वृद्धावस्था वास्तव में मानव जीवन में एक नये अध्याय की शुरुआत होती है. इस आयु में व्यक्ति व्यावहारिक ज्ञान एवं अनुभवों से परिपूर्ण होता है. भारत में वृद्धजनों की संख्या दस करोड़ से अधिक है, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या हमारा सिस्टम उनकी उचित देखभाल और उनके अनुभवों का पर्याप्त इस्तेमाल कर रहा है?
इस वक्त दुनिया में करीब 70 करोड़ लोग 60 वर्ष से अधिक आयु के यानी वृद्धजन हैं, जो दुनिया की कुल आबादी का करीब 10 फीसदी है.
2050 तक 60 साल से अधिक आयु के लोगों की संख्या 2 अरब तक पहुंच जायेगी, जो तब दुनिया की कुल आबादी का करीब 20 फीसदी होगी.
इस दौरान वृद्धजनों की संख्या विकासशील देशों में सबसे तेज गति से बढ़ेगी. 60 साल से अधिक आयु के लोगों की संख्या सबसे ज्यादा एशिया में होगी.
2050 के आसपास मानवता के इतिहास में यह पहली बार होगा कि धरती पर 60 साल से अधिक आयु के लोगों की संख्या बच्चों से अधिक होगी.
60 वर्ष से अधिक आयु वालों में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या अधिक है. 80 वर्ष से अधिक वालों में महिलाओं की संख्या पुरुषों से दोगुनी और सौ साल से अधिक उम्र वालों में महिलाओं की संख्या चार से पांच गुनी है.
(स्रोत : संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट)
ऊपर दिये गये आंकड़े बताते हैं कि दुनिया के जनसांख्यिकीय पैटर्न में एक बड़ा बदलाव आ रहा है, जिससे धरती पर आबादी का चेहरा बदल रहा है. ज्यादातर देशों में जीवन प्रत्याशा में हो रही वृद्धि के चलते वृद्धजनों की आबादी तेजी से बढ़ रही है. बदलाव की यह दिशा यानी कुल आबादी में वृद्धजनों की हिस्सेदारी बढ़ने की रफ्तार हाल के कुछ दशकों में तेज हुई है. सन् 1950 से 2010 के बीच दुनियाभर में मेडिकल साइंस की तरक्की, स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता बढ़ने और स्वास्थ्य सुविधाओं के विस्तार के परिणामस्वरूप जीवन प्रत्याशा 46 साल से बढ़ कर 68 साल हो गयी है और उम्मीद की जा रही है कि इस सदी के अंत तक यह 81 साल हो जायेगी. ऐसे में आधुनिक विकास की राह में वृद्धजनों को सहभागी बना कर जनसांख्यिकीय पैटर्न में आ रहे इस बदलाव को एक नये अवसर के रूप में तब्दील करने की जरूरत दुनियाभर में महसूस की जा रही है.
भारत में वृद्धजन
वैश्विक स्तर पर हो रहे इस बदलाव से भारत भी अलग नहीं है. 2001 की जनगणना के अनुसार भारत में वृद्धजनों की आबादी 7.6 करोड़ से अधिक थी, जो 2011 में बढ़ कर करीब 9.8 करोड़ हो गयी. इस एक दशक में देश में वृद्ध लोगों की संख्या 39.3 फीसदी की दर से बढ़ी और देश की कुल आबादी में उनकी हिस्सेदारी 2001 की 6.9 फीसदी की तुलना में 2011 में 8.3 फीसदी हो गयी. देश में वृद्धजनों की संख्या अब दस करोड़ से अधिक हो चुकी है.
दरअसल, पिछले एक दशक में ही भारत में जीवन प्रत्याशा में करीब पांच साल का इजाफा हो गया है. केंद्रीय स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रलय द्वारा इसी साल जारी आंकड़ों के मुताबिक 2001-05 की अवधि में जीवन प्रत्याशा पुरुषों के लिए 62.3 साल, जबकि महिलाओं के लिए 63.9 साल थी, जो 2011-15 में बढ़ कर क्रमश: 67.3 और 69.6 साल हो गयी है.
जीवन प्रत्याशा किसी देश में पैदा होनेवाले बच्चे के औसत जीवनकाल का अनुमान है, जिसका आकलन वहां के मृत्यु दर के ट्रेंड और स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति के आधार पर किया जाता है. यानी हमारे देश में जो बच्चे पिछले कुछ वर्षो में पैदा हुए हैं, उनके जीवनकाल की संभावना उनसे एक दशक पहले पैदा हुए बच्चों की तुलना में पांच साल अधिक हो गयी है. यह उपलब्धि बच्चों के बेहतर पोषण एवं टीकाकरण के साथ-साथ संक्रामक रोगों की रोकथाम और स्वास्थ्य सुविधाओं के विस्तार के चलते हासिल हुई है. मंत्रलय के मुताबिक देश में शिशु मृत्यु दर 2005 में 58 (प्रति 1,000 जीवित जन्म) थी, जो 2012 में कम होकर 42 रह गयी है. इसी तरह मातृ मृत्यु दर भी 2001-03 में 301 (प्रति 1,00,000 जीवित जन्म) थी, जो 2007-09 में कम होकर 212 रह गयी है. विश्व बैंक के आंकड़े भी बताते हैं कि भारत में जीवन प्रत्याशा 1960 में 41.38 साल थी, जो 1980 में 55.38, 2000 में 62.16 और 2012 में 66.21 साल हो गयी.
