जिनमें डॉक्टरों और दवा कंपनियों के बीच होनेवाले लेन-देन की जानकारी दी गयी है. मुंबई के एक नामी-गिरामी डॉक्टर ने अपने बेटे की शादी के बाद हनीमून के लिए उसे स्वीट्जरलैंड भेजा, लेकिन इसका खर्च उठाया एक दवा कंपनी ने.

इसी तरह एक डॉक्टर के बेटे के जन्मदिन पर दी गयी शानदार पार्टी का पूरा खर्च उठाया एक दवा कंपनी ने. आखिर दवा कंपनी डॉक्टरों पर इतनी मेहरबान क्यों होती हैं? कारण स्पष्ट है, ये वे डॉक्टर हैं, जो मरीजों को उन कंपनियों की कुछ दवाएं जरूर लिखते हैं, जिनके साथ इनकी सांठगांठ होती है, भले ही मरीज को उस दवा की जरूरत न हो.

अमेरिका की दवा कंपनियां डॉक्टरों को रिश्वत देने के लिए करीब दस अरब डॉलर का बजट रखती हैं. इतनी बड़ी रकम की भरपाई आखिर कैसे होगी? इस भरपाई के लिए मरीजों की जेब पर डाका डाला जाता है. डॉक्टर और दवा कंपनियों के बीच की कड़ी होते हैं मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव्स. डॉक्टर कितने भी बिजी क्यों न हों, एमआर के लिए उनके पास वक्त जरूर होते हैं.

जबकि यदि कोई डॉक्टर सचमुच किसी दवा के बारे में जानना चाहे, तो इंटरनेट से सस्ता और सुलभ माध्यम और क्या हो सकता है. एमआर भी तो दवा के बारे में उतनी बातें ही बताते हैं, जो इंटरनेट पर लिखी होती है. दरअसल डॉक्टर और एमआर मिलते ही हैं सौदेबाजी के लिए.

दवा कंपनियां बहुत ही दूरंदेशी होती हैं. अब ये मेडिकल कॉलेजों में ही भावी डॉक्टरों पर नजर रखने लगती हैं. पढ़ाई के दौरान दवा कंपनियों के प्रतिनिधि उनसे नियमित अंतराल पर मिलते हैं और नयी दवाओं के बारे में बताते हैं. वास्तव में ये मेडिकल की पढ़ाई कर रहे छात्रों से नयी दवाओं की बिक्री पर कमीशन की बात करते हैं. ऐसी मुलाकातों पर अंकुश का रास्ता तलाशना जरूरी है.

दवा कंपनियां प्रमुख डॉक्टरों के लिए फाइव स्टार होटलों में पार्टियों का आयोजन करती हैं. दिन भर चलने वाली ऐसी पार्टियों का डॉक्टर पूरे परिवार के साथ मजा उठाते हैं. पार्टी खत्म होने के बाद अकसर घर ले जाने के लिए उपहार भी दिये जाते हैं.

हाल ही में मुंबई के एक डॉक्टर के बारे में खुलासा हुआ कि वे रोज प्रतिदिन एक बार में जाकर शराब पीते थे, जिसका बिल एक दवा कंपनी अदा करती थी. बाद में डॉक्टर अपने उस बिल से 50 प्रतिशत अधिक फायदा दवा कंपनी दवाओं की बिक्री के जरिये पहुंचाते थे.

अब कुछ डॉक्टर तो दवा कंपनियों के एजेंट के रूप में भी काम करने लगे हैं. वे एक निश्चित केमिस्ट के यहां जितने परचे भेजते हैं, उसे एक डायरी में नोट कर लेते हैं और महीने के अंत में परचों की संख्या के मुताबिक केमिस्ट और दवा कंपनी डॉक्टर साहब को कमीशन पहुंचा देती है.

ऐसे डॉक्टर दवा लिखने के बाद मरीज को यह हिदायत देना नहीं भूलते कि दवा खरीदने के बाद उन्हें जरूर दिखा दें. दवाएं देख कर डॉक्टर फिर से अपनी डायरी में कुछ लिखते हैं और यह सब मरीज की आंखों के सामने होता है. पर वह कुछ बोल नहीं पाता, क्योंकि दवा के बारे में उसका ज्ञान शून्य होता है.

यह डॉक्टरों को मिलनेवाली कमीशन का ही खेल है कि दो रुपये में तैयार होनेवाली दवाएं भी मरीजों तक करीब बीस रुपये में पहुंचती हैं. हालांकि कुछ ऐसी कंपनियां भी हैं जो अच्छी और सस्ती दवा बनाती हैं, पर अपना प्रचार नहीं करती.

ऐसी कंपनी की दवा यदि मरीज खरीद ले, तो कमीशन को जरूरी माननेवाले डॉक्टर उसे वापस भी करवा देते हैं, क्योंकि कंपनी से उन्हें कमीशन नहीं मिलता. इस तरह से दवा कंपनियों के हाथों की कठपुतली बने डॉक्टर मरीजों के साथ विश्वासघात नहीं तो और क्या कर रहे हैं?

मरीजों और दवा ग्राहकों के अधिकारों के लिए लड़नेवाली तमाम सामाजिक संस्थाओं को इस गोरखधंधे के प्रति सजग होकर सरकार को नींद से जगाना होगा, ताकि डॉक्टरों और दवा कंपनियों के बीच बढ़ती सांठगांठ पर अंकुश लगायी जा सके.

अनावश्यक दवाएं लिखनेवाले डॉक्टरों पर कानूनी कार्रवाई भी होनी चाहिए. क्या आज नेशनल डॉक्टर्स डे पर हमारा सोया हुआ समाज इस तरह की कार्रवाई के लिए आगे आ सकता है? आखिर यह हमारे स्वास्थ्य और धन का सवाल है.

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