34.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

लंबी उदास कविता को रचती फिल्म

अरविंद दास, टिप्पणीकार ‘गामक घर’ एक आत्मकथात्मक फिल्म है, जिसके केंद्र में दरभंगा जिले में स्थित निर्देशक का पैतृक घर है, जहां पेड़, खेत व खलिहान हैं. फिल्म धीमी लय में चलती है, पर हमें नॉस्टेलजिक नहीं बनाती है. यु वा निर्देशक अचल मिश्र की मैथिली फिल्म ‘गामक घर’ (गांव का घर) को देश के […]

अरविंद दास, टिप्पणीकार

‘गामक घर’ एक आत्मकथात्मक फिल्म है, जिसके केंद्र में दरभंगा जिले में स्थित निर्देशक का पैतृक घर है, जहां पेड़, खेत व खलिहान हैं. फिल्म धीमी लय में चलती है, पर हमें नॉस्टेलजिक नहीं बनाती है.
यु वा निर्देशक अचल मिश्र की मैथिली फिल्म ‘गामक घर’ (गांव का घर) को देश के विभिन्न फिल्म समारोहों में खूब सराहना मिली है. यह फिल्म एक लंबी उदास कविता की तरह है, जिसे हम सिनेमा की भाषा में ठहर कर पढ़ना भूल गये हैं. मैथिली सिनेमा में भी ऐसी परंपरा नहीं मिलती. इस सिनेमा का इतिहास है, लेकिन पिछले पचास वर्षों में ऐसी कोई खास फिल्म नहीं बनी है, जिसे अलग से रेखांकित किया जाए. बहुचर्चित ‘ममता गाबय गीत’ एक अपवाद है.
घर एक सपना है, जिसके पीछे हम ताउम्र भागते रहते हैं- इस शहर से उस शहर. इस लिहाज से गांव के घर का स्थानीय रूपक राष्ट्रीय-भूमंडलीय हो उठता है. पिछले दशकों में मिथिला के गांवों से शहर की ओर पलायन हुआ है, हालांकि विस्थापित बार-बार घर लौटते रहे हैं. कभी मुंडन-शादी के बहाने, कभी दीवाली-छठ के मौके पर, तो कभी पीछे छूट गये परिजनों से मिलने. शहरों का मकान उनके लिए ‘डेरा’ ही रहता है.
‘गामक घर’ एक आत्म-कथात्मक फिल्म है, जिसके केंद्र में दरभंगा जिले में स्थित निर्देशक का पैतृक घर है, जहां पेड़, खेत व खलिहान हैं. मैथिली के कवि जीवकांत की एक कविता के सहारे कहूं, ‘गाछ मे पात/ पात मे बसात/ पात मे फूल/ गाछ मे आम/ गमकैए गाम/ गाछ मे मेघ/ भीजैए खेत.’ तीन भागों में बंटी यह फिल्म 1998, 2010 और 2019 के कालखंड को समेटे हुए है. पहले हिस्से में गांव में परिवार के पुरुष ताश की चौकड़ी जमाये, भोज खाते और स्त्रियां छठी का गीत गाते मिलती हैं. एक उत्सव है यहां, सामूहिकता है.
दूसरे खंड में पलायन है, लोगों की अनुपस्थिति है, हालांकि घर की उपस्थिति तब भी रहती है, विभिन्न रूपों में. निर्देशक ने घर के कोनों को इतने अलग-अलग ढंग से अंकित किया है कि वह महज ईंट और खपरैल से बना मकान नहीं रह जाता. वह हमारे सामने सजीव हो उठता है. डॉक्यूमेंट्री और फीचर फिल्म की शैली एक साथ यहां मिलती है.
सिनेमैटोग्राफर ने ‘क्लोज अप’ से परहेज किया है. स्टिल फोटोग्राफ और लांग शॉट के माध्यम से खालीपन और अलगाव को बेहतरीन ढंग से उकेरा गया है. इससे घर के बाशिंदों के बीच की दूरी भी मुखर हो उठती है. फिल्म में ज्यादातर कलाकार गैर-पेशेवर है. संवाद और अदाकारी में एक स्वभाविकता है. फिल्म एक धीमी लय में चलती है, पर हमें नॉस्टेलजिक नहीं बनाती है.
आखिरी खंड में पुराने घर के टूटने का दृश्य है और नये के बनने की चर्चा है. यह ध्वंस जितना भौतिक है, उतना ही आध्यात्मिक स्तर पर हमें प्रभावित करता है. पुराने घर के टूटने के साथ हमारी स्मृतियां जमींदोज नहीं होती है. किसी आश्रय के सहारे वे जी उठती हैं.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें