।। प्रकाश कुमार रे ।।
भारत ने विश्व व्यापार संगठन के व्यापार सरलीकरण समझौते पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया है. पिछले वर्ष दिसंबर में बाली में इस पर भारत सहित 158 देशों ने सहमति दे दी थी और इसे 31 जुलाई तक पूर्ण रूप से अंगीकर किया जाना था, किंतु भारत के रुख से इसका पारित हो पाना संभव नहीं दिख रहा है.
इसमें भारत को अनेक विकासशील देशों का सहयोग भी मिल रहा है. इस समझौते से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर आज का नॉलेज..
नयी दिल्ली : अगर जेनरल एग्रीमेंट ऑन टैरिफ्स एंड ट्रेड (गैट) के दिनों को जोड़ लें, तो विश्व व्यापार संगठन की सक्रियता के लगभग तीन दशक होने जा रहे हैं. इस अवधि के दौरान वैश्विक व्यापार को सुचारु रूप से चलाने के लिए कई बैठकें हुई हैं और अनेक समझौतों पर सहमति बनी.
पिछले वर्ष बाली में हुई बैठक इस कड़ी में सबसे अहम पड़ाव थी, जब अंतरराष्ट्रीय व्यापार-वाणिज्य के संचालन में आनेवाली प्रशासनिक और नौकरशाही से जुड़े अड़चनों को दूर करने के लिए व्यापार सरलीकरण समझौते पर सहमति बनी थी, जिसमें भारत समेत 158 देश शामिल थे.
तब इस समझौते के अंतिम प्रारूप पर 31 जुलाई, 2014 तक हस्ताक्षर होने की बात कही गयी थी और 2015 के जुलाई तक सदस्य-राष्ट्रों द्वारा इसे लागू किया जाना था.
किंतु, भारत ने खाद्य सुरक्षा के मसले पर इस समझौते के मौजूदा प्रारूप को मानने से इनकार कर दिया है. जेनेवा में 24 और 25 जुलाई को हुई संगठन की बैठक में भारत ने संगठन पर अनेक देशों के हितों की उपेक्षा का आरोप लगाते हुए स्पष्ट कहा कि इससे संगठन की विश्वसनीयता खतरे में पड़ सकती है.
भारत का कहना है कि विकासशील देशों के समूह-33 द्वारा खाद्यान्न भंडारण और अपने नागरिकों को सस्ती दरों पर अनाज की उपलब्धता सुनिश्चित कराने से संबंधित सवालों पर विकसित देशों का रवैया ठीक नहीं है. भारत ने यह भी साफ कर दिया है कि खाद्य सुरक्षा और अल्प विकसित देशों के हितों पर ठोस निर्णय के बिना किसी समझौते को स्वीकृति नहीं दी जा सकती है. भारत ने सुझाव दिया है कि सदस्यों के बीच अभी और विचार-विमर्श की आवश्यकता है और इस पर व्यापक समीक्षा अक्तूबर, 2014 में की जाये.
समूह-33 के देशों का सहयोग
भारत द्वारा अपनाये गये रुख को समूह-33 के देशों का पूरा सहयोग मिला है. पाकिस्तान को छोड़ कर समूह के 45 अन्य देशों ने खाद्यान्न सहयोग व भंडारण कार्यक्रमों को संगठन के ‘ग्रीन बॉक्स’ श्रेणी में डालने की मांग की है. उल्लेखनीय है कि विश्व व्यापार संगठन ने अनुदानों को ट्रैफिक के रंगों के अंतर्गत श्रेणीबद्ध किया गया है. लाल रंग के बॉक्स में अनुदान या संरक्षण की मनाही है.
हरे रंग में अनुमति वाले अनुदान हैं. एंबर (पीले) रंग के तहत अनुदानों को धीरे-धीरे खत्म करना है. इस श्रेणी में समर्थन मूल्य और किसानों को नकदी हस्तांतरित करनेवाले अनुदान हैं. यह अनुदान विकसित देशों के लिए कृषि उत्पादन का अधिकतम पांच और विकासशील देशों के लिए अधिकतम 10 फीसदी हो सकती है. एंबर बॉक्स में ही ब्लू बॉक्स है, जिसमें किसानों को उत्पादन सीमित करने के लिए अनुदान देने की व्यवस्था है.
भारत की मांग है कि खाद्यान्न सुरक्षा से संबंधित कार्यक्रमों को ग्रीन बॉक्स में डाला जाये. अनेक कृषि विशेषज्ञों ने रेखांकित किया है कि अमेरिका ने अपने यहां कृषि पर दिये जानेवाले भारी-भरकम अनुदानों को इसी श्रेणी में डाला है. इतना ही नहीं, उसने अनुदान की आंकड़े भी ठीक से नहीं जाहिर किये हैं. यही स्थिति अन्य विकसित देशों के साथ भी है.
भारत और अन्य विकासशील देशों के बाली बैठक से भिन्न रुख अख्तियार करने से घबराये विकसित देशों का कहना है कि इन देशों के रवैये से व्यापार सरलीकरण समझौते से वैश्विक अर्थव्यवस्था में होनेवाली एक खरब डॉलर की वृद्धि तथा दो करोड़ से अधिक रोजगार के अवसरों के सृजन को धक्का पहुंचेगा और इसका नुकसान विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को ही अधिक होगा. हालांकि, इन संभावित आंकड़ों का परीक्षण करें तो ये विश्वसनीय नहीं हैं. इनका यह आधार ही बड़ा बेतुका है कि आयात-निर्यात के विस्तार से सभी देशों की आय एक समान होगी. दूसरा, यह कि व्यापार सरलीकरण की प्रक्रिया में होनेवाले भारी खर्च को इसमें अनदेखा कर दिया गया है.
जेनेवा में भारत द्वारा लिया गया कड़ा रुख प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी नयी सरकार के वैश्विक राजनीतिक मंच पर अधिक सक्रिय भूमिका निभाने की तैयारी की ओर संकेत करता है. इसी महीने ब्रिक्स देशों ने विकास बैंक और विशेष कोष की स्थापना का बड़ा निर्णय लिया है, जो विकसित देशों के नियंत्रणवाले विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के प्रभाव पर असर डालने की क्षमता रखते हैं.
भारतीय वाणिज्य मंत्री ने सिडनी में हुई समूह-20 की बैठक में भी विश्व व्यापार संगठन में भारत के रुख को स्पष्ट कर दिया था. नरेंद्र मोदी और भाजपा ने चुनाव में किसानों को 50 फीसदी लाभ सुनिश्चित करने का वादा किया है.
अगर सरकार इस समझौते पर हस्ताक्षर कर देती है, तो उसके लिए इस वादे पर एक हद तक अमल कर पाना भी असंभव हो जायेगा. राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार नरेंद्र मोदी सितंबर में प्रस्तावित अमेरिका यात्रा को एक बड़ी वैश्विक राजनीतिक परिघटना के रूप में रेखांकित करना चाहते हैं.
इसके लिए उनका विकासशील देशों के प्रतिनिधि के रूप में देखा जाना जरूरी है. कभी अंतरराष्ट्रीय राजनीति में भारत का प्रभावी दखल होने का बड़ा कारण था कि तीसरी दुनिया उसे बतौर प्रवक्ता देखती थी.
भारत ने व्यापार को सुगम बनाने के लिए अपने स्तर पर कई कदम उठाये हैं. बजट में सीमा शुल्क तंत्र को सरल करने की घोषणा की गयी है और नये बंदरगाहों के निर्माण का प्रस्ताव किया गया है. साथ ही, कृषि में उदारीकरण की प्रक्रिया तेज की गयी है. यह सब विश्व व्यापार संगठन की व्यवस्थाओं के अनुरूप ही है.
