।। अजय सिंह ।।
– यह आलेख भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक (रविवार) खत्म होने के बाद मिले आडवाणी के इस्तीफे की सूचना के बाद लिखा गया था. इस आलेख में आडवाणी को ही पार्टी के अंदर उपजी ऐसी स्थिति के जवाबदेह ठहराया गया है. हालांकि अब खबर है कि आडवाणी मान गये हैं, लेकिन पार्टी में सब ठीक हो गया है, यह नहीं कहा जा सकता. –
जैसे ही मैं गोवा से दिल्ली जाने के लिए फ्लाइट पर चढ़ रहा था, मैंने सुना कि भाजपा के ‘भीष्म पितामह’ कहे जानेवाले लालकृष्ण आडवाणी ने भाजपा के सभी पदों से इस्तीफा दे दिया है, सिवाय अपनी प्राथमिक सदस्यता और सांसदी के. आडवाणी के लिए समय का चक्र एक बार फिर से घूमा, जिन्होंने ईंट दर ईंट पार्टी का निर्माण किया था. पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह को लिखे अपने पत्र में उन्होंने बताया कि कैसे वह पार्टी की वर्तमान राजनीतिक संस्कृति से तालमेल नहीं बैठा पा रहे, जिसका लक्ष्य व्यक्तिगत आकांक्षाओं की पूर्ति करना है. पार्टी के बारे में हो सकता है कि आडवाणी के विचार सही हों, पर दरअसल वह संगठन में हो रहे तब्दीली की जरूरत को पहचान नहीं पा रहे.
दिलचस्प यह है कि आज भाजपा का जो शीर्ष नेतृत्व है, उन्हें वाजपेयी और आडवाणी ने ही राजनीति में प्रशिक्षण दिया था. इसलिए यदि इन नेताओं का समूह महत्वाकांक्षी और स्वयं को आगे बढ़ाने वाला है, तो यह उनके मेंटर की छाया ही तो है. जो लोग राजनीति को सिर्फ पावर गेम के रूप में देखते हैं, उनके लिये राजनीति के खेल में सबसे बड़ा सिद्धांत यही है कि जिस पथ पर चलें, उस पर अडिग रहें. अपने पूरे राजनीतिक जीवन में आडवाणी जिन विचारों पर चले, उस पर अडिग नहीं रहे.
उदाहरण के लिए, उन्होंने विचारधारा के तहत अयोध्या आंदोलन चलाया. लेकिन बाद में यह प्रमाणित हो गया कि यह सब धार्मिक भावनाओं की लहर पर सवार होकर राजनीति में पैठ बनाने का ही खेल था.
इसी तरह देखें, तो पता चलता है कि उन्हें पार्टी के लिए फंड जुटाने के लिए येन-केन तरीकों से कोई परेशानी नहीं थी, जैसा कि प्रमोद महाजन के समय पार्टी के लिए फंड जुटाया जाता था. ऐसा माना जाता है कि एनडीए शासन के दौरान, उन्होंने भाजपा के कई नेताओं को बचाया (संयोग से आज वे चोटी के नेतृत्व में शामिल हैं), जिनके आचरण पर संदेह था.
यहां तक कि 2002 दंगों के बाद उनके मुख से वाजपेयी की तरह पश्चाताप के दो बोल भी नहीं निकले. दूसरी ओर, जब वाजपेयी ने 2004 लोकसभा चुनाव में पराजय के लिए मोदी के मुख्यमंत्री बने रहने का कारण बताया, तो भी आडवाणी ने मोदी का बचाव किया. आडवाणी आज जो पीड़ा बयां कर रहे हैं, वह उनकी तब की छवि से बिल्कुल उलट है.
अगर संघ परिवार के इतिहास पर एक सरसरी नजर डालें, तो पायेंगे कि यह आडवाणी ही थे जिन्होंने 90 के दशक में यह छूट दी थी कि पार्टी कैडर और सड़क पर उतरने वाली भीड़ राजनीतिक एजेंडे को लागू करे. आज उनके दिखावे के मूल्य और पार्टी कैडरों को नसीहत कि मोदी की ओर न झुकें को पूछने वाले कितने हैं? और सही पूछिए तो आडवाणी ने दूसरी पीढ़ी के जिन नेताओं को आगे बढ़ाया, वे नेतृत्व के अधीन रहने के बजाय, खुद नेतृत्व करना चाहते हैं. पार्टी के भीतर इस तरह की संस्कृति विकसित करने के लिए आडवाणी को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है.
यही मुख्य कारण है कि आडवाणी की बातों को उन्हीं लोगों ने नकार दिया, जो उनकी छत्रछाया में पले थे. उनका यह राजनीतिक आकलन कि मोदी कार्ड के कारण कई बड़े मुद्दे बेपटरी हो जायेंगे, जमीनी सच्चई और तर्कसंगत हो सकती है. लेकिन पार्टी कैडर जो भावनाओं और लुभावनी बातों से प्रभावित होते हैं, उनका इससे लेना-देना नहीं है. वस्तुत: छह दिसंबर 1992 को उनकी उपस्थिति में बाबरी मसजिद गिराये जाने के समय भी उन्हें इसी तरह की परिस्थितियों का सामना करना पड़ा था. तब उन्होंने जन भावनाओं के भड़कने को लेकर अनभिज्ञता जाहिर की थी. पर आज वह ऐसा नहीं कर सकते. क्योंकि भीड़ और भावनाएं उनके रास्ते में आनेवाली हर चीज को बरबाद कर डालती है, चाहे वह बाबरी मसजिद हो या एलके आडवाणी.
(लेखक गवर्नेस नाउ के संपादक हैं)