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10 उभरती तकनीकें जो बदल देंगी जीने का अंदाज

।। ब्रह्मानंद मिश्र ।। नयी दिल्ली सदियों से इंसान नये अविष्कारों के जरिये भावी पीढ़ी के जीवन को बेहतर बनाने का प्रयास करता रहा है. मौजूदा दौर में भी कई ऐसी नयी टेक्नोलॉजी पर शोधकार्य जारी है, जो कुछ वर्षो बाद जीने के अंदाज को बदल सकती हैं. इन्हीं में से 10 उभरती तकनीकों के […]

।। ब्रह्मानंद मिश्र ।।

नयी दिल्ली

सदियों से इंसान नये अविष्कारों के जरिये भावी पीढ़ी के जीवन को बेहतर बनाने का प्रयास करता रहा है. मौजूदा दौर में भी कई ऐसी नयी टेक्नोलॉजी पर शोधकार्य जारी है, जो कुछ वर्षो बाद जीने के अंदाज को बदल सकती हैं. इन्हीं में से 10 उभरती तकनीकों के बारे में बता रहा आज का नॉलेज..

तकनीकी विकास की अवधारणा, मानव विकास की सतत कड़ी है. शायद इसी वजह से तेजी से बदलते आधुनिक युग में भी तकनीक ही विकास की सबसे बड़ी कारक साबित हो रही हैं. इस क्षेत्र में आनेवाली छोटी-बड़ी चुनौतियां ही नयी तकनीक के खोज में लगे वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं के लिए प्रेरणास्नेत हैं.

आज के दौर में नैनो टेक्नोलॉजी से लेकर बायोटेक्नोलॉजी तक, इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी से लेकर कॉग्निटिव साइंस की विशिष्टताओं तक ने इंसानी संवेदनशीलता के स्तर को और भी ऊंचा कर दिया है. दूसरी तरफ देखें तो प्राकृतिक संसाधनों के दोहन और बदलते वैश्विक पर्यावरण ने मानव जाति को भविष्य के बारे में नये सिरे से सोचने के लिए मजबूर कर दिया है.

आज बढ़ती जनसंख्या की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करना, मानव जीवन को तरह-तरह की भयानक बीमारियों से मुक्ति दिलाना आदि लगभग सभी देशों की प्राथमिकताओं में शामिल है. सच यह है कि सकारात्मक सतत तकनीकी विकास और बदलाव के बिना वैश्विक स्तर पर चुनौतियों से निपटना संभव ही नहीं है.

फिलहाल, बेहतर निवेश की कमी, नियमन की समुचित व्यवस्था का अभाव और बड़े स्तर पर तकनीकों के प्रति समझदारी का न होना, तकनीकी विकास के लक्ष्य को हासिल कर पाने में बड़ी बाधा है.

कुछ ऐसी तकनीकें जिन पर शोध प्रक्रिया जारी है, उन पर सकारात्मक दिशा में कदम उठाये जाने की जरूरत है. निकट भविष्य में अच्छे परिणामों की उम्मीदों के साथ दुनियाभर में विभिन्न क्षेत्रों में वैज्ञानिक और संस्थाएं लगातार प्रयासरत हैं.

इन तकनीकों से न केवल सामाजिक जिंदगी में व्यापक बदलाव आयेगा, बल्कि आर्थिक विकास और उत्थान की दिशा में भी परिवर्तन होगा. निश्चित तौर पर ये तकनीकें निकट भविष्य में हमारे समाज के लिए मील का पत्थर साबित हो सकती हैं.

ब्रेन से सीधे संचालित होगा कंप्यूटर

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इसकी कल्पना थोड़ी मुश्किल है, लेकिन ब्रेन-कंप्यूटर इंटरफेस (बीसीआइ) तकनीक द्वारा इंसान अपने मस्तिष्क की शक्ति से कंप्यूटर को सीधे नियंत्रित कर सकता है. इस तकनीक में कंप्यूटर, ब्रेन से मिलने वाले सिग्नलों को आसानी से पढ़ सकता है. मेडिकल साइंस में इस तकनीक में काफी हद तक कामयाबी भी मिल चुकी है.

पक्षाघात, लॉक्ड-इन-सिंड्रोम या व्हीलचेयर पर पड़े मरीजों की मदद के लिए इस तकनीक का इस्तेमाल किया जा रहा है. ब्रेन वेव्स द्वारा भेजे गये सिग्नलों से रोबोटिक कार्यो को संचालित किया जाता है.

हाल में हुए रिसर्च में ब्रेन-कंप्यूटर इंटरफेस को विभिन्न प्रकार के ब्रेन को जोड़ने की संभावनाओं पर काम शुरू किया गया है. वर्ष 2013 में हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने कंप्यूटर-टू-ब्रेन-इंटरफेस तकनीक के माध्यम से इंसान और चूहों के मस्तिष्क के बीच फंक्शनल लिंक स्थापित कर पाने में कामयाबी हासिल की थी. अन्य रिसर्च में कंप्यूटर से मेमोरी को ब्रेन में स्थापित करने की तकनीक पर भी काम किया जा रहा है.

हालांकि, इस तकनीक को विकसित करने में कई प्रकार के गतिरोध भी सामने आ सकते हैं. मौजूदा ब्रेन-कंप्यूटर-इंटरफेस (बीसीआइ) तकनीक इलेक्ट्रोइंसेफेलोग्राफ (इइजी) की तकनीक पर काम कर रही है, जिसमें इलेक्ट्रोड व्यवस्थित किये जाते हैं.

शरीर पर काम करेंगी इलेक्ट्रॉनिक डिवाइसेस

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भविष्य में शरीर पर धारण करनेवाली ऐसी इलेक्ट्रॉनिक डिवाइसेस उपलब्ध होंगी, जो आपके फिटनेस, हर्ट रेट, स्लीप पैटर्न और स्वास्थ्य से जुड़ी जानकारियों से आपको अपडेट करती रहेंगी. ऐसी तकनीक निश्चित तौर पर मानव समाज को तकनीक के बेहद करीब लायेगी. बीते कुछ वर्षो में गूगल ग्लास से लेकर फिटबिट रिस्टबैंड जैसी डिवाइसेस ने लोगों का ध्यान आकर्षित किया है.

नयी पीढ़ी की इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस मानव शरीर की जरूरतों के मुताबिक डिजाइन की जायेंगी, जिनका उपयोग इंसान विभिन्न हालातों में बेहतर तरीके से कर सकेगा. ये उपकरण आकार में बेहद छोटे होंगे और उच्च क्वालिटी के विभिन्न सेंसरों द्वारा सुसज्जित होंगे.

आनेवाले समय में इन उपकरणों के फीडबैक सिस्टम को और भी अपग्रेड किया जायेगा, जिससे इनकी मांग तेजी से बढ़ेगी. मौजूदा उपकरणों में सेंसर प्रणाली युक्त इयरबड्स (हर्ट-रेट की निगरानी करने वाला उपकरण) और हेप्टिक शू-सोल्स (पैरों द्वारा वाइब्रेशन अलर्ट महसूस करने पर जीपीएस की दिशा तय करता है) इस दिशा में बेहतर काम कर रहे हैं.

लेटेस्ट तकनीक में गूगल ग्लास का इस्तेमाल ऑन्कोलॉजिस्ट सजर्री के दौरान या अन्य विजुअल इंफोर्मेशन में किया जाता है. विशेषज्ञों के मुताबिक, आगामी वर्षो में और भी तकनीकें आयेंगी.

स्क्रीनलेस डिस्प्ले

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बिना स्क्रीन का दृश्य- सुनने में भले ही यह अजीब लगता हो, लेकिन आने वाले कु छ वर्षो में यह तकनीक भावी पीढ़ी के लिए आम बात हो जायेगी. वैज्ञानिक और कई तकनीकी संस्थान ऐसी डिवाइस विकसित करने में जुटे हैं, जिसकी मदद से हम बिना स्क्रीन के ही दृश्यों को देख सकेंगे. यह तकनीक प्रोजेक्शन डिवाइस या होलोग्राम मशीन के रूप में दुनिया के सामने आ सकती है.

आधुनिक संचार तकनीकों में स्मार्टफोन जैसी डिवाइस हमें ज्यादा से ज्यादा फीचर मुहैया करा रहे हैं, लेकिन हम कुछ बेहद महत्वपूर्ण काम (खासकर लिखने जैसा काम), इससे नहीं कर सकते हैं. पहला कारण तो यह कि डिस्प्ले का आकार अपेक्षाकृत छोटा होता है. ऐसी स्थिति में स्क्रीनलेस डिस्प्ले का महत्व बेहद आसानी से समझा जा सकता है.