खाद्यान्न सुरक्षा व भंडारण को बहुत जल्दी खत्म कर कृषि को पूरी तरह मुक्त बाजार के हवाले कर देना व्यावहारिक नहीं है और यह सरकार के लिए भी राजनीतिक रूप से आत्मघाती होगा. आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया के इस स्वाभाविक विकास को सरकार कब तक रोक सकेगी, यह भविष्य के गर्भ में है.
क्या है व्यापार सरलीकरण समझौता (टीएफए)
इस समझौते के तहत यह व्यवस्था कायम करने की कोशिश है कि सामानों के एक देश से दूसरे देश में ले जाने में अफसरशाही से होनेवाली बाधाओं को दूर किया जाये. इसमें व्यापार के क्षेत्र में तकनीकी सहायता और क्षमता-निर्माण का प्रावधान है. समझौते के प्रारूप में विकासशील देशों और अल्प-विकसित राष्ट्रों की समस्याओं व सीमाओं को ध्यान में रखते हुए विशेष रियायत की बात कही गयी है. इन श्रेणियों में आनेवाले देशों को बुनियादी ढांचों के विकास के लिए उनके संसाधनों से अधिक निवेश करने के लिए दबाव नहीं देने का आश्वासन भी है. इस समझौते पर आम सहमति के साथ हस्ताक्षर की अंतिम तारिख 31 जुलाई, 2014 रखी गयी है और समझौते पर सहमति के बाद एक वर्ष यानी 31 जुलाई, 2015 तक सदस्यों द्वारा इसके प्रावधानों को लागू करने का प्रस्ताव है. सदस्य देशों में इस समझौते पर सहमति है, पर एक उपबंध को लेकर भारत समेत अनेक विकासशील देशों व विकसित देशों के बीच ठनी हुई है. इस उपबंध में यह व्यवस्था है कि कृषि पर दिया जानेवाला सरकारी अनुदान उत्पादन की कुल कीमत के 10 फीसदी से अधिक नहीं होनी चाहिए. यदि कोई इस सीमा का उल्लंघन करेगा, तो अन्य देश उसका विरोध कर सकते हैं और उसके विरुद्ध व्यापारिक प्रतिबंध लगा सकते हैं. इस उपबंध को स्वीकार कर लेने से विकासशील व अल्प विकसित देशों के खाद्यान्न सुरक्षा तंत्र पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है. इन देशों में गरीब जनता और किसानों के हितों की रक्षा सरकारों की प्रमुख जिम्मेवारी है. अनुदान व कृषि उपजों के संरक्षण पर ऐसी किसी सीमा को स्वीकार कर लेने का सीधा अर्थ यह है कि खाद्यान्न उपलब्धता व उसके बाजार को विकसित अर्थव्यवस्थाओं के हवाले कर देना. भारत व समूह-33 के देशों द्वारा इसका विरोध स्वाभाविक है. दिसंबर में बाली में हुई बैठक में भारत ने इस प्रारूप पर प्रारंभिक सहमति इस शर्त के साथ दी थी कि विकासशील देशों के विरुद्ध 2017 तक किसी प्रकार की वैधानिक कार्रवाई नहीं की जायेगी और न ही कोई आर्थिक प्रतिबंध लगाया जायेगा. लेकिन तब यह भी कह दिया गया था कि इस छूट का कोई असर आयात-निर्यात के मूल्यों पर नहीं पड़ना चाहिए.
क्या है टीएफए पर भारत की आपत्ति
जेनेवा बैठक में भारत ने स्पष्ट कह दिया है कि जब तक समझौते में खाद्यान्न सुरक्षा के प्रश्न को समुचित तरीके से सुलझाया नहीं गया, उसके लिए इस पर हस्ताक्षर कर पाना संभव नहीं होगा.
भारतीय संसद द्वारा पारित खाद्यान्न सुरक्षा कानून के अनुसार, गरीब लोगों को अत्यंत कम दाम पर भोजन उपलब्ध कराना वैधानिक जिम्मेवारी है. सरकार किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज खरीदती है, जो कि उनके आर्थिक हितों की रक्षा करता है. इस प्रक्रिया से सरकार अनाज का भंडारण भी करती है ताकि जरूरत के मुताबिक वह लोगों को खाद्यान्न उपलब्ध करा सके.
