धुर राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी लालू यादव और नीतीश कुमार सोमवार को बीस साल बाद मंच पर आए. राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल यूनाइटेड का यह गठबंधन बिहार में भारतीय जनता पार्टी की चुनौती का सामना करने के लिए अस्तित्व में आया है.
लेकिन क्या पुराने पड़ चुके तौर तरीक़ों, नारों, राजनीतिक दांव-पेंच से यह संभव हो पाएगा. क्या नए तौर तरीकों और नेतृत्व से लैस भाजपा का सामना मंडल राजनीति से किया जा सकता है?
आगामी 21 अगस्त को बिहार की 10 विधानसभा की सीटों पर उपचुनाव होने हैं. मत प्रतिशत के लिहाज से कांग्रेस, राजद और जद (यू) भाजपा से अधिक ताक़तवर हैं. लेकिन क्या यह मत प्रतिशत सीटों में तब्दील हो पाएगा? वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश का विश्लेषण.
आगे पढ़िए ये विश्लेषण विस्तार से
लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की भारी जीत के कुछ ही दिनों बाद बिहार में भाजपा-गठबंधन के खिलाफ राजद और जद (यू) ने अपने नए गठबंधन का एलान किया तो दोनों दल के समर्थक सहित तमाम लोगों को यकीन नहीं हुआ कि इस तरह का गठबंधन संभव हो सकेगा.
गठबंधन के ऐलान के बाद भी इसको लेकर अटकलें जारी थीं. राजनीतिक गलियारों में इस बात का इंतजार था कि राज्य की 10 विधानसभा सीटों के लिए हो रहे उपचुनाव में राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद और जद (यू) नेता नीतीश कुमार एक मंच पर उतरते हैं या नहीं!
बीस सालों से एक-दूसरे को लगातार कोसते आए दोनों नेता एक मंच पर कैसे दिखेंगे, क्या कहेंगे और अपनी ‘एकता’ को कैसे जायज ठहराएंगे? अंततः अटकलों को विराम देते हुए दोनों नेताओं एक ही मंच पर नजर आए.
बिहार की राजनीति में बीस साल बाद ऐसा दृश्य दिखा, लेकिन मंच पर दिखी एकता क्या मन में भी है? क्या इनके बीच मुद्दों पर साझा सोच संभव है? क्या बिहार की राजनीति में यह नयी मोर्चेबंदी भाजपा-गठबंधन को गंभीर चुनौती दे पाएगी? क्या अस्सी और नब्बे के दशक के इतिहास की पुनरावृत्ति होगी, जब देश के कई क्षेत्रों में दलित-पिछड़ों के बीच नए किस्म का ध्रुवीकरण उभरा?
क्या यह ‘कमंडल’ के खिलाफ ‘मंडल’ की मोर्चेबंदी है और अगर है तो क्या यह कोई सार्थक विकल्प दे पाएगी? इस तरह के बहुत सारे सवाल आज इस गठबंधन पर उठ रहे हैं. अभी तक इनमें ज्यादातर सवालों के जवाब नहीं मिले हैं और न ही इन नेताओं ने ऐसा कोई संकेत दिया कि वे इन सवालों के जवाब खोज रहे हैं.
मत प्रतिशत में बीस
पहली बात तो यही है कि गठबंधन निराशा-भरे माहौल और पराजय-बोध से उपजा है. लोकसभा चुनाव में भाजपा गठबंधन को 31 सीटें मिलीं थीं.
सीटों के मामले में राजद-जद (यू)-कांग्रेस फिसड्डी साबित हुए, लेकिन राजद-जद (यू)-कांग्रेस को मिले वोटों के हिसाब से देखें तो बिहार में यह गठबंधन आज भी भाजपा के गठबंधन से ज़्यादा ताक़तवर है.
संसदीय चुनाव में लालू-नीतीश साथ होते तो वोट-प्रतिशत के गणित के हिसाब से उन्हें 40 में 29 सीटें मिल सकती थीं और भाजपा-गठबंधन तब 11 सीटों पर सिमट जाता.
राजनीति में दो और दो हमेशा चार नहीं होते, पर वे कभी चार नहीं होते ऐसा भी नहीं है. राजद-जद (यू) के नेताओं को यकीन है कि वे मिलकर लड़ेंगे तो उनकी ताक़त भाजपा पर बहुत भारी पड़ेगी.
इसी आकलन के बाद लालू-नीतीश के बीच 10 सीटों के उपचुनाव के लिए गठबंधन ने आकार ग्रहण किया.
अगर गठबंधन को कामयाबी मिली तो यह पुख्ता होकर उभरेगा और अगले विधानसभा चुनाव में सत्ता का प्रबल दावेदार बनेगा. अगर भाजपा फिर से कामयाब हुई तो नए गठबंधन के औचित्य पर सवाल उठेगा.
कमंडल और मंडल
जिन 10 सीटों के लिए बिहार में 21 अगस्त को मतदान होना है, उनमें 6 सीटें भाजपा की रही हैं, 3 राजद की और 1 सीट जद (यू) की.
हाजीपुर की सभा में लालू ने नए गठबंधन के अपने नजरिए का जो संकेत दिया, वह बहुत भरोसेमंद नहीं है. अति-महत्वाकांक्षी होते हुए उन्होंने यहां तक कह डाला कि बिहार का यह गठबंधन पूरे देश में एक नजीर पेश करेगा.
यूपी के दो बड़े नेताओं-मुलायम और मायावती से भी महागठबंधन करने की अपील कर डाली. उन्होंने ‘कमंडल’ के खिलाफ ‘मंडल’ के पुराने अस्त्र को तरकश से निकालने का भी आह्वान किया.
क्या मंडल-कमंडल इतिहास की पुनरावृत्ति बार-बार संभव है?
सबसे बड़ा सवाल है, क्या लालू-नीतीश ने उन कारणों और पहलुओं की शिनाख्त की है, जिनकी वजह से सन 1993 के बाद दोनों अलग हुए?
सन 1994-95 आते-आते लालू के सामाजिक न्याय का रास्ता व्यक्तिवाद व परिवारवाद की तरफ मुड़ गया और नीतीश-शरद का समाजवादी-न्यायवाद अचानक भगवा सांस्कृतिक-राष्ट्रवाद का सहयोगी बन गया!
मार्च, 90 में सत्ता में आई लालू-शरद-नीतीश की तिकड़ी के सामने गरीबों के लिए ठोस कार्यक्रम, भूमि-सुधार, औद्योगिक क्षेत्र में प्रगति और समावेशी विकास जैसे अहम एजेंडे थे.
सबक
इस रास्ते पर चलते हुए वे उत्तर भारत की राजनीति का चेहरा बदल सकते थे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. मुख्यमंत्री के रूप में अगर लालू ने केबी सक्सेना जैसे उच्चाधिकारी के भूमि-सुधार के सुझावों को ठंडे बस्ते में डाला तो नीतीश ने डी बंदोपाध्याय कमेटी की सिफारिशों को तवज्जो देने से इंकार किया.
आज भी बिहार के संतुलित और समावेशी विकास का रास्ता भूमि-सुधार, औद्योगिक प्रगति, रोजगार के नए अवसर सृजित करने और कृषि क्षेत्र में व्याप्त गतिरोध को तोड़ने से ही तैयार होगा.
फिलहाल, भाजपा ने अब तक इसे अमली-जामा पहनाने का कोई मॉडल पेश नहीं किया है. नीतीश ने कृषि, आधारभूत संरचना निर्माण के क्षेत्र में कुछ कदम जरूर बढ़ाए. पर वे निर्णायक नहीं साबित हुए.
क्या दोनों की नई मोर्चेबंदी के पास इस छोड़े हुए रास्ते पर नए सिरे से आगे बढ़ने का कोई नया विचार उभरा है? क्या लालू ने परिवारवाद के राजनीतिक-प्रेत को अपने कंधे से उतार फेंकने का साहस हासिल कर लिया है?
मोदी-शाह की भाजपा आज सिर्फ ‘कमंडल’ के जरिए परिभाषित नहीं हो सकती. नए नेतृत्व ने पार्टी को नया तेवर दिया है. ‘हिन्दुत्व’ के अपने बुनियादी विचारों पर कायम रहते हुए उसने नए ढंग की सोशल-इंजीनियरिंग के जरिए दलितों-पिछड़ों के एक हिस्से में भी जगह बनाई है.
मोदी-शाह की जोड़ी
तकनीक और पूंजी के जरिए उसने पार्टी का ‘आधुनिकीकरण’ किया है. मोदी-शाह की भाजपा से निबटना सिर्फ खोखले और बासी पड़ चुके नारों से संभव नहीं होगा.
अगर भाजपा आज सिर्फ ‘कमंडल’ तक सीमित नहीं है तो ‘मंडल’ इसकी काट कैसे हो सकता है?
महंगाई, सांप्रदायिकता और कॉरपोरेट-समर्थित सर्वसत्तावाद की मुख़ालफ़त करते हुए सुसंगत-समावेशी विकास के रास्ते ही आज सार्थक वैकल्पिक राजनीति की ज़मीन तैयार हो सकती है.
सिर्फ बिहार ही नहीं, संपूर्ण देश में नए तरह का ‘विकासोन्मुख सामाजिक न्याय’ वैकल्पिक राजनीति के लिए अब भी एक बड़ी संभावना है.
क्या नीतीश-लालू अपने बासी फार्मूले को छोड़कर इस दिशा में कुछ कदम आगे बढ़ सकेंगे या समाज को नये नेतृत्व का इंतजार करना होगा?
इस सवाल का जवाब भविष्य ही देगा.
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