खास यह है कि इस तकनीक से होलोग्राफिक इमेज पैदा की जा सकती है. वर्ष 2013 में एमआइटी मीडिया लैब्स ने टेलीविजन के स्टैंडर्ड रिजोल्यूशन पर होलोग्राफिक कलर वीडियो डिस्प्ले में कामयाबी हासिल की थी.

स्क्रीनलेस डिस्प्ले, व्यक्ति के रेटिना पर इमेज को सीधे प्रोजेक्ट कर प्राप्त किया जा सकता है. कुछ कंपनियों ने एक हद तक सफलता हासिल करते हुए बायोनिक कॉन्टेक्ट लेंस, होलोग्राम वीडियो और बुजुर्गो व कम देख पाने वाले व्यक्तियों के लिए मोबाइल फोन आदि भी बनाया.

माना जा रहा है कि भविष्य में यह तकनीक आंखों को भी दरकिनार करते हुए सिनेप्टिक इंटरफेस (दो न्यूरॉन या न्यूरॉन और मसल के बीच केंद्र) तक पहुंच सकती है, जिसके माध्यम से विजुअल की सूचना सीधे ब्रेन तक पहुंचेगी.

वैकल्पिक ऊर्जा स्नेत

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दुनियाभर में ऊर्जा की खपत लगातार बढ़ रही है. ऐसे में परंपरागत स्नेतों पर निर्भरता कम करने और भविष्य की चुनौतियों से निपटने के लिए विभिन्न स्तरों पर काम शुरू किया जाना है. परंपरागत ऊर्जा स्नेतों- तेल, कोयला और प्राकृतिक गैसों के इतर नाभिकीय ऊर्जा, सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा सहित वाटर पावर और जियो-थर्मल एनर्जी को सर्वसुलभ बनाने के लिए नयी तकनीकों का सहारा लिया जा रहा है. दुनियाभर में कुल ऊर्जा खपत का करीब 85 प्रतिशत परंपरागत ऊर्जा स्नेतों पर निर्भर है.

जियो-थर्मल एनर्जी : यह एक प्रकार की प्राकृतिक उष्मा होती है, जो पृथ्वी के आंतिरक हिस्सों में पैदा होती है. यह ऊष्मा ज्वालामुखी या गर्म जलधाराओं के रूप में बाहर आती है. ऐसी गर्म जलधाराएं चट्टानों को तोड़कर निकाली जाती हैं.

इन गर्म जलधाराओं से ऊष्मा को संरक्षित करने के साथ-साथ, भाप से बिजली भी पैदा की जा सकती है. दुनिया के कुछ हिस्सों में जियो-थर्मल एनर्जी को मुख्य ऊर्जा स्नेत के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है. कैलीफोर्निया में वर्ष 1960 से जियोथर्मल एनर्जी से बिजली पैदा की जा रही है.

ज्वार-भाटा और समुद्रीय ऊष्मा: समुद्र में तेजी से लहरों के उठने और गिरने की प्रक्रिया में काफी मात्र में ऊर्जा पैदा होती है. इस ऊर्जा को संरक्षित कर तकनीकों के माध्यम से बिजली पैदा की जा सकती है. हालांकि, दुनिया के चुनिंदा हिस्सों में ही इस तकनीक पर काम किया जा सकता है, क्योंकि इसके लिए जलीय तरंगों की तीव्रता अधिक होनी चाहिए. हाइड्रो पावर डैम के माध्यम से फ्रांस, रूस, कनाडा और चीन जैसे कुछ देशों में इस ऊर्जा को संरक्षित किया जा रहा है.

बायोमॉस एनर्जी : कुछ बायोमॉस (पौधों, जीवों के अवशेष और सूक्ष्म जीव) का ईंधन के रूप में इस्तेमाल करते हुए ऊर्जा पैदा की जा सकती है. कूड़े-कचरों व अन्य अवशेषों को जलाकर मिथेन गैस (प्राकृतिक गैस) प्राप्त की जा सकती है. पश्चिमी यूरोपीय देशों में इससे बिजली पैदा करने की प्रक्रिया चल रही है.

नाभिकीय ऊर्जा : परमाणु के नाभिकों के विखंडन और नाभिकों के संलयन की प्रक्रिया में काफी मात्र में ऊर्जा मुक्त होती है. इससे प्राप्त ऊर्जा को वैकल्पिक ऊर्जा के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है. नाभिकीय रिएक्टरों में यूरेनियम और प्लूटोनियम के परमाणुओं की विखंडन प्रक्रिया के दौरान मुक्त ऊर्जा से बिजली का उत्पादन किया जाता है.