इसके अलावा, वह किसानों को कम ब्याज दरों पर ¬ण देती है, फसलों का बीमा करती है और प्राकृतिक आपदा की स्थिति में खराब फसलों के लिए मुआवजा देती है. भारत में किसानों के लिए बिजली और रासायनिक उर्वरकों पर भी अनुदान की व्यवस्था है. ऐसी हालत में भारत के लिए दस फीसदी की सीमा रेखा को स्वीकार कर पाना संभव नहीं है. ध्यान रहे, यह सीमा 1986-88 के मूल्य सूचकांक के आधार पर तय की गयी है.
उस समय के मुकाबले आज अनाज की कीमत काफी बढ़ चुकी है. विकासशील देश 2006 से ही मांग कर रहे हैं कि इस संदर्भ मूल्य को मुद्रास्फीति के अनुरूप संशोधित किया जाये, लेकिन अमेरिका सहित विकसित देश इस मांग का विरोध करते रहे हैं. उल्लेखनीय है कि भारत में निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य बाजार की कीमतों से थोड़ा ही अधिक होता है, लेकिन जब इसे 1986-1988 के मूल्यों के साथ देखा जाता है, तो यह राशि बहुत अधिक प्रतीत होती है.
इस समझौते में यह भी शर्त है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय को सरकारी अनाज भंडारों की जानकारी उपलब्ध करानी होगी. साथ ही, अनुदान के साथ उपलब्ध कराये जानेवाले अनाज में अनेक पौष्टिक अनाजों को शामिल करने की मनाही है. इस पूरे प्रकरण का एक बड़ा चिंताजनक पहलू यह है कि विश्व व्यापार संगठन के समझौतों में विकासशील देशों में सरकारी अनुदान व संरक्षण का मुद्दा तो जोर-शोर से उठाया जाता है, लेकिन विकसित देशों द्वारा अपने किसानों को दी जानेवाली भारी-भरकम अनुदान राशि व संरक्षण की चर्चा तक नहीं होती.
तीसरी दुनिया के देशों में आपसी सहयोग जरूरी
रोशन किशोर
आर्थिक विश्लेषक
खाद्य सुरक्षा मसले पर अपनी मांगों के समर्थन में भारत द्वारा विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में तय व्यापार सरलीकरण समझौते (टीएफए) को मंजूरी देने से इंकार की खबर लगातार सुर्खियों में बनी हुई है. यह जानने के लिए अभी इंतजार करना पड़ेगा कि सरकार इस मामले पर अडिग रवैया अपनायेगी या पिछले साल बाली में हुई डब्ल्यूटीओ की मंत्री-स्तरीय बैठक की तरह आखिर में कोई समझौता कर लेगी. बहरहाल, कुछ अपवादों को छोड़ कर सार्वजनिक तौर पर इस पूरे प्रकरण से जुड़े तथ्यों को ठीक तरीके से सामने रखने का प्रयास नहीं किया गया है.
डब्ल्यूटीओ में विकासशील देशों के खिलाफ भेदभावपूर्ण बर्ताव को समाप्त करने के लिए दोहा में 2001 में हुई मंत्री-स्तरीय बैठक में एक अहम समझौता हुआ था. विकसित देशों के दबाव के चलते आज तक दोहा जनादेश को लागू करने की दिशा में कोई प्रगति नहीं हुई है.
लगातार बने इस गतिरोध के दौरान बाली में होने वाले बैठक को संगठन के भविष्य के लिए एक महत्वपूर्ण पड़ाव माना जा रहा था. इस बैठक में तीन अहम मुद्दे चर्चा के लिए रखे गये-व्यापार सरलीकरण, खाद्य सुरक्षा पर जी-33 का प्रस्ताव और अल्प विकसित देशों के लिए पैकेज.
