देशभर में बुनियादी ढांचे के विकास में निजी पूंजी का योगदान लिया जा रहा है, ताकि आर्थिक विकास की गति में तेजी लायी जा सके. लेकिन, पीपीपी का यह मॉडल भारत के लिए खतरनाक साबित हो सकता है. यह कहना है संयुक्त राष्ट्र की एक नयी रिपोर्ट का.
हाल ही में जारी ग्लोबल एसेसमेंट रिपोर्ट की मानें, तो जिस पीपीपी मॉडल पर सवार होकर आज देश बुनियादी ढांचे के विकास की दौड़ में खुद को आगे ले जाने में लगा हुआ है, उसमें आपदा से जुड़े जोखिमों की व्यापक तौर पर अनदेखी की जा रही है. क्या है विकास का यह मॉडल और क्या हैं इससे जुड़ी चिंताएं, ऐसे तमाम पहलुओं पर नजर डाल रहा है आज का नॉलेज..
ऊर्जा
भारत में ऊर्जा निर्माण के क्षेत्र में कुल स्थापित क्षमता डेढ़ लाख मेगावॉट के करीब है. इसके उत्पादन में 52.5 फीसदी हिस्सेदारी राज्यों की, 34 फीसदी हिस्सेदारी केंद्र की और 13.5 फीसदी हिस्सेदारी निजी क्षेत्र की है. निजी क्षेत्रों की भागीदारी से इसके उत्पादन और वितरण को बढ़ाया जा रहा है.
उत्पादन, ट्रांसमिशन और वितरण में 100 फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी दी जा चुकी है, जिससे निजी निवेश को बढ़ावा दिया जा रहा है. टाटा पावर, आरपीपी ग्रुप और रिलायंस एनर्जी जैसे घरेलू निजी उपक्रम इस दिशा में आगे बढ़ चुके हैं.
भारत में सार्वजनिक निजी भागीदारी के तहत चलायी जा रही परियोजनाओं में सुरक्षा संबंधी प्रावधानों की अनदेखी की जा रही है. यह कहना है संयुक्त राष्ट्र की ओर से आपदा जोखिम को कम करने के संबंध में जारी की गयी ग्लोबल एसेसमेंट रिपोर्ट (जीएआर) का. इस रिपोर्ट में भारत में पीपीपी के तहत चलायी जानेवाली परियोजनाओं पर सरकार का नियंत्रण कम होने और निजी साङोदारों सुरक्षा मानकों की अनदेखी किये जाने के प्रति चिंता जतायी गयी है.
संयुक्त राष्ट्र की एशिया-प्रशांत क्षेत्र की इसी माह जारी की गयी रिपोर्ट में भारत में बुनियादी ढांचे के क्षेत्र में किये जानेवाले निर्माण कार्यों में आपदा जोखिम की अनदेखी के भयावह परिणामों की आशंका जतायी गयी है. यह महज संयोग नहीं है कि उत्तराखंड की हालिया भयावह बाढ़ और भूस्खलन की घटना को ऐसी ही उपेक्षा के परिणाम के तौर पर देखा जा रहा है.
रिपोर्ट में बारहवीं पंचवर्षीय योजना के तहत भारत में इंफ्रास्ट्रक्चर विकास के लिए तकरीबन दस खरब से ज्यादा निवेश का आकलन करते हुए चेतावनी दी गयी है कि इससे भविष्य में भयावह आपदाओं का सामना करना पड़ सकता है.
हालांकि, रिपोर्ट में कई अन्य देशों में हो रहे व्यापक निर्माण कार्यों के प्रति भी चिंता जतायी गयी है, लेकिन भारत के संदर्भ में इस बात को लेकर चिंता ज्यादा है क्योंकि देश का आधा हिस्सा भूकंप प्रभावित जोन में आता है.
सरकार का रुख
भारत सरकार की अधिकृत वेबसाइट पीपीपीइंडियाडॉट कॉम में कहा गया है कि भारत सरकार देशभर में आर्थिक और सामाजिक बुनियादी सेवाओं की गुणवत्ता और उसके स्तर में सुधार के लिए प्रतिबद्ध है. इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए सरकार सार्वजनिक संपत्ति और सेवाओं में निजी क्षेत्र के योगदान से क्षमता बढ़ाने के लिए पीपीपी के इस्तेमाल की बात की गयी है.
भारत में पिछले डेढ़ दशक में पीपीपी के तहत निवेश में काफी बढ़ोतरी देखी गयी है. केंद्र सरकार समेत कई राज्य सरकारों द्वारा किये गये संस्थागत पहल से भारत आज दुनिया में अग्रणी पीपीपी बाजारों में से एक के रूप में उभर कर सामने आया है. राजमार्गों, बंदरगाहों और हवाई अड्डों के निर्माण में इसका योगदान देखा जा सकता है. शहरी और सामाजिक क्षेत्रों में इसे तेजी से अपनाया जा रहा है.
कब हुई इसकी शुरुआत
आज देश में, बुनियादी ढांचों के निर्माण में निजी क्षेत्र की भागीदारी को शामिल करते हुए आम तौर पर पीपीपी मॉडल का व्यापक उपयोग होने लगा है. हालांकि पीपीपी को उदारीकरण के बाद की परिघटना माना जाता है, लेकिन अगर ऐतिहासिक नजरिये से देखें, तो इसकी कहानी कहीं पीछे जाती है.
जानकारों का मानना है कि हमारे देश में पीपीपी का आरंभ 19वीं सदी के उत्तरार्ध में भारतीय रेलमार्ग के निर्माण में निजी ब्रिटिश निवेश के साथ ही शुरू हो गया था. 1875 तक ब्रिटिश कंपनियों द्वारा भारतीय रेलवे में 95 मिलियन पॉन्ड का निवेश किया गया था. हालांकि यह बिना जोखिमवाला निवेश था.
वर्ष 1911 में टाटा हाइड्रो इलेक्ट्रिक पावर सप्लाई कंपनी ने बतौर निजी भागीदार कोलकाता (कलकत्ता इलेक्ट्रिक सप्लाइ कॉरपोरेशन) और मुंबई में बिजली उत्पादन और वितरण के क्षेत्र में महती भूमिका निभायी थी.
पीपीपी का वास्तविक दौर
वर्ष 1990 के प्रारंभ में पीपीपी एक नये कलेवर में आंदोलन के रूप में शुरू किया गया. वर्ष 1991 में केंद्र सरकार ने निजी भागीदारी के सहयोग से बिजली उत्पादन की नीति बनाये जाने की घोषणा की गयी थी, जिससे स्वतंत्र बिजली उत्पादकों का ढांचा तैयार किया गया. निजी भागीदारी को बढ़ावा देने के मकसद से वर्ष 1995 में नेशनल हाइवे एक्ट, 1956 में संशोधन किया गया.
वर्ष 1994 में, एक प्रतिस्पर्धी बोली प्रक्रिया के माध्यम से देश के 18 राज्य सर्किलों में 14 और चार महानगरों में आठ सेल्युलर मोबाइल टेलीफोन सर्विस ऑपरेटरों को लाइसेंस दिया गया. हालांकि, इस प्रक्रिया ने जनवरी 1997 में उस समय जोर पकड़ा जब तत्कालीन वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट फाइनांस कंपनी की स्थापना की दिशा में कारगर पहल की. पिछले डेढ़ दशक में भारत के बुनियादी ढांचे के विकास में इस मॉडल का बेहद योगदान रहा है.
फीडबैक इंफ्रास्ट्रक्चर के अध्यक्ष रहे विनायक चटर्जी ने अपने एक लेख में इससे जुड़ी चुनौतियों की ओर इंगित करते हुए लिखा है कि चीन की अर्थव्यवस्था भारत की तुलना में चार गुना बड़ी हो सकती है, जबकि हमारा पीपीपी बाजार चीन के मुकाबले दस गुना ज्यादा बड़ा है. वास्तव में, भारत आज बड़ी आसानी से दुनिया में सबसे बड़ा पीपीपी बाजार बन चुका है.
कहां चलाया जा रहा मॉडल
पीपीपीइंडियाडॉटकॉम के मुताबिक, इस मॉडल को प्रमुख रूप से छह सेक्टरों में लागू किया गया है.
राजमार्ग
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तकरीबन 33 लाख किलोमीटर लंबी सड़कों के व्यापक नेटवर्क के साथ दुनिया में भारत का दूसरा स्थान है. महामार्गो के निर्माण पर भारत सरकार सालाना तकरीबन 18 हजार करोड़ रुपये खर्च करती है. देशभर में साढ़े छह हजार कि.मी. राजमार्गो को सिक्स लेन बनाने के लिए 41 हजार करोड़ रुपये से अधिक की रकम खर्च करने की योजना है.
रेलवे
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दुनिया में नेटवर्क के मामले में चौथे नंबर पर आनेवाले भारतीय रेलवे में ही केवल अलग से बनाये जा रहे पूर्वी और पश्चिमी माल ढुलाई गलियारी में 22 हजार करोड़ रुपये के निवेश की उम्मीद जतायी गयी है. नये रेल रूट, रेलवे स्टेशन, लॉजिस्टिक्स पार्क, कारगो और वेयरहाउस आदि को विकसित करने के लिए व्यापक पैमाने पर निवेश की योजना है.
बंदरगाह
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साढ़े सात हजार से अधिक समुद्री तटों पर भारत में 12 बड़े और 187 छोटे बंदरगाह हैं. भारत सरकार ने पिछले वर्ष तक यहां से डेढ़ मिलियन मीट्रिक टन की माल ढुलाई की, जिसे और भी ज्यादा बढ़ाने का मकसद है.
एयरपोर्ट
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देशभर में तकरीबन 454 हवाई अड्डे और हवाई पट्टियां हैं, जिनमें से 16 अंतरराष्ट्रीय हैं. दिल्ली और मुंबई हवाई अड्डों का निजीकरण करते हुए 11वीं योजना के तहत 8.5 अरब डॉलर निवेश किया गया, जिसमें व्यापक पैमाने पर बढ़ोतरी के लिए अनेक योजनाएं प्रस्तावित हैं.
टेलीकॉम
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पिछले पांच वर्षों के दौरान इस क्षेत्र में सबसे ज्यादा तेजी से यानी 25 फीसदी की दर से बढ़ोतरी हुई है. विभिन्न टेलीकॉम क्षेत्रों में 74 से लेकर 100 फीसदी तक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की मंजूरी दी गयी है. टेलीकॉम उपकरण और इंटरनेट के लिए सॉफ्टवेयर समेत ब्रॉडबैंड और डीटीएच सर्विस आदि के क्षेत्र में 22 बिलियन से ज्यादा का निवेश होने की उम्मीद है.
राजनीतिक दलों की नीतियों और राजनीतिक विचारधाराओं के बीच नौकरशाही से चलनेवाला राजनीतिक नेतृत्व भारतीय अर्थव्यस्था को प्रभावित करने में कामयाब रहा. इस प्रकार उन्होंने यह साबित कर दिखाया कि निजी क्षेत्र से हासिल उद्यम, पूंजी और प्रबंधन की कुशलता सराहनीय है.
इसके बाद कई विभागों में बदलाव के लिए संशोधन किये गये- जैसे, इलेक्ट्रिसिटी एक्ट, 2003, द एमेंडमेंट ऑफ नेशनल हाइवे अथॉरिटी ऑफ इंडिया एक्ट, 1995, द स्पेशल इकोनोमिक जोन एक्ट, 2005 और भूमि अधिग्रहण विधेयक आदि. पीपीपी को लोकप्रिय बनाने में योजना आयोग समेत वित्त मंत्रलय और प्रधानमंत्री कार्यालय ने अधिक भूमिका निभायी.