कुछ वैज्ञानिकों का तो यहां तक मानना है कि वैश्विक स्तर पर ऊर्जा जरूरतों को पूरा कर पाने में भविष्य में नाभिकीय रिएक्टरों की सबसे अहम भूमिका हो सकती है.

दिखेगी क्वांटम कंप्यूटर की ताकत!

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कंप्यूटिंग पावर ने भले ही दुनिया को यह दिखाया हो कि स्पीड और एक्यूरेसी के बीच तालमेल कैसे बिठाया जाता है, लेकिन आधुनिक दुनिया की सोच इससे भी कहीं ज्यादा बड़ी है.

उम्मीद की जा रही है कि एक दिन क्वांटम कंप्यूटर दुनिया के सामने होगा, जो मौजूदा कंप्यूटर से कई गुना तेज होगा. क्वांटम कंप्यूटर मौजूदा सिलिकॉन कंप्यूटर की तुलना में गणनात्मक प्रक्रियाओं को अपेक्षाकृत ज्यादा तेजी से कर सकता है. वैज्ञानिकों ने प्राथमिक क्वांटम कंप्यूटर को बनाने में कामयाबी हासिल भले ही कर ली हो, लेकिन वास्तविक क्वांटम कंप्यूटर का सपना अभी वर्षो दूर है.

क्या है क्वांटम कंप्यूटर: इस कंप्यूटर की डिजाइन क्वांटम फिजिक्स के सिद्धांतों पर आधारित होती है. इसकी कंप्युटेशनल पावर परंपरागत कंप्यूटर की तुलना में बहुत अलग होती है. कंप्यूटर फंक्शन बाइनरी नंबर फॉर्मेट में डाटा को स्टोर करता है, जो केवल 0 और 1 की सिरीज में होता है.

कंप्यूटर मेमोरी के न्यूनतम घटक को बिट में मापते हैं. दूसरी ओर, क्वांटम कंप्यूटर सूचनाओं को 0, 1 या क्वांटम सुपरपोजिशन की दो अवस्थाओं में स्टोर करता है. इस ‘क्वांटम बिट’ को ‘क्यूबिट’ कहा जाता है, जो बाइनरी सिस्टम की तुलना में ज्यादा फ्लेक्सिबल होता है. इसी वजह से क्वांटम कंप्यूटर बड़ी कैलकुलेशन को बेहद आसानी से कर सकता है.

समुद्र के पानी से धातुओं का अवक्षेपण

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समुद्र मंथन की यह नयी तकनीक वैश्विक स्तर पर कई बड़े बदलाव ला सकती है. समुद्री जल में कई प्रकार के धात्विक तत्व मिले होते हैं, जिन्हें बाहर हटाते हुए विभिन्न जरूरतों को पूरा किया जा सकता है.

समुद्र के पानी से साधारण नमक को अवक्षेपित करने यानी हटाने की तकनीक बहुत पुरानी है. नयी तकनीकों के माध्यम से समुद्री जल से सोडियम, मैग्नीशियम, कैल्शियम और पोटैशियम को अवक्षेपित किया जा रहा है.

इसका सबसे बड़ा उदाहरण जापान का है, जो समुद्री जल से यूरेनियम को अलग करने के लिए शोध कर रहा है. ऐसा होने पर ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने में काफी मदद मिलेगी. एक रिपोर्ट के अनुसार, सऊदी अरब दुनिया का सबसे बड़ा डिसैलिनेशन प्लांट बनाने की तैयारी कर रहा है, जिसकी क्षमता प्रतिदिन 6,00,000 क्यूबिक मीटर पेयजल की होगी.

साथ ही, यह देश रोजाना डिसैलिनेशन (विलवणीकरण) की इस तकनीक से 3.3 मिलियन क्यूबिक मीटर पेयजल पैदा करता है. वर्ष 2030 तक वैश्विक स्तर पर 345 मिलियन क्यूबिक मीटर पानी डिसैलिनेशन की तकनीक से हासिल की जा सकेगी. दुनिया के अन्य देशों में इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य हो रहे हैं. उम्मीद की जा रही है कि आने वाले समय में समुद्री पानी के डिसैलिनेशन की प्रक्रिया और सस्ती व सुगम हो जायेगी.