सहारे की जरूरत
आज हमारे सामने ऐसी शख्सीयतों के बहुत से उदाहरण मौजूद हैं, जो अपने जीवन में 80 वसंत देख चुके होने के बावजूद अपनी सक्रियता के कारण युवाओं के लिए प्रेरणा स्नेत बने हुए हैं. यदि कोई व्यक्ति स्वस्थ है और परिवार एवं समाज को किसी भी रूप में अपना योगदान दे रहा है, तो उसका बुढ़ापा किसी भी तरह से अभिशाप नहीं रह जाता है. मेडिकल साइंस अब इतनी तरक्की कर चुका है कि यदि लोग अपने स्वास्थ्य के प्रति थोड़े सजग रहें, खुद को क्रियाशील और सक्रिय बनाये रखें, तो उम्र का कोई भी पड़ाव महज एक आंकड़ा बन कर रह जाता है.
हालांकि, उम्र बढ़ने के साथ जहां स्वास्थ्य की देखभाल पर खर्च बढ़ता जाता है, वहीं सेवानिवृत्ति के कारण आय लगातार कम होती जाती है. ऐसे वक्त में स्वास्थ्य की जरूरी देखभाल के लिए वृद्धजनों को सहारे की दरकार होती है- सरकार, समाज और संस्थाओं से; ताकि वे स्वस्थ, गरिमापूर्ण और उत्पादक जीवन व्यतीत कर सकें. लेकिन, कुछेक शहरों को छोड़ दें तो देश में बड़े हिस्से में सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की दयनीय हालत किसी से छिपी नहीं है. उधर, मरीजों का आर्थिक दोहन करने की नयी-नयी तरकीबें इजाद कर रहे निजी अस्पताल वृद्धजनों को भी कोई रियायत देने के मूड में नहीं दिखते. बीमा कंपनियों ने तो उन्हें सुरक्षा प्रदान करने से लगभग इनकार ही कर रखा है.
वृद्धजनों के स्वास्थ्य की सुरक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं तक उनकी पहुंच सुनिश्चित करना किसी भी देश के लिए बड़ी चुनौती है, लेकिन इस मामले में हमारा देश अब तक फिसड्डी ही रहा है. देश में 90 फीसदी से अधिक श्रमिक असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं, जिनमें से अधिकतर को वृद्धावस्था में पर्याप्त आर्थिक एवं सामाजिक सुरक्षा उपलब्ध नहीं है. ग्लोबल एज वाच इंडेक्स, 2013 में भारत को 91 देशों की सूची में 73वें स्थान पर रखा गया है. देश में 60 साल की आयु में जीने की संभावना महज 17 साल रह जाती है, जो दक्षिण एशियाई देशों में सबसे कम है. यह स्थिति इसलिए है, क्योंकि वृद्धजनों को स्वास्थ्य सुरक्षा मुहैया कराने के मामले में हमारा देश काफी पिछड़ा है. इस मामले में इंडेक्स में भारत को 85वें स्थान पर (91 देशों की सूची में) रखा गया है. देश में वरिष्ठ नागरिकों को पेंशन और अधिक ब्याज मिलने के कारण आर्थिक सुरक्षा प्रदान करने के मामले में भारत को इंडेक्स में 54वें स्थान पर रखा गया है. लेकिन, देश में 60 साल से अधिक आयु वालों में मैट्रिक या उससे अधिक शिक्षा प्राप्त लोगों की संख्या महज 20 फीसदी है और इस मामले में भी उक्त इंडेक्स में भारत का रैंक 73वां है.
बोझ नहीं हैं वृद्धजन
मैं यहां एक और महत्वपूर्ण तथ्य की ओर आपका ध्यान दिलाना चाहता हूं. समाज व पर्यावरण के विकास में बुजुर्गो की जरूरतों का ख्याल रखने के मामले में ग्लोबल एज वाच इंडेक्स, 2013 में भारत को 91 देशों की सूची में 72वें स्थान पर रखा गया है. दरअसल, हमारी अर्थव्यवस्था जैसे-जैसे उदार हो रही है, बुजुर्गो की दैनिक एवं भावनात्मक जरूरतों की चिंता कम होती जा रही है. आर्थिक विकास की रफ्तार तेज करने और शहरीकरण की होड़ में हमारा पारंपरिक सामाजिक ढांचा टूट रहा है, जिससे वृद्धजनों की उपेक्षा लगातार बढ़ रही है. उन्हें पहले से आबादी का दबाव ङोल रहे बुनियादी ढांचे और संसाधनों पर बोझ के रूप में देखा जा रहा है. जबकि, वृद्धावस्था वास्तव में मानव जीवन में एक नये अध्याय की शुरुआत होती है. इस आयु में व्यक्ति व्यावहारिक ज्ञान एवं अनुभवों से परिपूर्ण होता है. इस कारण वह न केवल विकास का मार्गदर्शन कर सकता है, बल्कि उसमें एक नयी ऊर्जा का संचार भी कर सकता है. इसलिए जरूरत इस बात की है कि देश और समाज वृद्धजनों के ज्ञान का अधिकतम इस्तेमाल करने की राह तलाशे, उनकी रचनात्मकता एवं उत्पादकता का बेहतर इस्तेमाल करने की रणनीति तैयार करे. देश की दस करोड़ से अधिक आबादी को विकास की प्रक्रिया में भागीदार बनाये बिना तीव्र विकास का सपना अधूरा ही रहेगा.
क्या अच्छे दिन आएंगे!
आज देश में वृद्धजनों के कल्याण के लिए जो सरकारी योजनाएं चल भी रही हैं, उनके प्रति जागरूकता का घोर अभाव है. जनसांख्यिकीय पैटर्न में बदलाव के मद्देनजर देश में 1999 में एक ‘राष्ट्रीय वृद्धजन नीति’ तैयार की गयी थी, जिसका उद्देश्य वरिष्ठ नागरिकों को वित्तीय, चिकित्सकीय और सामाजिक सहायता उपलब्ध कराते हुए उनके भावनात्मक मुद्दों का व्यापक समाधान करना था. लेकिन इस पर अमल से ज्यादा बहस का दौर ही चलता रहा है. बाद के वर्षो में एक और बड़ा कदम ‘माता-पिता एवं वरिष्ठ नागरिक भरण-पोषण व कल्याण अधिनियम, 2007’ के रूप में उठाया गया, लेकिन इसके विभिन्न प्रावधानों की जानकारी देश में कितने लोगों को है? पिछले साल अंतरराष्ट्रीय वृद्धजन दिवस के मौके पर एक समारोह में खुद तत्कालीन केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री गुलाम नबी आजाद ने कहा था कि देश के 23 राज्यों और सभी संघ शासित प्रदेशों द्वारा इस अधिनियम को अधिसूचित किये जाने के बावजूद समाज के बड़े वर्ग, खास कर ग्रामीण क्षेत्रों में इस अधिनियम की जानकारी लोगों को नहीं है. उन्होंने वरिष्ठ नागरिकों की जरूरतें पूरी करने के लिए अलग-अलग स्तरों पर किये जा रहे प्रयासों के बीच तालमेल की कमी पर भी चिंता जाहिर की थी.
अब देखना होगा कि मोदी सरकार के ‘अच्छे दिनों’ के वादे से क्या वृद्धजनों के दिन भी फिरेंगे? इसकी कुछ उम्मीद उन हालिया खबरों से जगी है, जिसमें कहा गया है कि मोदी सरकार राष्ट्रीय महिला आयोग और राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग की तर्ज पर बुजुर्गो के लिए भी एक राष्ट्रीय आयोग बनाने की तैयारी कर रही है. खबरों के मुताबिक केंद्रीय सामाजिक न्याय अधिकारिता मंत्रलय ने इस आयोग के गठन के लिए विधेयक का मसौदा तैयार कर लिया है, जिसे शीतकालीन सत्र में संसद में पेश किया जा सकता है. यह आयोग वरिष्ठ नागरिकों के अधिकारों के उल्लंघन और उन पर अत्याचार से संबंधित शिकायतों के साथ-साथ उनकी सुरक्षा से जुड़े मुद्दों की जांच करेगा. उल्लेखनीय है कि 1999 में बनी राष्ट्रीय वृद्धजन नीति की समीक्षा के लिए 2010 में गठित उच्चस्तरीय समिति ने देश में ऐसा आयोग बनाने की सिफारिश की है.
हालांकि, वरिष्ठ नागरिकों की देखभाल का दायित्व अकेले सरकार के स्तर पर पूरा नहीं हो सकता; परिवार और समाज को भी उनके प्रति अधिक संवेदनशील होना होगा, विकास नीतियों के साथ-साथ वैज्ञानिक अनुसंधानों में भी उनकी जरूरतों का खास ख्याल रखना होगा और स्वयंसेवी संगठनों को भी इस दिशा में अपनी भूमिका बढ़ाने के लिए आगे आना होगा.