मोटे तौर पर कहा जाए तो बाली में पहले मुद्दे पर प्रगति हुई है, जबकि बाकी दो पर महज खानापूर्ति. कुछ अतिशयोक्तिपूर्ण अनुमानों को छोड़ कर इस बात पर सभी सहमत हैं कि व्यापार सरलीकरण समझौते को लागू करने के लिए तीसरी दुनिया के देशों को भारी खर्च उठाना पडेगा और इसका ज्यादातर फायदा विकसित देशों को ही मिलेगा. वहीं जी-33 प्रस्ताव के नामंजूर होने से भारत सहित कई देशों की खाद्य सुरक्षा के लिए नीतियां लागू करने की स्वतंत्रता पर गंभीर रुकावटें आयेंगी.
जी-33 प्रस्ताव इस संगठन के मौजूदा कृषि क्षेत्र के अनुदान-संबंधी नियमों में विकासशील देशों के अनुरूप उपयुक्त सुधार करने का मसौदा है, जिससे यह सुनिश्चित हो सकेगा कि ग्रामीण विकास, कृषि-उत्पादकता बढ़ाने और छोटे किसानों से खाद्यान्न खरीद कर जन वितरण प्रणाली जैसे माध्यमों द्वारा सस्ते दरों पर बेचने आदि पर किये गये खर्च को प्रतिबंधित ‘एंबर बॉक्स’ श्रेणी में नहीं गिना जायेगा.
सरकार द्वारा खाद्यान्न अधिप्राप्ति भारत के लिए विशेष तौर पर महत्वपूर्ण है, क्योंकि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून लागू होने के बाद इसमें होने वाली वृद्धि से यह लगभग तय माना जा रहा है कि भारत अपनी स्वीकृत अनुदान सीमा को पार कर जायेगा. ऐसा होने पर या तो इस कार्यक्रम में रुकावट आयेगी या भारत को डब्ल्यूटीओ में मुकदमे ङोलने पड़ेंगे. जाहिर है कि इस मसले के साथ सिर्फ आर्थिक ही नहीं, राजनीतिक परिणाम भी जुड़े हैं.
मौजूदा नियम किस हद तक बेतुके हैं, इसका एक उदाहरण यह है कि एंबर बॉक्स के अंतर्गत आने वाले अनुदान का हिसाब निकालने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य से घटाया जाने वाला अंतरराष्ट्रीय मूल्य 1986-88 के दामों पर आधारित है! इसका मतलब है कि वर्तमान न्यूनतम समर्थन मूल्य- जो लागत पर आधारित हैं, और 1986-88 के मूल्यों में जो भी अंतर होगा, वो भारत द्वारा प्रतिबंधित अनुदानों की कुल राशि को लगातार बढ़ाता जायेगा.
विश्व व्यापार संगठन में निर्णय लेने का जो तरीका है, उसमें सर्वसम्मति के बिना कोई भी अहम फैसला नहीं लिया जा सकता. बाली में व्यापार सरलीकरण पर सहमति देने को सही ठहराते हुए पिछली सरकार ने यह दावा किया था कि खाद्य सुरक्षा नीति की संप्रभुता पर कोई खतरा नहीं है. दिसंबर से जुलाई के बीच में इन दावों की हवा निकल गयी है.
इसके परिणामस्वरूप बदहवास नयी सरकार इस बात का पूरजोर प्रयास कर रही है कि किस तरह मामले को फिर से बाली में हुई बैठक के पहले वाली स्थिति में ले जाया जाए. ध्यान देने लायक बात यह है कि सिर्फ व्यापार सरलीकरण को लागू होने से रोक देने से खाद्य सुरक्षा नीति में आने वाली परेशानियां दूर नहीं होंगी, क्योंकि उनके लिए नियमों को बदला जाना जरूरी है.
चुनौती बहुत कठिन है और इसमें सफल होने की पहली शर्त तीसरी दुनिया के देशों के साथ परस्पर सहयोग बढ़ाना है, भले ही यह कोशिश अमेरिका को बहुत नागवार गुजरे.