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झारखंड को दूरदर्शी नेतृत्व की दरकार

झारखंड राज्य के गठन के लिए वहां के अनेक स्थानीय नेताओं ने इस राज्य की मांग को लेकर लंबा संघर्ष किया था. ऐसे नेताओं की एक लंबी श्रृंखला है. उन्हें आंदोलन के दौरान बने जनउभार का फायदा मिला. इस लड़ाई के अहम नेता के रूप में झारखंड मुक्ति मोर्चा के शिबू सोरेन का नाम लिया […]

झारखंड राज्य के गठन के लिए वहां के अनेक स्थानीय नेताओं ने इस राज्य की मांग को लेकर लंबा संघर्ष किया था. ऐसे नेताओं की एक लंबी श्रृंखला है. उन्हें आंदोलन के दौरान बने जनउभार का फायदा मिला. इस लड़ाई के अहम नेता के रूप में झारखंड मुक्ति मोर्चा के शिबू सोरेन का नाम लिया जा सकता है.
आम तौर पर ऐसा देखा गया है कि आंदोलन की पृष्ठभूमि में जिन राज्यों का निर्माण होता है, वहां राजनीति अपने परिष्कृत स्वरूप में होती है. वह उस दौरान देखे गये सपनों, लोगों की आकांक्षाओं, जनभावनाओं का सम्मान करते हुए राजनीतिक बिरादरी जी-जान से प्रयास करती है. लेकिन झारखंड ही ऐसा प्रदेश है, जहां आंदोलन के बाद ये सारे नेता आंदोलन के सपने को साकार करने की बजाय अपने-अपने स्वार्थ को साधने में लगे हुए हैं. उनका एक मात्र लक्ष्य खनिज संसाधनों से परिपूर्ण इस राज्य का दोहन और भाई-भतीजा वाद और परिवारवाद के इर्द-गिर्द सिमटी राजनीति बन गयी.
परिष्कृत राजनीति संसाधनों के सही बंटवारे या यू कहें कि संसाधनों के सही उपयोग को बढ़ावा देती है. लेकिन इस राज्य में संसाधनों को सामाजिक न्याय के दायरे में आवंटन के बजाय कंपनियों के हित को संरक्षित करने लगे. यहीं से गड़बड़ी शुरू हुई. प्राकृतिक संसाधनों का दोहन और अपराधीकरण इस दौर की पहचान बन गयी.
गठन के बाद से ही जिस तरह से राजनीतिक अस्थिरता प्रदेश की पहचान बनी है, और झारखंड ने गंठबंधन सरकारों का दौर लगातार देखा है, उसकी वजह से न तो राज्य में राजनीतिक परिपक्वता आयी और न ही बेहतर नेतृत्व विकसित हो पाया. ऐसी गंठबंधन सरकारें और अस्थिर राजनीति के कारण वहां के निवासी भी इस राजनीतिक परिस्थिति में ऊब महसूस कर रहे होंगे. गंठबंधन की राजनीति का दौर केंद्र में भी लंबे समय तक रहा है, लेकिन सिर्फ किस्सा कुर्सी का खेल जिस तरह से झारखंड में हुआ, वह कहीं और नहीं दिखा. कमोबेश सभी क्षेत्रीय दल कभी इस राष्ट्रीय दल के साथ, तो कभी उस राष्ट्रीय दल के साथ गंठबंधन कर सत्ता का स्वाद चखते रहे हैं.
झारखंड में भ्रष्टाचार और विकास के नाम पर आदिवासियों के जमीन से बेदखल करने के आरोप सभी पर हैं. इन्होंने सामाजिक अंतर्विरोध को कम करने के बजाय इसे बढ़ाया ही है. सामाजिक ताने-बाने को प्रभावित किया है. कभी निवास के सवाल पर, तो कभी सांप्रदायिकता के सवाल पर, कभी विकास के सवाल पर जनता के पास वोट के लिए बिना कुछ किये चले जाना इनकी राजनीतिक प्रवृति बन चुकी है. डोमिसाइल नीति स्पष्ट न होने के कारण जल, जंगल और जमीन पर हक को लेकर राजनीतिक दल भी बंटे हुए है, और उनके बीच फैले अंतर्द्वद्व का खामियाजा समाज को भुगतना पड़ रहा है.
आदिवासी जनमानस जहां अपने परंपरागत अधिकारों को लेकर सजग है, वहीं राजनीतिक जमात कॉरपोरेट के साथ खड़ी दिखती है इस तर्क के साथ कि राज्य में कॉरपोरेट आयेंगे और प्रदेश का विकास होगा. आज कोई भी जनता में फैले इस उहापोह को जन्म देने के आरोप से नहीं बच सकता. झारखंड में भ्रष्टाचार और आदिवासियों को उनके जमीन से बेदखल करने का आरोप सभी दलों पर है. प्रदेश की राजनीति सिर्फ इतने तक सिमटी नहीं है.
इसी पृष्ठभूमि में नक्सलवाद की बेल लगातार पनप भी रही है, और अपने पांव भी पसार रही है. समयानुकूल जनता के नुमाइंदे भी अपने-अपने हिसाब से इनके साथ एक तरह का छद्म रिश्ता भी रखते आये हैं. जब झारखंड प्रदेश बना तो आदिवासी को मुख्यमंत्री बनाया गया, लेकिन आदिवासी बनाम गैरआदिवासी का मुद्दा लगभग हर चुनाव में रहता है और गैर आदिवासी को मुख्यमंत्री बनाने के सवाल पर राजनीति होती रही है.
विगत महीनों में हुए लोकसभा चुनाव में प्रदेश में भाजपा को मिले अप्रत्याशित जीत ने एक बार फिर से इस मसले को गर्म कर दिया है. यह मांग जोर-शोर से उठायी जाने लगी है कि अब इस प्रदेश को गैरआदिवासी मुख्यमंत्री मिलना चाहिए. भाजपा-समर्थक अक्सर छत्तीसगढ़ का उदाहरण देते हुए यह कहते हैं, वह भी आदिवासी-बहुल राज्य है, लेकिन वहां की कमान गैरआदिवासी को दिया गया, इसलिए वहां स्थायी सरकार चल रही है, और राज्य का विकास हो रहा है.
एक बार झारखंड फिर से विधानसभा चुनाव के मुहाने पर खड़ा है. अब तक बीते करीब पंद्रह साल में झारखंड की जो समस्याएं रही हैं, वो बदस्तूर बनी हुई हैं. राजनीतिक दलों के पास वही पुराने मुद्दे हैं, और झारखंड की जनता के समक्ष नित्य नयी पैदा होती समस्याएं हैं. प्रदेश में किसकी सरकार बने, यह तो प्रदेश के मतदाताओं को तय करना है, लेकिन इस चुनाव में आम मतदाता को एक स्थिर सरकार के लिए मतदान करना चाहिए.
सिर्फ राजनीतिक गणित के लिहाज से स्थिर होने वाली सरकार चुनने मात्र से बात नहीं बननेवाली. स्थिर सरकार के साथ एक ऐसा नेतृत्व चाहिए जो दूरदर्शी हो और परिवारवाद के दायरे से बाहर आकर काम करे. परंतु मजबूत नेतृत्व का मतलब यह कतई नहीं है कि वह मनमाने फैसला ले, या समाज के किसी एक वर्ग के हितों को पूरा करे. मजबूत नेतृत्व का मतलब है ऐसा नेतृत्व जो समायोजन की बात करे, सबको समायोजित करनेवाली नीतियां बनाये.

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