नैनो-वायर लिथियम ऑयन बैटरी

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आधुनिक युग में विद्युत आवेश (इलेक्ट्रिक चाजर्) को संचित करने के लिए बैटरी ही सबसे सहज माध्यम है. घरेलू उपयोग से लेकर व्यावसायिक उपयोग में बैटरी एक महत्वपूर्ण हिस्सा है.

लिथियम-ऑयन बैटरी का ऊर्जा घनत्व (एनर्जी पर वेट) अपेक्षाकृत अधिक होता है. ऐसी बैटरी का इस्तेमाल मोबाइल फोन, लैपटॉप और इलेक्ट्रिक कार आदि में किया जाता है. बढ़ती ऊर्जा जरूरतों और विभिन्न प्रकार के इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स के लिए यह बेहद पावरफुल तकनीक है.

बैटरी में दो इलेक्ट्रोड होते हैं. कैथोड (पॉजिटिव टर्मिनल) और एनोड (निगेटिव टर्मिनल) के बीच इलेक्ट्रोलाइट होता है. इसी इलेक्ट्रोलाइट की वजह से दोनों इलेक्ट्रोड के बीच ऑयन घूमते हैं, जिससे करंट पैदा होता है. लिथियम ऑयन बैटरी में एनोड ग्रेफाइट से बना होता है, जो अपेक्षाकृत सस्ता और टिकाऊ होता है. वैज्ञानिकों ने सिलिकॉन एनोड पर काम करना शुरू किया है.

इस तकनीक से पावर स्टोरेज क्षमता में बढ़ोतरी होगी. फिलहाल, अभी सिलिकॉन एनोड्स में संरचनात्मक दिक्कतें आ रही हैं. नैनोवायर या नैनोपार्टिकल्स की तकनीक आने से कुछ उम्मीदें बढ़ी हैं.

पहली डेंगू वैक्सीन की उम्मीद जगी

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दुनिया की तकरीबन आधी आबादी पर डेंगू का खतरा मंडराता रहता है. इस गंभीर बीमारी से निपटने के लिए अभी तक कोई ठोस हल नहीं निकाला जा सका है. डेंगू वैक्सीन के लिए वैज्ञानिक और दुनियाभर की कई संस्थाएं शोधरत हैं.

उम्मीद की जा रही है कि इस दिशा में आगामी दो-तीन वर्षो में एक कारगर वैक्सीन बनाने में कामयाबी मिल सकती है. डब्ल्यूएचओ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, डेंगू (मच्छरजनित बीमारी) से प्रतिवर्ष 10 करोड़ से ज्यादा लोग प्रभावित होते हैं. बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले दो वर्षो के दौरान पांच संस्थाओं के शोधकर्ताओं ने दो वर्ष से 14 वर्ष तक के 6000 बच्‍चों में वैक्सीन का परीक्षण किया. इन दो वर्षो में 56 फीसदी मामलों में डेंगू वायरस को रोकने में एक हद कामयाबी मिली है.

लंदन स्कूल ऑफ हाइजीन एंड टॉपिकल मेडिसिन के प्रोफेसर मार्टिन हिब्बर्ड का मानना है कि इसमें मिली कामयाबी उत्साहजनक है, लेकिन वैक्सीन के 56 प्रतिशत प्रभावी होने से संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता है. हम अभी भी लक्ष्य से काफी दूर हैं. मालूम हो कि सनोफी पास्चर कंपनी पिछले 20 वर्षो से वैक्सीन रिसर्च की दिशा में कार्य कर रही है.

बहु-उपयोगी है थ्री-डी प्रिंटिंग

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थ्री-डी प्रिंटिंग या एडिटिव मैन्युफैक्चरिंग (योगात्मक उत्पादन) डिजिटल फाइल से तीन विमीय (थ्री-डी) किसी ठोस वस्तु के इमेज बनने की प्रक्रिया है. थ्री-डी प्रिंटेड वस्तु के निर्माण में योगात्मक प्रक्रिया (एडिटिव प्रॉसेस) अपनायी जाती है.

इस प्रक्रिया के तहत किसी पदार्थ की क्रमागत परतों को एक के बाद एक व्यवस्थित किया जाता है. प्रत्येक परत को बेहद पतले क्षैतिज क्रॉस-सेक्शन के माध्यम से देखा जा सकता है.

थ्री-डी प्रिंटिंग की तकनीक : इसकी प्रक्रिया किसी वस्तु के आभासी चित्र बनाने से शुरू होती है. वचरुअल डिजाइन थ्री-डी मॉडलिंग की मदद से सीएडी (कंप्यूटर एडेड डिजाइन) फाइल में या थ्री-डी स्कैनर में तैयार की जाती है. यह स्कैनर वस्तु की थ्री-डी डिजिटल कॉपी तैयार करके थ्री-डी मॉडलिंग प्रोग्राम में रखता है.

