।। दक्षा वैदकर ।।
कई बार हम अपने साथियों, सहकर्मियों से इतना ज्यादा स्नेह करने लगते हैं कि उनकी गलतियों की सजा भी खुद भुगतने को तैयार हो जाते हैं. वे हमारी अच्छाई का फायदा उठाते जाते हैं और हम चुपचाप सब सहन करते रहते हैं.
हम यह भूल जाते हैं कि उनकी गलतियों को छिपा-छिपा कर हम खुद के साथ-साथ उनका भी नुकसान कर रहे हैं. मेरा एक मित्र संतोष बहुत ज्यादा सीधा है. उसका दोस्त सार्थक उसी के साथ काम करता है. बॉस जब भी उन लोगों को कोई असाइनमेंट देते हैं, सार्थक बहाना बना कर छुट्टी मार लेता है और संतोष उसके हिस्से के काम भी पूरा करता है. बॉस को वह यही कहता है कि असाइनमेंट सार्थक ने ही पूरा किया है.
ऐसा कई महीनों से चल रहा है. लेकिन इस बार बात बिगड़ गयी. दरअसल, उनके ऑफिस में हर रविवार को एक मीटिंग होती है, जिसमें उनके डिपार्टमेंट से एक व्यक्ति का होना बहुत जरूरी होता है. दो हफ्ते पहले आये रविवार में संतोष ऑफिस जा कर अपने हिस्से की मीटिंग कर चुका था.
इस बार के रविवार में उसके दोस्त सार्थक को मीटिंग में जाना था, लेकिन उसने पर्सनल काम का बहाना बना कर संतोष से कह दिया कि तुम ही मेरे बदले मीटिंग अटेंड कर लो. बेचारे संतोष ने अपनी छुट्टी के सारे प्लान कैंसल किये और ऑफिस पहुंच गया. बॉस ने ऐसा देखा, तो पूछ लिया,‘आज तो तुम्हारे आने की बारी नहीं थी. सार्थक को आज आना था. फिर तुम क्यो आये?’
संतोष के पास अब कोई बहाना नहीं था. उसने बताया कि सार्थक को कोई जरूरी काम आ गया था, इसलिए उसने मुझे ऑफिस आने को कह दिया. अब बॉस को गुस्सा आ गया. उसने सार्थक को फोन लगा कर कहा,‘अब तुम अपने पर्सनल काम ही निपटाओ. कल से नौकरी पर आने की कोई जरूरत नहीं.’
उन्होंने सभी के सामने संतोष को भी खूब डांटा और कहा, ‘तुम क्या खुद को महान समझते हो? इस तरह तुम उसकी प्रोग्रेस रोक रहे हो. ऐसे तो वह कुछ भी नहीं सीख पायेगा. बेहतर होगा कि तुम इस आदत को सुधारो. ऐसे ही चलता रहा तो अगली बार मैं तुम्हें नौकरी से निकाल दूंगा.’
बात पते की..
– एक-दो बार किसी साथी की मदद कर देना, उसके हिस्से का काम करना ठीक है, लेकिन हर बार ऐसा कर हम उस साथी को अपाहिज बना रहे हैं.
– दूसरों की कमियों, गलतियों पर परदा न डालें. उन्हें इसकी सजा भुगतने दें ताकि वे सुधरें, काम सीखें और अपना विकास कर सकें.