22.3 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

क्यों फीकी पड़ गयी ओबामा की चमक

अमेरिका के मध्यावधि चुनाव में राष्ट्रपति बराक ओबामा की डेमोक्रेटिक पार्टी को बड़ा झटका लगा है. विपक्षी रिपब्लिकन पार्टी संसद ( कांग्रेस) के निचले सदन प्रतिनिधि सभा में पहले से ही बहुमत में है और अब उसने ऊपरी सदन सीनेट में भी बहुमत हासिल कर लिया है. चुनाव के नतीजे बताते हैं कि जनता ने […]

अमेरिका के मध्यावधि चुनाव में राष्ट्रपति बराक ओबामा की डेमोक्रेटिक पार्टी को बड़ा झटका लगा है. विपक्षी रिपब्लिकन पार्टी संसद ( कांग्रेस) के निचले सदन प्रतिनिधि सभा में पहले से ही बहुमत में है और अब उसने ऊपरी सदन सीनेट में भी बहुमत हासिल कर लिया है. चुनाव के नतीजे बताते हैं कि जनता ने ओबामा की नीतियों को नकार दिया है. इन चुनावों से यह संकेत भी मिलता है कि अमेरिका में अगला राष्ट्रपति शायद डेमोक्रेट की जगह रिपब्लिकन होगा. राष्ट्रपति चुनाव में अब दो साल का समय रहा गया है, ऐसे में रिपब्लिकन पार्टी ओबामा को घेरने की भरपूर कोशिश करेगी, ताकि उनकी अलोकप्रियता और बढ़े. अमेरिकी संसद ने अगर उनका साथ नहीं दिया तो वे कोई मजबूत फैसला नहीं ले पायेंगे, जिसका असर अमेरिका के साथ पूरी दुनिया पर पड़ेगा. आइए, वैश्विक मीडिया की टिप्पणियों से जानने की कोशिश करते हैं कि डेमोक्रेट इतनी बुरी तरह क्यों हारे.

व्यापक समृद्धि नहीं ला पाने की वजह से डेमोक्रेट हारे

हैरॉल्ड मेयरसन, टिप्पणीकार

मंगलवार को जिस बुरी तरह डेमोक्रेट हारे, वह बताता है कि कहीं कुछ बहुत ज्यादा गलत हुआ है. डेमोक्रेट कम मतदान, रिपब्लिकनों द्वारा फैलायी गयी नकारात्मकता जैसे बहानों से इस झटके का बचाव नहीं कर सकते. डेमोक्रेटों को वही मार ङोलनी पड़ी है जो सभी अग्रणी अर्थव्यवस्थाओं में सत्तारूढ़ पार्टियों खास कर मध्य-वाम पार्टियों को ङोलनी पड़ती है. वह है, व्यापक साङोदारी वाली समृद्धि लोगों तक पहुंचा पाना, जैसा कि इन देशों में होता आया है.

इबोला और इस्लामिक स्टेट के खौफ यकीनन उनकी कोई मदद नहीं की. लोग अर्थव्यवस्था को लेकर ज्यादा भयग्रस्त थे, जिससे डेमोक्रेट नहीं निबट पाये. राष्ट्रीय एग्जिट पोल में भागीदारी करनेवाले 45 फीसदी लोगों ने कहा था कि उनकी सबसे बड़ी चिंता अर्थव्यवस्था है. स्वास्थ्य देखभाल (25 फीसदी) दूसरे, और विदेश नीति (13 फीसदी) तीसरे स्थान पर रही.

जनता के आर्थिक भय को समझने के लिए थोड़ा गहराई में जाना होगा. 63 फीसदी लोगों ने एग्जिट पोल के सर्वेक्षणकर्ताओं से कहा कि उन्हें लगता है कि अमेरिका की आर्थिक प्रणाली अमूमन अमीरों के पक्ष में है. सिर्फ 32 फीसदी ने कहा कि मोटामोटी ऐसा कोई भेदभाव नहीं है. हर जगह शहर और राज्य की न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने की मांग भी उठी. ये हालात डेमोक्रेटों के पक्ष में लगते हैं, फिर भी वे इसका फायदा नहीं उठा सके. रिपब्लिकनों के मजबूत इलाकों की तो जाने दीजिए, डेमोक्रेट मेरीलैंड, मैसाच्युसेट्स और इलिनॉय जैसे अपने गढ़ों में भी मतदाताओं को नहीं लुभा सके और गर्वनर पद की दौड़ में पराजित हो गये. वेरमोंट में भी डेमोक्रेटिक गवर्नर दोबारा बड़ी मुश्किल से जीत सका.

