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बाल मजदूर से सीएम की कुरसी तक

बिहार के मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी पर बहुत कुछ लिखा-पढ़ा जा चुका है. फिर भी एक वंचित समाज से तप कर राजनेता बने मांझी के बारे में जानने की उत्कंठा बरकरार रहती है. आज पढ़िए मांझी के शिक्षक की कलम से निकला यह लेख, जिसमें उन्होंने सिलसिलेवार तरीके से बिहार के सीएम के जीवन पर प्रकाश […]

बिहार के मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी पर बहुत कुछ लिखा-पढ़ा जा चुका है. फिर भी एक वंचित समाज से तप कर राजनेता बने मांझी के बारे में जानने की उत्कंठा बरकरार रहती है. आज पढ़िए मांझी के शिक्षक की कलम से निकला यह लेख, जिसमें उन्होंने सिलसिलेवार तरीके से बिहार के सीएम के जीवन पर प्रकाश डाला है.

रामविलास रजकण

बिहार के गया जिले में खिजरसराय प्रखंड से करीब 10 किमी दूर हथियामा गांव की नहर पर दलितों की कुछ झोपड़ियां थीं. चार-पांच फीट ऊंची मिट्टी की दीवार, फूस की छप्पर, आदमी घुसने भर दरवाजा, लकड़ी की टाटी का परदा. दरिद्रता ही उनकी पूंजी. स्त्री-पुरुष किसानों के खेत-खलिहानों में काम करते. बच्चे सूअर, बकरी चराते, फसल चर जाने पर गालियां सुनते, मार खाते, मगर इसका कोई गम उन्हें नहीं सताता. नहर में वे मछली मारते, धान के खेतों में चूहे पकड़ते और फटे-पुराने कपड़ों से अपनी देह ढंकते.

ऐसे ही परिवेश में रामप्रीत राम मांझी की झोपड़ी में 10 फरवरी, 1944 को जीतनराम मांझी का जन्म हुआ. बालक पांच साल का भी नहीं था कि इलाके में भीषण बाढ़ आ गयी. अपनी जान बचाने के लिए लोग ऊंची जगहों पर भागने लगे. जीतन की चीत्कार से मां-बाप परेशान. वे दुविधा में थे कि अपनी जान बचायेंया बेटे की. कुछ सोच रामप्रीत राम ने अपने कलेजे के टुकड़े को धोती में बांध कर नहर में दहा दिया. डूबते को तिनके का सहारा मिला. धोती में बंधा बालक नहर के कगार में अटक गया और उसे नया जीवन मिला. ‘होइ हैं सोई जो राम रचि राखा’ की कहावत सार्थक हुई.

गांव की सभी झोपड़ियां बाढ़ के पानी में विलीन हो गयीं और उनके वासी जीविका की खोज में दूसरे गांवों में चले गये. रामप्रीत राम मांझी महकार में बड़े किसान कामेश्वर सिंह के यहां खेतिहर मजदूर बन गये. कामेश्वर ने उन्हें घर बनाने के लिए कुछ जमीन दे दी. रामप्रीत नटुआ थे और अनपढ़ होने के बावजूद उन्हें सैकड़ों लोकगीत और भक्ति के पद कंठस्थ थे. पर्व-त्योहार पर कला प्रदर्शन वे श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देते. इन गुणों के बावजूद वे नशेबाज थे और ताड़ी-दारू का सेवन प्रतिदिन करते थे.

जीतन जब छह साल का हुआ, तो उसके हाथ में डंडा थमा दिया गया और कामेश्वर सिंह ने उसे पशुओं की चरवाही में लगा दिया. शाम को जब वह पशुओं को चरा कर घर लौटता और मालिक के बच्चों को रात में पढ़ते देखता, तो उसके मन में भी पढ़ने की लालसा जगती. एक रोज उसके पिता ने कामेश्वर सिंह से अपने पुत्र के पढ़ने की इच्छा जाहिर की तो उन्होंने फटकारते हुए कहा, ‘क्या तुम्हारा बेटा पढ़-लिख कर कलक्टर बनेगा?’ मालिक की कड़वी बात सुन रामप्रीतराम मांझी के मन में ठेस लगी, लेकिन उसने भी निर्भीक होकर कहा, ‘अगर मेरा बेटा नहीं पढ़ेगा तो मैं भी आपके यहां काम नहीं करूंगा.’ मालिक ने अपने मजदूर को मनाने के लिए टूटी-फूटी एक स्लेट लाकर दी, जिस पर जीतनराम ने ककहरा सीखा. कुछ सालों बाद नादरा गांव में प्राथमिक विद्यालय में चौथी कक्षा में जीतन का दाखिला हुआ. किताब-कॉपी और कपड़े-लत्ते की किल्लत से वह हमेशा परेशान रहा.

जुलाई, 1960 में बलदेव उच्च विद्यालय नैली (गया) में जब मैंने सहायक शिक्षक का कार्यभार संभाला था, उस वक्त जीतनराम वहां 10वीं का छात्र था. वह मेहनती, मेधावी और जिज्ञासु छात्र था. 1962 में जीतन ने अच्छे अंकों से मैट्रिक की परीक्षा पास की और आगे की पढ़ाई के लिए गया कॉलेज, गया में दाखिला लिया. कॉलेज के हॉस्टल में उसे जगह मिल गयी थी, लेकिन पढ़ने-लिखने का माहौल नहीं मिला था. पढ़ाई का खर्च निकालने के लिए उसने ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया और 1967 में मगध विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री हासिल की.

वर्ष 1957 में बिहार विधानसभा चुनावों के दौरान उम्मीदवारों के प्रचार में जीतन ने रुचि दिखाई. प्रत्याशी उन्हें गाड़ियों में बैठा कर हरिजन बस्तियों-टोले में ले जाते और पक्ष में प्रचार करवाते. उसी समय उसके मन में विधायक बनने की इच्छा जागी, लेकिन समय ने साथ नहीं दिया. 1968 में बिहार में भयंकर अकाल पड़ा. जीतन के परिवार के सामने भुखमरी की समस्या आ गयी. इस बीच उन्हें डाक -तार विभाग में सेवा का मौका मिला और वे किरानी बन गये. इस विभाग में 13 वर्षो तक काम किया. जब जीतन के छोटे भाई गोविंद प्रसाद पुलिस में दारोगा बन गये, तब बड़े भाई के लिए जनसेवा का रास्ता खुल गया. राजनीति में आने के लिए गोविंद उनकी प्रेरणा के स्नेत बने और तन, मन, धन से सहयोग देने का आश्वासन दिया. 1980 में फतेहपुर विस क्षेत्र (सु.) से जीतन कांग्रेस के टिकट पर विजयी हुए और इन्हें भूमि सुधार राज्यमंत्री बनाया गया.

अपनी कमाई और छोटे भाई के सहयोग से इन्होंने महकार में 1984 में पक्का मकान बनवाया. वहां सिर्फ मुसहर जाति का जीतनराम का ही परिवार रहता है. 1985 में मांझी दूसरी बार फिर फतेहपुर सीट से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीतने में कामयाब रहे और उन्हें फिर राज्यमंत्री बनाया गया. फतेहपुर से इन्हें इतना लगाव था कि उसके निकट बापू ग्राम की रहने वाली आंगनबाड़ी सेविका ज्योति देवी (वर्तमान में बाराचट्टी की विधायक) की पुत्री से अपने बड़े बेटे संतोष की शादी करवायी. 1990 के विस चुनावों में राजद के रामनरेश प्रसाद ने इन्हें पराजित कर दिया.

जीतनराम अब तक बिहार की राजनीति से अच्छी तरह परिचित हो गये थे. जब कांग्रेस का जनाधार खिसकने लगा, तो इन्होंने राजद का दामन थाम लिया और 1998 में बोधगया से निर्वाचित हुए और राबड़ी सरकार में शिक्षा राज्य मंत्री बनाये गये. जब भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार के कारण राजद सरकार बदनाम होने लगी, तो इन्होंने जदयू की सदस्यता ग्रहण की. 2005 में इन्हें बाराचट्टी से जदयू का प्रत्याशी बनाया गया और जीत दर्ज करते हुए नीतीश कुमार की सरकार में अनुसूचित जाति कल्याण मंत्री नियुक्त किये गये. इसी वर्ष बीमारी के कारण इनके भाई गोविंद प्रसाद की मृत्यु हो गयी, जिससे इन्हें गहरा आघात लगा. इनके दुख को महसूस करने के बाद मुङो भगवान राम की मर्मातक पीड़ा याद आ जाती है-

जथा पंख बिनु खग अति दीना। मनि बिनु फनि करिवर कर हीना।।

अस मम जिवन बंधु बिनु तोही। जो जड़ दैव जिआवे मोही।।
जीतनराम तभी से अपने भाई के परिवार को अपने साथ रख कर उनके बच्चों को पढ़ा-लिखा रहे हैं. 2010 में मखदुमपुर विस क्षेत्र से जदयू के टिकट पर ये विधायक बने और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इन्हें फिर से कैबिनेट मंत्री बनाया. मांझी को राजनीति के अलावा साहित्य से भी लगाव है. इन्होंने मगही अकादमी, गया और अखिल भारतीय मगही साहित्य सम्मेलन के कई अधिवेशनों में गहरी रुचि दिखाई. महादलित आयोग के गठन में इन्होंने बड़ी भूमिका निभायी. बिहार मुसहर सेवा संघ की स्थापना में भी इनका विशेष योगदान रहा. गया स्थित इनके आवास पर एक बार मैंने पूछा था, ‘क्या आपके द्वारा स्थापित मुसहर सेवा संघ से मुसहरों के जीवन में कुछ बदलाव आया है?’ इन्होंने कहा था,‘अब महादलितों की संतानों को अपने परिवेशों में उतनी और उस प्रकार की यातनाएं नहीं सहन करनी पड़ती हैं, जितनी उनके पूर्वजों को सहन करनी पड़ती थी.’

इसी वर्ष अप्रैल-मई में आयोजित लोकसभा चुनावों के दौरान जीतनराम गया से जदयू के टिकट पर चुनाव लड़े थे, लेकिन हार गये. बिहार में जदयू के केवल दो ही प्रत्याशी विजयी हुए. इस हार की जिम्मेवारी तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने खुद पर ली और नैतिकता के आधार पर मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. 18 मई, 2014 को जीतनराम मांझी एक विवाह समारोह में गया जाने की तैयारी कर रहे थे. इसी दौरान उन्हें नीतीश कुमार ने उन्हें अपने सरकारी आवास पर बुलाया. जीतनराम जब वहां पहुंचे तो नीतीश ने उनसे कहा,‘मांझी जी, यह घर आपका है. हमने तय किया है कि अब विधायक दल के नेता आप होंगे.’ मांझी हतप्रभ. उन्होंने इस तरह की उम्मीद नहीं की थी. इसे ही किस्मत में राजयोग का खेल कहा जाता है. नीतीश कुमार जीतनराम मांझी को अपने साथ लेकर राजभवन चले गये और वहां शपथ ग्रहण की तिथि तय हुई. 20 मई, 2014 को मांझी ने बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली. मांझीजी ने कहा था,‘नीतीश कुमार जिस प्रकार माउंटेन मैन दशरथ मांझी के लिए अपनी कुरसी से उठ गये थे, उसी प्रकार उन्होंने उसी समाज के एक शख्स को अपनी कुरसी सौंप दी. यह पूरे महादलित समाज के लिए गौरव की बात है.’

(लेखक आदर्श उच्च विद्यालय, सरबहदा, गया के पूर्व प्रधानाचार्य हैं.)

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