इसकी प्रक्रिया में भले ही पारदर्शिता बरती जा रही हो, लेकिन भारत अब भी ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की सूची में काफी पीछे है. बीते कुछ दिनों में भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण की परियोजनाओं में कई तरह की खामियां पायी गयी हैं, जिससे इसके स्तर में गिरावट आयी है. दूरसंचार समेत अन्य कई विभागों में सामने आये घोटाले इस ओर इंगित करते हैं कि नागरिक समाज, जांच एवं लेखा परीक्षा संस्थाओं पारदर्शिता के प्रति सतर्कता नहीं बरती गयी.
हालांकि नीति-निर्माताओं द्वारा पीपीपी मॉडल को भारत के बुनियादी ढांचे के विकास के मद्देनजर बेहद अहम करार दिया जाता रहा है, लेकिन संयुक्त राष्ट्र की ग्लोबल एसेसमेंट रिपोर्ट में इन परियोजनाओं को लेकर गंभीर सवाल खड़े किये गये हैं.
यह सही है कि बुनियादी ढांचे में निजी भागीदारी को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, लेकिन यहीं यह भी देखा जाना चाहिए कि कहीं लाभ कमाने के चक्कर में निजी क्षेत्र के खिलाड़ी विभिन्न मानकों की अनदेखी तो नहीं कर रहे, जिनका परिणाम भविष्य में हमें भुगतना पड़ सकता है.
कैसे होता है पीपीपी के तहत निवेश
जहां तक बात पीपीपी मॉडल के भारत में शुरू किये जाने की है, तो बुनियादे ढांचे में निजी निवेश और भागीदारी निम्नलिखित तीन तरीकों से होती है.
एफपीपी यानी पूर्णतया निजी प्रावधान
इस मामले में सरकार निजी कंपनियों को संपत्ति के पूर्ण स्वामित्व की मंजूरी देती है. सरकार कोई जिम्मेदारी या जोखिम नहीं लेती है- उदाहरण के तौर पर हैदराबाद मेट्रो, दूरसंचार आदि.
पीपीपी स्कीम
इसे सरकार और निजी क्षेत्र के एक या एक से अधिक भागीदारों के संयुक्त वित्तीय सहायता से संचालित किया जाता है-जैसे, दिल्ली और मुंबई के हवाई अड्डे.
पीएफआइ यानी निजी वित्त पहल
इस स्कीम के तहत सार्वजनिक क्षेत्र की परियोजनाओं में मुनाफा हासिल करने के मकसद से निजी क्षेत्र के प्रबंधन और वित्त को बढ़ावा दिया जाता है. यह निजीकरण से इतर है, क्योंकि इसमें जनता को जरूरी सेवाएं मुहैया कराने की जिम्मेवारी निजी क्षेत्र को हस्तांतरित नहीं की जाती है और न ही संपत्ति के स्वामित्व का हस्तांतरण किया जाता है. सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट, बिजली वितरण के लिए फ्रेंचाइजी आदि को इसका उदाहरण माना जा सकता है.
संयुक्त राष्ट्र की चिंता
संयुक्त राष्ट्र की ग्लोबल एसेसममेंट रिपोर्ट में भारत को यह चेतावनी दी गयी है कि पीपीपी मॉडल उसके लिए मुश्किलों का सबब बन सकता है और इसका परिणाम आपदा जैसा हो सकता है. इसमें कहा गया है कि जब सरकार का परियोजनाओं पर नियंत्रण कम हो जाता है, तब निजी भागीदारों की दीर्घावधिक सुरक्षा सुनिश्चित करने की दिशा में ज्यादा रुचि नहीं होती. रिपोर्ट का कहना है कि सुरक्षा मानकों की अनदेखी के कारण भारत में कई आपदाओं का संकट पैदा हो सकता है.