युद्ध के बाद रावण एक दिन श्रीराम, माता सीता और हनुमान वन में घूम रहे थे. श्रीराम वनवास काल के दौरान संकट में हनुमान जी द्वारा की गयी अनूठी सहायता याद कर रहे थे. उन्होंने कहा- हे हनुमान, संकट के समय तुमने मेरी जो सहायता की, मैं उसे याद कर गद्गद् हो उठा हूं.
सीता का पता लगाने का दुष्कर कार्य तुम्हारे बिना असंभव था. लंका जला कर तुमने रावण का अहंकार चूर-चूर किया, वह कार्य अनूठा था. घायल लक्ष्मण के प्राण बचाने के लिए यदि तुम संजीवनी बूटी न लाते, तो न जाने क्या होता? तमाम बातों का वर्णन करके श्रीराम ने कहा, तेरे समान उपकारी सुर, नर, मुनि कोई भी शरीरधारी नहीं है. मैंने खूब विचार कर देख लिया, मैं इस ऋण को चुका ही नहीं सकता.
सीता ने कहा, तीनों लोकों में कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जो हनुमान को उनके उपकारों के बदले में दी जा सके. श्रीराम ने पुन: जैसे ही कहा- हनुमान, तुम स्वयं बताओ कि मैं तुम्हारे अनंत उपकारों के बदले क्या दूं, जिससे मैं ऋण मुक्त हो सकूं. हनुमान जी ने हर्षित हो कर प्रेम में व्याकुल हो कर कहा- भगवान, मेरी रक्षा कीजिए- मेरी रक्षा कीजिए, अभिमान रूपी शत्रु कहीं मेरे तमाम सत्कर्मो को नष्ट नहीं कर डाले. प्रशंसा ऐसा दुर्गुण है, जो अभिमान पैदा कर तमाम संचित पुण्यों को नष्ट कर देता है. हनुमानजी की विनयशीलता देख कर सभी हतप्रभ हो उठे.
यह प्रसंग हमें बहुत गहरी सीख देता है. कई बार हम दूसरों की मदद कर के खुद को बहुत महान समझने लगते हैं. हमारे अंदर अहंकार आ जाता है कि सामनेवाला व्यक्ति हमारी मदद के बिना यह काम नहीं कर सकता था. हमें लगता है कि हमने मदद कर के अहसान किया है. हम बार-बार उस व्यक्ति को विभिन्न तरीकों से यह जताने की कोशिश करते हैं कि तुम मेरे ऋणी हो. यही भावना हमें पीछे की ओर धकेलती है. हम भूल जाते हैं कि कभी हमें भी किसी की मदद की जरूरत पड़ेगी और कोई हमारी मदद कर के भी बार-बार यह अहसान जतायेगा. बेहतर होगा कि हनुमान जी से सीख ले कर हम इस भावना को खुद पर हावी न होने दें. जब भी कोई हमारी तारीफ करे, उसे तुरंत यह जता दें कि यह आपका फर्ज था. हर तरफ यह ढिंढोरा न पीटें कि आपने किस इनसान की कब मदद की.
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