संतोष उपाध्याय ग्रामीण क्षेत्र और उससे जुड़ी समस्याओं पर पैनी नजर रखते हैं. रोहतास जिले के डिहरी प्रखंड अंतर्गत मौदिहा गांव से ताल्लुक रखने वाले संतोष ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से म्यूजियोलॉजी में स्नातकोत्तर तक की शिक्षा ग्रहण करने वाले संतोष की पहचान एक सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता और आरटीआई एक्टिविस्ट की भी है. करीब 25 सालों से सामाजिक कार्यो में अपनी सहभागिता निभा रहे संतोष उपाध्याय से केंद्र और राज्य सरकार द्वारा संचालित योजनाओं के दम पर बदलते गांव और उससे होने वाले असर पर सुजीत कुमार ने राय जानने की कोशिश की. पेश है बातचीत के मुख्य अंश.
गांव के सामाजिक, आर्थिक हालात में हाल के दशकों में क्या कुछ बदलाव आया है?
हाल के दशकों में गांवों में कुछ बदलाव आया है. इनमें सामाजिक बदलाव प्रमुख है. दलित, खेतीहर, मजदूर और कमजोर वर्ग में कई तरह के बदलाव देखने को मिल रहे हैं. पहले अंतिम कतार से ताल्लुक रखने वाला तबका संकोची था. वह बदलाव के लिए इच्छुक तो रहता था, लेकिन हालात विपरित होते थे. वह मुखर नहीं हो पाता था. लेकिन सरकार का प्रयास और एक हद तक भूमंडलीकरण का दौर इस तबके के लिए लाभदायक हुआ. शिक्षा के प्रति जागरूकता आयी, इन वर्गो की महिलाओं ने आंगनबाड़ी, आशा कार्यकर्ता के रुप में अपनी सहभागिता सुनिश्चित की. इस तरह के कार्यो से बहुत फर्क पड़ा है. लोगों की सोच बदली. वैसे लोगों की भी सोच बदली, जो यह मान कर चलते थे कि ऐसे कार्य नहीं हो सकते हैं और वैसे लोगों की भी सोच बदली विशेषकर उन तबकों में जो इस तरह के कार्य को कर रहे हैं. क्योंकि कमजोर वर्ग से जुड़े लोगों ने यह सोचा भी नहीं था कि वह इस तरीके से अपनी जिम्मेदारी को पूरा करेंगे. शिक्षा के प्रति लोगों में जागरूकता आयी है. यह सोच बलवती हो गयी है कि किसी दूसरी चीज में कटौती कर देंगे लेकिन शिक्षा से दूर नहीं रहेंगे. ध्यान देने वाली बात यह भी है कि गांव में संपन्नता बढ़ी है लेकिन कुछ विपरीत बातें भी हैं.
बीपीएल जैसी योजनाओं में लाभ लेने के लिए होड़ लगी रहती है. सभी नाम लिखवाना चाहते हैं. आत्मसम्मान नहीं जाग पा रहा है. वैसे ही राशन, केरोसिन का मामला है. कई तरह की खामियां देखने को मिलती रहती हैं. राशन पर जिसका हक होना चाहिए, उसे नहीं मिल पर रहा है. यह विकास के साथ नकारात्मक सोच है. आर्थिक क्षेत्र में बदलाव आया है. तमाम गांवों में सड़कों का निर्माण हो रहा है. जो पहले की सड़कें हैं, उन्हें दुरुस्त किया जा रहा है. मैंने कई गांवों में देखा कि लोग शहरों में जाकर मजदूरी करने में अब कम दिलचस्पी दिखा रहे हैं. वह गांवों में ही छोटी दुकानें कर रहे हैं. लड़के भी दूसरे शहरों में जाकर सुरक्षा गार्ड की नौकरी नहीं करना चाहते हैं. गांव में ही रोजगार के विकल्प को तलाश रहे हैं. गांवों में मोबाइल, टीवी, डीटीएच, मोटरसाइकिल की संख्या बढ़ी है. यह सभी के पास नहीं है लेकिन लोग तो बदलाव को स्वीकार कर रहे हैं. मेरे गांव में एक ही परिवार के कुछ बच्चे एक बड़े शहर में गये हैं. हर माह अपने घर पैसा भेजते हैं. उनकी सोच है कि उनका पैसा गांव में ही खर्च हो. इस बात को तो स्वीकार करना होगा कि कई मामलों में गांव में बदलाव आया है.
गांव में आधारभूत संरचना, सूचना तंत्र और प्रशासनिक महकमे की पहुंच बाकी है. इसका कितना लाभ गांव को मिला है?
