आदिवासी समाज झारखंड में 25 नवंबर से शुरू पांच चरणों में विधानसभा चुनाव के लिए चल रहे चुनाव प्रचार के दौरान एक महान दुविधा में हैं. कुछ प्रमुख द्वारा गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री की संभावना से वे दुविधा में हैं. झामुमो सुप्रीमो शिबू सोरेन का हालिया बयां कि एक गैर-आदिवासी भी मुख्यमंत्री बन सकता है, आदिवासियों की दुविधा को बढ़ा दिया है. हालांकि एक झामुमो नेता ने गुरुजी के बयां को गंभीरता से नहीं लेने की बात कह कर इस टिप्पणी को खारिज कर दिया है. पर यह भी सच है कि गैर-आदिवासियों को लुभाने के लिए झामुमो ने अपने घोषणा पत्र से स्थानीयता के मुद्दे पर चुप्पी साध ली है. भाजपा और न ही कांग्रेस इस मुद्दे पर चर्चा करना चाहती है.
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आदिवासी, गैर आदिवासी मुख्यमंत्री पर कुछ बुनियादी सवाल
आदिवासी समाज झारखंड में 25 नवंबर से शुरू पांच चरणों में विधानसभा चुनाव के लिए चल रहे चुनाव प्रचार के दौरान एक महान दुविधा में हैं. कुछ प्रमुख द्वारा गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री की संभावना से वे दुविधा में हैं. झामुमो सुप्रीमो शिबू सोरेन का हालिया बयां कि एक गैर-आदिवासी भी मुख्यमंत्री बन सकता है, आदिवासियों की […]
जो लोग गैर आदिवासी मुख्यमंत्री के पक्षधर हैं, उनका कहना है कि अब तक के सभी नौ मुख्यमंत्री आदिवासी थे और वे निर्णायक नेतृत्व देने के लिए और राज्य को विकास को फास्ट ट्रैक पर ले जाने में सक्षम नहीं थे. उनका दलील है कि ‘क्यों झारखंड में छत्तीसगढ़ की तरह एक गैर आदिवासी मुख्यमंत्री नहीं हो सकता? हरियाणा में गैर जाट मुख्यमंत्री हो सकता है. महाराष्ट्र में मराठा एकाधिकार चकनाचूर हो सकता है, तो झारखंड में भी मुख्यमंत्री के लिए एक गैर आदिवासी को क्यों नहीं मौका मिल सकता है?
लेकिन झारखंड के अल्प विकास के लिए सिर्फ आदिवासी मुख्यमंत्री को जिम्मेदार ठहराना एक साधारण स्पष्टीकरण प्रतीत होता है. वास्तव में सत्ता में बने रहने के लिए एक मुख्यमंत्री को उनके आकाओं व सहयोगी दलों ने किस तरह मजबूर किया किसी से छिपा नहीं है. विेषण करने पर पायेंगे कि राज्य की बदहाली का मूल कारण खंडित जनादेश ही रहा है.
जो लोग छत्तीसगढ़ में आदिवासी आबादी के लगभग 30 प्रतिशत के रहने के बावजूद एक गैर आदिवासी मुख्यमंत्री होने के उदाहरण देते हैं, वे शायद छत्तीसगढ़ के जन्म के लिए संघर्ष की प्रकृति से अनजान हैं. कांग्रेस नेता विद्याचरण शुक्ल की अगुआई में छत्तीसगढ़ राज्य संघर्ष मोरचा (सीआरएसएम) ने राज्य का दरजा के लिए मई 1999 में एक जोरदार आंदोलन किया था. सीआरएसएम से पहले छत्तीसगढ़ अस्मिता संगठन, जो बुद्धिजीवियों का एक स्वतंत्र समूह था, नये राज्य की अवधारणा पर विचारों के आदान-प्रदान के लिए रायपुर में अक्सर सभाएं किया करता था. यह राज्य आदिवासी संघर्ष का प्रतिफल नहीं था.
उसी तरह हरियाणा का गठन जाटों के आंदोलन की वजह से नहीं किया गया था. महाराष्ट्र राज्य भाषाई मापदंड पर राज्यों के पुनर्निर्माण के ढांचे के तहत बनाया गया था.
दूसरी तरफ, झारखंड का निर्माण आदिवासियों और बाद के दिनों में सदान के द्वारा करीब 100 वर्षो के लंबे संघर्ष के बाद केंद्र में भाजपा की सरकार द्वारा सन 2000 में किया गया था. झारखंड में जनसंख्या के संरचना के नजर से तीन वर्ग हैं -आदिवासी, सदान व गैर आदिवासी. संयोग से, आदिवासियों व सदान के बीच बहुत सारे विषयों पर तालमेल दिखता है.
इंस्टीटय़ूट फॉर ह्यूमन डेवलपमेंट के क्षेत्रीय निदेशक हरिश्वर दयाल का मानना है कि आदिवासी मुख्यमंत्री की बाधा हटाने से क ई विकल्प सामने आयेंगे, जो अंतत: शासन के लिए बेहतर साबित होगा. पर, किसी भी पार्टी के लिए यह निर्णय लेना कठिन होगा. भाजपा भी प्रचंड बहुमत के बाद ही इस तरह के निर्णय लेने को सोच सकती है, पर उनका मानना है कि गैर आदिवासी मुख्यमंत्री की वकालत करने से आदिवासियों के प्रति नस्लभेद की बू आती है. इस तरह की मांग से यह बताने की कोशिश हो रही है कि आदिवासी राज्य चलाने के काबिल नहीं रहे हैं.
हकीकत है कि किसी भी वैज्ञानिक अध्ययन के तहत आदिवासियों को एक अक्षम प्रशासक नहीं माना गया है. दयाल का मानना है कि यह विवादास्पद मुद्दा है और केवल आम सहमति के माध्यम से हल किया जा सकता है. इस तरह के कदम से राज्य में आगे सामाजिक संघर्ष की स्थिति ही पैदा होगी. पहले से ही झारखंड में आदिवासी, सदान व गैर आदिवासियों के बीच तालमेल व सह अस्तित्व का सवाल पेचीदा है. इसके अलावा, एक गैर आदिवासी नेता तो उप मुख्यमंत्री की कुरसी तक गये हैं, पर दोनों के कार्यकलाप में कुछ तो फर्क नहीं दिखाई दिया है.’
आदिवासी नेता रतन तिर्की का मानना है कि कोई पार्टी एक गैर आदिवासी मुख्यमंत्री की नियुक्ति की हिम्मत नहीं करेगा. वे कहते हैं, ‘हमें मुख्यमंत्री के रूप में एक गैर-आदिवासी को लेकर कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन व्यक्ति को एक खतियानी (पिछले सर्वेक्षण में पंजीकृत भूमि जिन लोगों के पास जा सकती है) होना चाहिए. इतिहासकार व भारत सरकार द्वारा 1989 में गठित समिति के सदस्य बीपी केसरी का कहना है कि एक गैर आदिवासी मुख्यमंत्री में कोई कानूनी बाध्यता तो नहीं है. यह तो एक आदिवासी को कुरसी देने के लिए उस समय के सरकार का एक उदार दृष्टिकोण था. एक गैर आदिवासी मुख्यमंत्री के साथ एक प्रयोग हो सकता है.
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