अगर वोटों में यही फासला बना रहा, तो जनवरी में सिर्फ 18 डेमोक्रेटिक गवर्नर रह जायेंगे. और, अगर अटलांटिक और प्रशांत को नहीं छूने वाले 31 राज्यों की बात करें तो उनमें यह संख्या सिर्फ 8 रह जायेगी.

मध्यावधि चुनाव का यह फैसला बताता है कि डेमोक्रेट सिर्फ आबादी की संरचना (जनसांख्यिकी या डेमोग्राफी) के बूते नहीं जीत सकते. रिपब्लिकन लातिन और अफ्रीकी मूल के मतदाताओं तथा नौजवानों के बीच अपना खराब प्रदर्शन सुधारने में विफल रहे, लेकिन इन समूहों के कम मतदान ने डेमोक्रेटों को डुबो दिया. खास कर डेमोक्रेटों के गढ़ में. इस बार 18 से 29 साल के मतदाताओं की संख्या कुल मतदाताओं का महज 13 फीसदी थी, जबकि 2012 में यह 19 फीसदी थी. 62 फीसदी लातिनी अमेरिकियों ने डेमोक्रेटों का समर्थन किया, लेकिन कुल मतदाताओं में उनकी हिस्सेदारी सिर्फ 8 फीसदी है. 2010 में भी यह हिस्सेदारी इतनी ही थी. ऐसा लातिनी समुदाय की आबादी बढ़ने के बावजूद है. मंगलवार के मतदान में गोरे और बूढ़े भारी पड़े, जो रिपब्लिकन के पक्ष में गया.

जिन चीजों ने डेमोक्रेटों के जनाधार का मतदान कम किया, उन्हीं चीजों ने गोरों के बीच पार्टी के वोटों पर भी असर डाला. अधिकतर अमेरिकी आगे बढ़ने की जगह पीछे गये हैं, जिसका कोई हल निकालने में सरकार फेल रही. डेमोक्रेटों ने राष्ट्र की आर्थिक वृद्धि का दावा किया था. वह भी ऐसे वक्त में जब मंदी के बाद से 95 फीसदी आर्थिक वृद्धि सिर्फ एक फीसदी सबसे धनी लोगों की जेब में जा रही थी. इस दौरान अर्थव्यवस्था के पटरी पर लौटने की खबरों को मतदाताओं ने दूर देश की खबरों की तरह लिया. दिलचस्प है कि जिस रिपब्लिकन पार्टी को मध्यावधि चुनाव में जीत मिली है, उसी ने संघीय न्यूनतम मेहनताने को बढ़ाने या रोजगार पैदा करनेवाली बुनियादी ढांचा परियोजनाओं को मंजूरी दिलाने या छात्रों के कर्ज माफ करने की डेमोक्रेटों की कोशिशों को रोकने का काम किया था. लेकिन लोगों ने इसकी सजा डेमोक्रेटों को दी, क्योंकि लोगों ने उन्हीं का सरकार पर नियंत्रण माना. और, सरकार की विफलता की कीमत डेमोक्रेटों को चुकानी पड़ी.

अमेरिका में ‘न्यू डील’ (महामंदी के बाद अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के लिए 1933 से 1936 के बीच लागू घरेलू कार्यक्रम) के व्यापक आधार वाली जो समृद्धि आयी थी, उसे दोबारा कैसे बहाल किया जाये, डेमोक्रेटों के पास इसका कोई ठोस जवाब नहीं है. 20वीं सदी के मध्य का नियंत्रित और ज्यादा भागीदारी वाला पूंजीवाद अब बहुत कठोर हो चुका है. एग्जिट पोल के दौरान मतदाताओं ने यह बात मानी. यूरोप की मध्य-वाम पार्टियों की तरह, उन्होंने ऐसी राष्ट्रीय नीतियां बनायी थीं जिन्होंने बहुसंख्यक नागरिकों की आमदनी और उनकी ताकत को संरक्षण दिया. लेकिन भूमंडलीकरण, तकनीक, वित्तीयकरण और मजदूरों की ताकत में क्षरण ने इन नीतियों को बौना कर दिया है. जिसकी वजह से उनका मत-आधार खंडित हो गया.

2016 में व्हाइट हाउस तक पहुंचने के लिए, डेमोक्रेट बहुत सरल ढंग से सिर्फ जनसांख्यिकी और सांस्कृति मुद्दों पर आधारित बढ़त के भरोसे नहीं रह सकते हैं. उन्हें वहां जाना होगा जहां वह पहले नहीं गये हैं. जैसे कि कारपोरेशनों में कामगारों की ताकत और आय में इजाफा करवाना. उन्हें अपनी जीत के लिए एक विश्वसनीय आर्थिक मंच तैयार करना होगा.

