उत्तराखंड के राज्यपाल अज़ीज़ क़ुरैशी ने मोदी सरकार के ‘दबाव’ के बावजूद हटने से मना कर दिया है और वो इस मामले को अदालत ले गए हैं.
इस पर पढ़िए संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप की राय.
उत्तराखंड के राज्यपाल का मामला चूंकि उच्चतम न्यायालय के अधीन है इसलिए उस मामले पर तो टिप्पणी नहीं की जानी चाहिए लेकिन संविधान में इस मसले पर क्या कहा गया है, उस पर बात की जा सकती है.
संविधान में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यंत अपना पद ग्रहण करते हैं यानी जब राष्ट्रपति चाहें तब उन्हें हटा सकते हैं.
वीपी सिंघल के मामले में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय लिया है कि राष्ट्रपति जब चाहें तब किसी राज्यपाल को हटा सकते हैं लेकिन इसमें यह भी कहा गया है कि यह बिना कारण नहीं होना चाहिए. हटाएं जाने का कोई ना कोई कारण होना चाहिए.
मनमाना ढंग स्वीकार्य नहीं
अगर कोई राज्यपाल जिन्हें हटाया गया है वो अदालत में जाते हैं और अदालत के सामने एक मज़बूत मामला बना पाते हैं कि उन्हें बिना कारण मनमाने ढंग से हटाया गया है तो ऐसी स्थिति में अदालत सरकार से पूछ सकती है कि कोई कारण था या बिना कारण हटाया गया है.
किसी भी राज्यपाल को हटाया जाता है तो कोई ना कोई कारण दिया जाना चाहिए और वो कारण फिर न्यायिक समीक्षा का विषय होता है कि कहीं स्वेच्छाचारी ढंग से तो नहीं हटाया गया है.
उत्तराखंड के मौजूदा राज्यपाल के मामले में अभी उन्हें हटाया नहीं गया है बल्कि इस्तीफ़ा देने का सुझाव दिया गया है. ये मामला तो अब न्यायालय के सामने हैं.
केंद्र सरकार की ओर से वाजिब कारण इस मामले में पेश होना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि हटाने का कारण स्वेच्छाचारी नहीं होना चाहिए.
सलाह मानना राष्ट्रपति के हाथ में
अगर गृह सचिव ने पद छोड़ने का सुझाव दिया है तो यह राज्यपाल के ऊपर है कि वे मानें या नहीं मानें. सुझाव देने की अधिकार संबंधी बातें संविधान में नहीं होती हैं. इस तरह की बातें किसी भी संविधान में नहीं होती है.
राज्यपाल को हटाने का अधिकार राष्ट्रपति का होता है और राष्ट्रपति का मतलब होता है भारत सरकार, क्योंकि कैबिनेट की सलाह पर राष्ट्रपति काम करते हैं. सलाह को मानना और नहीं मानना राष्ट्रपति के हाथ में है.
(संदीप सोनी से बातचीत पर आधारित)
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