प्रिंटिंग की प्रक्रिया में सॉफ्टवेयर फाइनल मॉडल को सैकड़ों-हजारों क्षैतिज परतों में बांट देता है. थ्री-डी प्रिंटर प्रत्येक स्लाइस (टू-डाइमेंशनल) को पढ़ता है और सभी परतों को एक साथ प्रदर्शित करते हुए एक थ्री-डी इमेज को प्रिंट करता है. थ्री-डी प्रिंटिंग की कुछ अहम तकनीकों पर काम चल रहा है.

इसमें सेलेक्टिव लेजर सिंटरिंग (एसएलएस) तकनीक में हाइ पावर के लेजर का इस्तेमाल किया जाता है. कुछ कंपनियों द्वारा एफडीएम टेक्नोलॉजी (फ्यूज्ड डिपोजिशन मॉडलिंग) में प्लास्टिक तंतुओं व धातुओं के तारों का इस्तेमाल किया जाता है. स्टीरियोलिथोग्राफी (एसएलए) में फोटोपॉलिमराइजेशन (फोटोबहुलीकरण) के सिद्धांत पर थ्री-डी प्रिंटिंग की जाती है.

बहुत उपयोगी है थ्री-डी प्रिंटिंग तकनीक : थ्री-डी प्रिंटिंग तकनीक का इस्तेमाल डिजाइन विजुलाइजेशन, प्रोटोटाइपिंग/ कंप्यूटर एडेड डिजाइन, धातुओं की ढलाई, कृषि, शिक्षा, हेल्थकेयर और एंटरटेनमेंट आदि में मुख्य रूप से किया जाता है.

और भी उम्मीदें : इस तकनीक से कॉमर्शियल क्षेत्र में बड़ा बदलाव आयेगा. मैन्युफैक्चरिंग की दुनिया के लिए यह और भी अहम होगी.

मानव के सहजीवाणु से चिकित्सा

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मानव शरीर को संघटीय तंत्र के बजाय पूरा पारिस्थितिकी तंत्र के रूप में देखा जा सकता है. मानव शरीर में वृहद संख्या में सूक्ष्म जीवाणु होते हैं. इन्हीं माइक्रोबायोम ने हाल के वर्षो में चिकित्सा विज्ञान में एक अलग प्रकार के शोध के लिए वैज्ञानिकों को प्रेरित किया है. वर्ष 2012 में दुनिया की 80 बड़ी वैज्ञानिक संस्थाओं ने ह्यूमन माइक्रोबायोम पर रिसर्च किया और यह निष्कर्ष निकाला कि मानव पारितंत्र में 10,000 से ज्यादा माइक्रोबायल की प्रजातियां पायी जाती हैं. मानव के शरीर में इनकी करोड़ों कोशिकाएं होती हैं और शरीर के द्रव्यमान में इनकी एक से तीन प्रतिशत तक हिस्सेदारी होती है.

डीएनए सिक्वेंसिंग और बायोइंफोर्मेटिक्स जैसी तमाम तकनीकों के माध्यम से बीमारियों और स्वास्थ्य में इन माइक्रोब्स प्रजातियों पर अध्ययन किया जा रहा है. इंसान के स्वस्थ्य जीवन में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है.

इसे इस बात से समझा जा सकता है कि आंतों में मौजूद सूक्ष्म जीवाणु पाचन क्रिया में अहम भूमिका निभाते हैं. दूसरी ओर, शरीर में व्याप्त रोगाणु खतरनाक भी साबित हो सकते हैं और कई बार तो वे बीमारी व मौत का कारण भी बनते हैं. फिलहाल, कई रिसर्च संस्थान बीमारियों में माइक्रोबायोम की भूमिका पर शोध कर रहे हैं.

इससे संक्रमण, मोटापा, मधुमेह और आंत से संबंधित बीमारियों से जुड़े कई निष्कर्ष निकलने की संभवानाएं जतायी जा रही हैं. ह्यूमन माइक्रोबायोम टेक्नोलॉजी से गंभीर बीमारियों के इलाज में कई रास्ते निकलने और आम स्वास्थ्य सेवाओं में अच्छे परिणाम की बहुत उम्मीदें हैं.

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