हम में से कई लोगों को होटल का खाना बहुत पसंद है. कई लोग खुशी-खुशी, तो कई लोग मजबूरी में बाहर का खाना खाते हैं. कई लोगों के घरों में खाना बनाने के लिए स्टाफ मौजूद हैं और वे उन्हीं के हाथ का बना खाना खाते हैं. ऐसे खाने और मां व पत्नी के हाथ […]
हम में से कई लोगों को होटल का खाना बहुत पसंद है. कई लोग खुशी-खुशी, तो कई लोग मजबूरी में बाहर का खाना खाते हैं. कई लोगों के घरों में खाना बनाने के लिए स्टाफ मौजूद हैं और वे उन्हीं के हाथ का बना खाना खाते हैं. ऐसे खाने और मां व पत्नी के हाथ से बने खाने में क्या अंतर होता है? इस पर ब्रह्मकुमारी सिस्टर शिवानी ने बहुत अच्छी बात कही है.
इनका कहना है कि ‘जैसा अन्न, वैसा मन’. जब हम होटल या रेस्टोरेंट में खाते हैं, तो हम ऐसे व्यक्ति के हाथ का बना हुआ खाना खाते हैं, जिसका इरादा धन कमाना है. यहां होटलवाले से लेकर कुक तक के दिमाग में केवल प्रॉफिट की बात चलती है. यही वजह है कि बाहर का खाना खा-खा कर हम भी ऐसे ही सोचने लगे हैं. धन कमाने की दौड़ में लग गये हैं.
कई लोग घर में तो खाना खाते हैं, लेकिन वे इतने अमीर हैं कि उन्होंने कुक रखा हुआ है. वे कुक के हाथों का बना हुआ खाते हैं. कुक के दिमाग में भी सैलरी यानी धन की बात चलती रहती है. ठीक इसके विपरित, जब किसी के घर में मां खाना बना कर खिलाती हैं, तो उसके पीछे मकसद केवल ‘प्रेम’ होता है. जब आप एक रोटी और मांगते हैं, तो वह खुशी से उछल पड़ती है, यह सोच कर कि आज मेरे बेटे ने एक रोटी ज्यादा खायी.’ अब एक रोटी आप अपने कुक से ज्यादा बनाने को कहेंगे, तो वह क्या सोचेगा? वह सोचेगा कि ‘यार ये व्यक्ति रोजाना तीन रोटी खाता है, आज उसने चार क्यों मांग ली.
मेहनत बढ़ गयी. आटा भी दोबारा गूंथना पड़ेगा.’ इस तरह के विचारों के साथ जब वह खाना बनायेगा, तो आपकी सेहत पर उस खाने का क्या असर होगा? यह वैज्ञानिक रूप से सिद्ध है कि खाना बनाते वक्त किचन में जिस तरह की वाइब्रेशन होगी, खाना खानेवाले की सेहत पर भी उसका असर पड़ेगा. जब हम गुस्से में, चिड़चिड़ाहट में, मजबूरी में खाना बनाते हैं, तो हम सामनेवाली की सेहत पर नकारात्मक असर डालते हैं. वहीं, जब हम खाना बनाते हुए सोचते हैं कि मेरे बेटे की सेहत अच्छी हो, वह स्वस्थ रहे, तो बेटे का स्वास्थ भी अच्छा रहता है और मन भी.
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