सड़क, स्कूल, आंगनबाड़ी केंद्रों का गांव तक स्पर्श हुआ है, लेकिन पूरा लाभ नहीं मिल पा रहा है. जैसे- आंगनबाड़ी में जितना कार्य होना चाहिए. उस रफ्तार से नहीं हो रहा है. मॉनिटरिंग को लेकर कई जगह समस्या है. सरकार ने तो बढ़िया उद्देश्य के साथ इसे शुरू किया है लेकिन मैनेजमेंट की उदासीनता है. नतीजा सौ प्रतिशत काम नहीं हो पा रहा है. प्रशासनिक महकमा व्यवस्था दुरुस्त करने में पीछे है. सूचना तंत्र की पहुंच नहीं होने का भी खामियाजा देखने को मिलता है. गांव के विकास के लिए प्रखंड स्तर पर कैसी योजनाएं हैं? इसकी जानकारी गांव तक नहीं पहुंच पाती है. साधारण बात है, एक विकलांग को अगर अपना प्रमाण पत्र बनवाना है तो इसके लिए उसे क्या करना होगा? यह जानकारी नहीं है. वह दौड़ते रहता है. लोगों में भी डर बैठा रहता है कि अगर किसी काम को करवाना है तो पैसा खर्च होने के बाद भी काम पूरा होगा या नहीं? पहले बीडीओ गांव की जरूरत को सुनते, समझते थे. वह अब कम हो रहा है. संवाद का अभाव है और यह लोकतंत्र के लिए घातक है. लोगों का विश्वास मीडिया पर है. सरकार पर नहीं. कोई आपदा आ गयी तो मुआवजे के लिए क्या करना होगा? इसकी जानकारी नहीं है. अभी के हालात में काफी मुश्किल दिख रहा है.
पंचायती राज संस्थान गांव की हालत बदलने में किस तरह की भूमिका निभा रहे हैं? इसमें किस तरह की बाधाएं आ रही हैं? इसका स्वरूप कितना सकारात्मक है?
भारत में पंचायत ही सर्वोपरी थी. हर गांव गणतंत्र था. अंग्रेजी शासन काल में इसके स्वरूप को ही तोड़ दिया गया. देश आजाद हुआ, पंचायती राज की परिकल्पना की गयी. चुनाव भी हुए लेकिन नेतृत्व के कई टापू बन गये. पहले गांव में वंशानुगत, पेशानुगत थे. इस दबदबे को पंचायती राज ने तोड़ा. पंचायत की मूल भावना पंच परमेश्वर, श्रमदान नहीं. सरकार, अफसरशाही के अंग में इसका उभार लोगों को प्रतीत होने लगा. इसके प्रतिनिधि नौकरशाही के अंग समझने लगे. बड़े-बड़े नाम की पट्टीका लगा के प्रतिनिधि चल रहे हैं. वह खुद को जनता से अलग कर के देख रहे हैं. वह चाहते हैं, प्रशासन के रंग में रोब हो, प्रभुत्व हो. किसी भी चीज का एक उचित उत्तर नहीं दिख रहा है. हां सकारात्मक स्वरूप की बात करें तो कुछ बदलाव है. आज अगर ग्रामीण क्षेत्रों में सड़क, नाली बनवाना है तो लोग बीडीओ से नहीं कह रहे हैं. सीधे मुखिया से पूछ रहे हैं. सड़क अंधेरे में ना रहे, इसके लिए सोलर लाइट की व्यवस्था हो रही है. सकारात्मक पहल तो दिख रहा है. ध्यान यह देना होगा कि यह पहल प्रमाण पत्रों के लिए ही सीमित ना हो.
गांव के लिए राज्य, केंद्र सरकार की स्वास्थ्य, शिक्षा, बालिका शिक्षा, पोषण, संस्थागत प्रसव, छात्रवृत्ति, रोजगारन्मुखी प्रशिक्षण जैसे करीब ढ़ाई दर्जन योजनाएं चल रही है. इन योजनाओं में लूट खसोट और अनियमितता के सवाल को छोड़ दें तो ग्रामीण जीवन मूल्यों को बदलने में ये योजनाएं कितनी कारगर हुई हैं?