(अमेरिका के जाने-माने अखबार ‘वाशिंगटन पोस्ट’ से साभार)

अब अपनी विरासत बचाने की चुनौती है सामने

मिषाएल क्निगे

रिपब्लिकन पार्टी 2010 और 2012 के चुनावों में जो नहीं कर पायी थी, वह उसने अब तीसरे चुनाव में कर दिखाया है. उसने अमेरिकी संसद के दोनों सदनों पर कब्जा जमा लिया है. पार्टी इस बार फायदेमंद स्थिति में थी. व्हाइट हाउस में एक ऐसा डेमोक्रेट सत्तारूढ़ था जिसकी लोकप्रियता इस बीच जॉर्ज डब्ल्यू बुश के स्तर पर आ गयी है. रिपब्लिकन पार्टी के लिए एक अनुकूल चुनाव, जिसमें कंजरवेटिव प्रांतों में पार्टी उम्मीदवारों के जीतने की उम्मीद थी. और इसके अलावा मध्यावधि चुनावों में राष्ट्रपति की पार्टी को सजा देने का अमेरिकी मतदाताओं का परंपरागत रुझान. कुल मिला कर, विश्व के सबसे पुराने लोकतंत्र की ‘ग्रैंड ओल्ड पार्टी’ के लिए बड़ी जीत का ठोस माहौल.

आशावादियों को भले ही अभी भी लगे कि कांग्रेस (अमेरिकी संसद) में रिपब्लिकन पार्टी की जीत का मतलब होगा कि वे अपनी नीति में बदलाव लायेंगे और व्हाइट हाउस की पहलकदमियों को रोकने के बदले ‘लेम डक’ (लाचार) राष्ट्रपति के साथ सहयोग करेंगे. उनका कहना है कि राष्ट्रपति और संसद के बीच सत्ता के बंटवारे का समय कानूनों को पास करने के मामले में ऐतिहासिक रूप से बहुत उत्पादक रहा है. इसके अलावा रिपब्लिकन पार्टी को अब अपने ही हित में मतदाताओं को यह दिखाना होगा कि वह सिर्फ बाधा डालने वाली पार्टी नहीं है, वह रचनात्मक राजनीति भी कर सकती है.

उम्मीद की कोई वजह नहीं

लेकिन इन दलीलों का आधार यह है कि निर्वाचित सांसद पार्टी और देश के हित में सोचेंगे और काम करेंगे. लेकिन 2013 में बजट पास न कर प्रशासन को ठप करने और आप्रवासन (माइग्रेशन) कानून में बाधा डालने जैसी घटनाओं ने अतीत में दिखाया है कि हकीकत में ऐसा नहीं होता. दोनों रिपिब्लकन पार्टी की बाधा डालने की नीति की मिसाल हैं. लोगों की जिंदगी में बेहतरी लाने के बदले रिपब्लिकन पार्टी का ‘टी पार्टी’ वाला धड़ा आक्रामक विपक्ष की भूमिका निभा रहा है और पार्टी के हित में नहीं, बल्कि इलाकाई हार्डलाइनरों की शह पर काम कर रहा है.

इस पृष्ठभूमि में यह समझना ख्याली पुलाव होगा कि ज्यादा हार्डलाइनरों वाली मौजूदा संसद रिपब्लिकन पार्टी के बहुत से सदस्यों के बीच अत्यंत अलोकिप्रय राष्ट्रपति के साथ सहयोग का रवैया अपनायेगी. ओबामा को भविष्य में संसद के विरोध के लिए तैयार रहना होगा. दोबारा चुने जाने के बाद से ओबामा ने समझ लिया है कि रिपब्लिकन पार्टी के साथ सहयोग असंभव है. नतीजतन, वे ज्यादा से ज्यादा अध्यादेशों के जरिए शासन करने की कोशिश कर रहे हैं. इसमें वृद्धि होगी, लेकिन उन पर रिपब्लिकन पहलकदमियों को रोकने के लिए वीटो के इस्तेमाल का भी दबाव होगा. नतीजे के तौर पर अमेरिका में और राजनीतिक ध्रुवीकरण हो सकता है.

विरासत की रक्षा

इस पृष्ठभूमि में राष्ट्रपति बराक ओबामा की मुख्य चिंता यह होनी चाहिए कि वे अपने शासनकाल की दो महत्वपूर्ण परियोजनाओं को भविष्य के लिए सुरिक्षत करें. घरेलू नीति में उन्हें अपने ऐतिहासिक स्वास्थ्य सुधारों की रक्षा करनी होगी और उसे रिपब्लिकन हमलों से बचाना होगा. रिपब्लिकन पार्टी ने इस कानून के पास होने के बाद से ही इसे वापस लेने की घोषणा कर रखी है, हालांकि इस कानून की वजह से हेल्थ इंश्योरेंस (स्वास्थ्य बीमा) से वंचित अमेरिकियों की तादाद बहुत कम हुई है.

