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दस क़ानून जिनसे छुटकारा पाने की है तैयारी

सौतिक बिस्वास बीबीसी संवाददाता, नई दिल्ली भारत में क़ानून की क़िताब में 300 से अधिक क़ानून हैं जो औपनिवेशक शासन के समय से चले आ रहे हैं. श्रम, निजी कंपनियों और बैंकों के राष्ट्रीयकरण, टैक्स वसूली के कुछ क़ानून बेकार और इस्तेमाल से बाहर हैं और अक्सर इनका उपयोग लोगों को परेशान करने में किया […]

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भारत में क़ानून की क़िताब में 300 से अधिक क़ानून हैं जो औपनिवेशक शासन के समय से चले आ रहे हैं.

श्रम, निजी कंपनियों और बैंकों के राष्ट्रीयकरण, टैक्स वसूली के कुछ क़ानून बेकार और इस्तेमाल से बाहर हैं और अक्सर इनका उपयोग लोगों को परेशान करने में किया जाता है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि ‘बेकार क़ानूनों’ से भारत को निजात दिलाना भी उनका एक मिशन है.

मोदी सरकार ने ऐसे 36 पुराने क़ानूनों को ख़त्म करने के लिए विधेयक पहले ही संसद में पेश कर दिया है.

दिल्ली के एक नागरिक संगठन ने एक क़दम आगे बढ़कर ऐसे 100 क़ानूनों की सूची तैयार की है जिन्हें क़ानून की क़िताब से हटाने से ज़रूरत है. इनमें दस कानूनों की जानकारी दे रहे हैं सौतिक बिश्वास.

ऐसे 10 क़ानून, जिनसे भारत आसानी से छुटकारा पा सकता है:

इंडिया ट्रेज़रर ट्रोव एक्ट, 1878

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हाल ही में भारत के क़ानून मंत्री रविशंकर प्रसाद को एक आयोग ने पुराने आयोग ख़त्म करने की सिफारिश की है.

इस क़ानून में ज़मीन में दबी कोई भी वस्तु और कम से कम 10 रुपये मूल्य की चीज़ का जिक्र है. क़ानून के मुताबिक ऐसा खजाना पाने वाले व्यक्ति को इसकी सूचना वरिष्ठ स्थानीय अधिकारी को देनी होगी.

यदि इसे पाने वाला लूट के इस सामान को सरकार को सौंपने में विफल रहता है तो "इस खजाने का हिस्सा महारानी साहिबा का होगा." यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि अंग्रेजों ने भारत 1947 में ही छोड़ दिया था.

दि बंगलौर मैरिज़ेज वेलिडेटिंग एक्ट, 1934

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बंगलौर के पादरी वॉल्टर जेम्स मैकडोनल्ड रेडवुड ने अपने समय में इस विश्वास के साथ स्थानीय लोगों के कई विवाह संपन्न कराए, कि वह ऐसा करने के लिए अधिकृत हैं. इन शादियों को मान्यता देने के लिए यह क़ानून बनाया गया.

साल्ट सेस एक्ट, 1953

विशेष प्रशासनिक ख़र्चों के लिए नमक निर्माताओं पर यह उपकर लगाया गया. 40 किलो नमक पर 14 पैसे उपकर लगाया गया था.

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1953 में नमक बनाने वाली कंपनियों पर उपकर लगाया गया था

1978 में एक उच्चस्तरीय कमेटी ने भी क़ानून को ख़त्म करने की सिफारिश की थी. कमेटी का कहना था कि टैक्स वसूली की लागत इस मद में कुल प्राप्त टैक्स के आधे से अधिक है.

टेलीग्राफ वायर्स (अनलॉफ़ुल पजेशन) एक्ट, 1950

इस क़ानून के तहत टेलीग्राफ वायर्स के लिए नियम तय हैं. टेलीग्राफ वायर रखने वाले व्यक्ति को इसकी मात्रा के बारे में अधिकारियों को सूचित करना होगा.

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सिर्फ़ दस पाउंड तक ही वायर रख सकते हैं, इससे ज़्यादा वायर होने पर अतिरिक्त वायर को पिघलाना होगा.

इस क़ानून के साथ समस्या यह है कि भारत में आखिरी टेलीग्राम जुलाई 2013 में भेजा गया था, इसके बाद से ये सेवा बंद है.

दि इंडियन पोस्ट ऑफ़िस एक्ट, 1898

इस क़ानून के मुताबिक संघीय सरकार को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पत्र भेजने के विशेषाधिकार दिए गए थे.

भारत में अब कोरियर सेवा ने इस क़ानून का तोड़ भी निकाल लिया है और चिट्ठियों के बजाय ‘दस्तावेज़’ भेजने में जुटी हुई है.

दि सराय एक्ट, 1867

145 साल पुराना यह क़ानून जन सरायों (विश्राम गृह) के प्रबंधन और उस जगह पर हानिकारक वनस्पति हटाने को लेकर है.

इस क़ानून के मुताबिक सरायों को यात्रियों को मुफ़्त पानी देना चाहिए. ख़बरों के मुताबिक इस क़ानून का दुरुपयोग अक्सर होटल मालिकों के उत्पीड़न में किया जाता है.

यंग पर्सन्स (हार्मफ़ुल पब्लिकेशंस) एक्ट, 1956

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बेकार क़ानूनों को ख़त्म करने की प्रतिबद्धता दोहराई है.

यह क़ानून युवाओं के बीच हानिकारक प्रकाशनों के प्रसार पर रोक लगाने के लिए बनाया गया था. हानिकारक प्रकाशन जिसमें ‘तस्वीरें या कहानी हिंसक या क्रूर हो’ या ‘प्रतिकारक या भयानक किस्म’ की घटनाएं हों.

‘प्रतिकारक या भयानक’ शब्दों का दायरा व्यापक है और कई लोगों को मानना है कि इन्हें भी उत्पीड़न का हथियार बनाया जाता है.

दि शेरिफ़ फ़ीस एक्ट, 1852

इस क़ानून में तत्कालीन बॉम्बे, कलकत्ता और मद्रास के शैरिफ को अदालत द्वारा जारी प्रक्रियाओं को लागू करने की एवज प्रोत्साहन राशि देने की व्यवस्था थी. शेरिफ़ स्थानीय हाईकोर्ट के आदेश, रिट्स और वारंट्स सर्व करते थे.

शेरिफ़ अब किसी तरह का क़ानूनी काम नहीं करते. इसलिए इस क़ानून का अब कोई मतलब नहीं है.

दि न्यूज़पेपर (प्राइस एंड पेज) एक्ट, 1956

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इस क़ानून के तहत बड़े अखबारों की कीमत, पन्ने तय करने और ख़बर और विज्ञापन का अनुपात तय करने के लिए नियम बने हैं. इन नियमों का उल्लंघन करने पर प्रकाशक के ख़िलाफ़ एक हज़ार रुपये तक जुर्माने का प्रावधान है.

दि संथाल परगना एक्ट, 1855

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इस पक्षपातपूर्ण औपनिवेशक क़ानून के तहत भारत के संथाल आदिवासियों को आम काऩूनों और नियमों से छूट दी गई क्योंकि वे ‘असभ्य नस्ल’ थे.

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