इन क्षेत्रों में बालिका शिक्षा, छात्रवृत्ति की योजनाएं काफी कारगर हुई हैं. आज छात्रओं को साइकिल, पोशाक मिल रहा है. यह बिल्कुल नया अनुभव है. इससे उनमें आत्मविश्वास आया है. यह कल दूसरी जगह जायेंगी. वहां के समाज को बदलेंगी. संस्थागत प्रसव की बात करें तो, किसी भी राज्य की कोई भी सरकार हो अगर इस योजना का लाभ देती है तो उसमें कई तरह के छेद नजर आते हैं. प्रसव के लिए वह अगर डॉक्टर के पास जाती है, डॉक्टर ने ना कहा तो प्राइवेट अस्पताल में जाना होगा. कई कारण हैं, बढ़िया महिला चिकित्सकों की बहाली में कमी है. स्वास्थ्य केंद्र, उपकेंद्र की कमी है. यही हाल स्मार्ट कार्ड के जरिये इलाज करने को लेकर है. इसमें भी कई तरह की कमियां हैं. गांव में स्मार्ट कार्ड को लेकर कोई मजबूत व्यवस्था नहीं है. बड़े अस्पतालों में स्मार्ट कार्ड से इलाज की व्यवस्था हो सकती है. वहां अगर कोई इलाज के लिए जाता है तो डॉक्टर कहते हैं, सरकार के पास हमारा इतना रुपया बकाया है. इलाज नहीं कर सकता. यह खामियां हैं. इसमें सुधार की आवश्यकता है. खाद्य सुरक्षा, सूचना का अधिकार, मनरेगा जैसी योजनाएं, कानून गांव को कितना सशक्त कर पा रहे हैं?
मनरेगा में काम हो रहा है. इससे सशक्ता का स्तर बढ़ा है. और इजाफे की जरूरत है. कमियां इसमें भी है. मनरेगा में कार्ड बन रहा है. जिन्हें कार्ड नहीं मिला. उनको मुआवजे का हक है. काम नहीं मिलने वालों के पक्ष में बोलने वाला कोई नहीं है. रोज बहुत काम हो रहे हैं. उसे और बढ़ाने की जरूरत है. कानून के मुताबिक पारदर्शिता करने की आवश्यकता है. कार्ड रखने के बाद भी काम नहीं मिला तो कितनों को मुआवजा मिला? यह कैसे पता चलेगा? खाद्य सुरक्षा का असर दिख रहा है. भूख से मरने की खबरें नहीं है. लोगों को भोजन मिल रहा है लेकिन उसमें गुणवत्ता का अभाव है. सूचना का अधिकार सीमित लोगों के हाथ में हैं. गांव में कुछ लोगों ने इसके लिए पहल की लेकिन इनको प्रोत्साहन नहीं मिला. सरकारी सूचना प्राप्त करते हैं तो वहां उन्हें खलनायक की तरह देखा जाता है. उल्टा आरोप लगा दिया जाता है कि ऐसा कर के काम में अडंगा लगाया जा रहा है. मैं खुद भुक्तभोगी हूं. हालांकि इसका डर है, गांव में कोई भी आदमी राशन वाले के पास एक सादा कागज लेकर सूचना के अधिकार से जानकारी मांगने की बात कहता है तो उसे राशन मिलने लगता है. यह तसवीर बदलने में सशक्त है. इसे और निखारने की आवश्यकता है.
जिस तरह से इस बार के लोकसभा चुनाव में ग्रामीण क्षेत्रों में मतदान का प्रतिशत बढ़ा है, वह भारतीय लोकतंत्र को मजबूती देने और उसे ग्रामीण आबादी के प्रति अधिक उत्तरदायी बनाने में कितना कारगर है?
गांव के लोगों में मत के प्रति ललक बढ़ी है. इसे स्वीकार करना होगा. चुनाव के बाद समझदारी भी बढ़ी है. वह अपना हक मांग रहे हैं. वह खुल कर कह रहे हैं, आपके कहने पर मत दिया. आप सुविधा के लिए काम करें. नयी सरकार से किसानों को अपेक्षा भी है कि वह कैसे राहत प्रदान कर सकती है? हमारे क्षेत्र के एमपी केंद्र में मंत्री हैं. लिहाजा गांव के लोगों की अपेक्षा भी बढ़ गयी है.
कृषि और कॉरपोरेट गांव को बदलने में कही कारगर दिख रहे हैं या नहीं?
इसका हिसाब किताब अंतर्विरोधों वाला है. हमारी कृषि सदियों से पुश्तैनी है. अनाज हमारे मुट्ठी में है. कॉरपोरेट से कंपनियों का क्या करेंगे? इन क्षेत्रों में कॉरपोरेट के बारे में बढ़िया ख्याल नहीं है. उड़ीसा, झारखंड में बड़ी कंपनियां पैर पसार कर गांव को खत्म कर रही हैं. इन राज्यों से यह संदेश आ रहा है कि वहां मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा है. बिहार में ‘सेज’ नहीं है, बड़ी कंपनियां नहीं हैं, लिहाजा ऐसी खबरें नहीं आती.
संतोष उपाध्याय
ग्रामीण मामलों के विशेषज्ञ