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ओबामा को ईरान के साथ संभवत: ऐसा ही ऐतिहासिक परमाणु समझौता करने की कोशिश करनी होगी. लेकिन यह मुश्किल होगा. हालांकि अध्यादेश के जरिए ओबामा प्रतिबंधों को सीमित अवधि के लिए हटा सकते हैं, लेकिन उसके अनुमोदन के लिए उन्हें संसद की जरूरत होगी. यदि ओबामा को तेहरान के साथ एक अंतरिम समझौता करने और उसे लागू करने में सफलता मिलती है तो रिपब्लिकन पार्टी के लिए राजनीतिक तौर पर उसे फिर से वापस लेना मुश्किल होगा.

इसके साथ दो महत्वपूर्ण सफलताओं का भविष्य और उसके साथ ओबामा के शासनकाल की राजनीतिक विरासत पर उनके शासन के अंतिम दो सालों में फैसला हो सकता है. 2008 में सीनेटर ओबामा ने राष्ट्रपति का चुनाव और उनकी डेमोक्रेटिक पार्टी ने संसद का चुनाव जीता था. छह साल बाद ओबामा को अपनी राजनीतिक विरासत की रिपब्लिकन बहुल कांग्रेस से रक्षा करनी पड़ रही है.

(डायचे वेले के ब्लॉग से साभार)

अपने कद से छोटे नजर आये राष्ट्रपति

अमेरिका में प्राय: यह देखा गया है कि राष्ट्रपति को अपने दूसरे कार्यकाल में ऐसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जब मतदाता व्हाइट हाउस में बैठे देश के मुखिया से ऊब जाते हैं और उनका सारा गुस्सा उसकी पार्टी पर निकलता है. मतदाताओं ने डेमोक्रेटों को अंगूठा दिखा कर रिपब्लिकन पार्टी को सीनेट का नियंत्रण सौंपा है, इसकी मुख्य वजह खुद राष्ट्रपति ही रहे हैं. दूसरे कार्यकाल के लिए चुने जाने के दो वर्षो में ओबामा कई बार अपने कद से छोटे नजर आये हैं और इस बात ने अमेरिकियों को विचलित किया है. यही वजह रही कि उनकी रेटिंग लगातार गिरती जा रही है.

अगर आप मजबूत सरकार के रूप में देश का शासन करना चाहते हैं तो आपकी सरकार को उसके अनुसार अपनी क्षमता दिखानी होगा. यह इस बार ओबामा से नहीं हो पा रहा है. ओबामा के महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट, स्वास्थ्य सेवा कार्यक्रम में सरकार की जारी असफलता उनकी क्षमताओं पर सवाल उठाती है. सरकार की अन्य असफलताओं की बात करें तो उनके लिए केवल ओबामा को जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन इसे उनकी एक कमी के रूप में ही गिना जायेगा कि वे देश में व्याप्त नौकरशाही से अच्छी तरह पार नहीं पा सके.

बहरहाल, अब डेमोक्रेटों के लिए सुधार का रास्ता यही बचता है कि वे जमीनी स्तर पर बेहतर काम करें और लोगों का भरोसा जीतें. साथ ही ओबामा अपने काम के जरिये लोगों के बीच एक स्पष्ट, टिकाऊ और प्रेरक संदेश देकर उनके सामने ऐसी छवि पेश करें, जिसे देख कर 2008 में उन्हें अमेरिका के लोगों ने चुना था.

जनता घिसी-पिटी बातों से ऊब गयी

बराक ओबामा हमेशा ‘यस वी कैन’ का नारा देते हैं. इससे वहां की जनता उनसे उम्मीदें लगा कर बैठी है. लेकिन उन्होंने घटिया काम किया है. उन पर भरोसा करने वालों को कुछ भी हासिल नहीं हुआ है. अमेरिका की जनता उनकी घिसी-पिटी बातों से थक चुकी है. भले ही इराक और अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना हटा ली गयी है. लेकिन वहां शांति नहीं बची है. ओबामा के कार्यकाल में ओसामा बिन लादेन मारा गया, लेकिन मध्य-पूर्व में आतंकी संगठन इसलामिक स्टेट का जन्म भी इसी दौरान हुआ है. जॉर्ज बुश जिन्होंने ‘सब कुछ’ करने का जोखिम उठाया और ओबामा जिन्होंने कुछ भी नहीं किया. ये दोनों अलग-अलग पार्टियों से ताल्लुक रखते हैं लेकिन दोनों का हश्र एक जैसा ही हुआ. क्या यह इनकी समस्या है या फिर यह मसला पूरे अमेरिकी व्यावस्था का है? अमेरिका इतना सुस्त है कि वहां सुधार संभव नहीं है.

(चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के अखबार ग्लोबल टाइम्स का संपादकीय)

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें