।। ब्रह्मानंद मिश्र ।।
नयी दिल्ली
हाल ही में ब्राजील में आयोजित ब्रिक्स देशों के सालाना शिखर सम्मेलन में सदस्य देशों ने विकास को गति देने के लिए ‘न्यू डेवलपमेंट बैंक’ के गठन के प्रस्ताव को मंजूरी दी है. क्या है ब्रिक्स का न्यू डेवलपमेंट बैंक, क्यों है इस बैंक की जरूरत, इससे ब्रिक्स देशों को क्या होगा फायदा और भारत समेत अन्य देशों को क्या हैं इससे उम्मीदें, आदि जैसे इस बैंक से जुड़े तमाम पहलुओं पर नजर डाल रहा है आज का नॉलेज..
तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों के समूह ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) ने पिछले दिनों वैश्विक वित्तीय प्रणाली में एक नया अध्याय जोड़ते हुए ‘न्यू डेवलपमेंट बैंक’ की स्थापना को मंजूरी दी है. विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के बाद दुनिया में यह तीसरी अहम वैश्विक वित्तीय संचालन व्यवस्था होगी. इस बैंक का मुख्यालय चीन के शंघाई में होगा और बैंक का पहला अध्यक्ष भारत से होगा. भारतीय अध्यक्ष की नियुक्ति पहले छह वर्ष के लिए होगी. फिर ब्राजील और रूस से अध्यक्ष की नियुक्ति की जायेगी, जिनका कार्यकाल पांच-पांच वर्ष का होगा.
वर्ष 2007-2008 की मंदी के बाद वैश्विक स्तर पर विकासशील देशों का दबदबा तेजी से बढ़ा है. पिछले एक दशक में अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में व्यापक बदलाव आया है, खासकर उभरते और विकासशील देशों की ग्लोबल जीडीपी में हिस्सेदारी बढ़ी है. कुछ उभरती अर्थव्यवस्थाओं के पास विदेशी पूंजी भंडार में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई है. ऐसे में विकासशील देशों में मूलभूत आवश्यकताओं का दायरा भी बढ़ा है- विशेषकर इंफ्रास्ट्रक्चर और पर्यावरण को संरक्षित रखते हुए विकास के क्षेत्र में.
संयुक्त राष्ट्र की एक हालिया रिपोर्ट में बताया गया है कि विकासशील देशों में विकास को गति देने के लिए लगभग एक ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर तक वार्षिक वित्तीय निवेश की जरूरत है. वित्तीय निवेश न होने से विकासशील देशों को भविष्य में अनेक दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है और दुनिया की बड़ी आबादी को बिजली और पानी के लिए जूझना पड़ सकता है. भविष्य की इन्हीं चुनौतियों और जरूरतों को देखते हुए ब्रिक्स देशों द्वारा उठाया गया यह कदम कई मामलों में बेहद महत्वपूर्ण है.
कैसा होगा न्यू डेवलपमेंट बैंक
न्यू डेवलपमेंट बैंक (एनडीबी) की शुरुआती पूंजी 100 अरब डॉलर (लगभग छह लाख करोड़ रुपये) होगी. इस बैंक में ब्रिक्स समूह के देश ब्राजील, रू स, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका की बराबर की हिस्सेदारी (20-20 अरब डॉलर) होगी. शुरुआती अंशदान पूंजी 50 अरब डॉलर होगी. बैंक सभी देशों के समान वोटिंग शेयर के आधार पर काम करेगा. सभी सदस्य देशों की शुरुआती हिस्सेदारी 10 अरब डॉलर की होगी. ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका में ढांचागत और स्थायी विकास योजनाओं में इस जमा पूंजी का इस्तेमाल किया जायेगा. इसके अलावा, इसमें एक महत्वपूर्ण प्रावधान यह भी किया गया है कि छोटे और कम आयवाले देश भी योजनाओं की फंडिंग के लिए आवेदन कर सकेंगे.
ब्रिक्स के पांचों राष्ट्रों ने शिखर बैठक में 100 अरब डॉलर के ‘कंटींजेंसी रिजर्व अरेंजमेंट’ (सीआरए) गठित करने की सहमति दी है. इससे नकदी संकट की स्थिति से निपटने के लिए इसके सदस्य देशों को नकदी सुरक्षा मिलेगी. ब्रिक्स के सदस्य देशों की समान हिस्सेदारी से इकट्ठा पूंजी के बजाय, सीआरए में चीन की 41 प्रतिशत, ब्राजील, भारत और रूस की 18-18 प्रतिशत और दक्षिण अफ्रीका की पांच प्रतिशत की हिस्सेदारी होगी.
न्यू डेवलपमेंट बैंक क्यों
वैश्विक अर्थव्यवस्था का पांचवां हिस्सा ब्रिक्स देशों के पास है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) में वोट की हिस्सेदारी महज 11 प्रतिशत ही है. 70 वर्षो से कायम ब्रेटन-वुड्स प्रावधानों के तहत चल रही संस्थाओं में सुधार की दिशा में कई अवरोध हैं. ‘वाशिंगटन पोस्ट’ की एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2008 और 2010 में ब्रिक्स देशों की वोटिंग हिस्सेदारी को बढ़ाते हुए वित्तीय वायदे को दोगुना करने का प्रस्ताव रखा गया.
ऐसे में समृद्ध देशों की अतिरिक्त हिस्सेदारी की जरूरत थी, लेकिन कई कारणों से ऐसा न हो सका. इस बदलाव से छोटे यूरोपीय देशों का कोटा शेयर कम कर दिया जाता, इसी वजह से इन देशों ने इस बदलाव का खुल कर विरोध किया. इन देशों का मानना था कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में वोटिंग शेयर कम होने पर उनका आधिकारिक रूप से विकास में सहयोग नजरअंदाज कर दिया जायेगा.
संक्षेप में कहें तो कुल मिलाकर शुरू से ही अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) और विश्व बैंक की अगुवाई सामान्यत: यूरोप और अमेरिका के हाथ में रही है. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में ब्राजील सहित कई देशों का प्रतिनिधित्व करनेवाले नोगुएरिया बतिस्ता ने एक इंटरव्यू में कहा था कि यदि मौजूदा वैश्विक वित्तीय संस्थान अपना काम बेहतर तरीके से करते, तो नये बैंक की जरूरत ही नहीं पड़ती.
भारत की उम्मीदें बनाम चीन की महत्वाकांक्षा
इसमें कोई दो राय नहीं कि ब्रिक्स देशों में ढांचागत विकास को गति देने में न्यू डेवलपमेंट बैंक की भूमिका महत्वपूर्ण होगी. भारत और चीन के संदर्भ में बैंक की अहमियत कई नजरिये से देखी जा सकती है. दोनों देश वैश्विक स्तर पर तेजी से उभरती आर्थिक महाशक्ति हैं. ऐसे में विकसित देशों की निगाहें भी इन पर टिकी हैं. चीन और भारत के आपसी संबंधों की बात करें, तो यह काफी उतार-चढ़ाव वाला रहा है. भारत-चीन सीमा विवाद काफी पुराना है, इस मुद्दे पर गतिरोध अब भी बना हुआ है. अरुणाचल प्रदेश, लद्दाख, जम्मू-कश्मीर समेत विभिन्न भू-भागों पर चीनी घुसपैठ भारत के लिए सबसे बड़ी सिरदर्दी है.
पिछले कुछ दशकों से दोनों पड़ोसियों का संबंध समझौता और तनाव के बीच झूल रहा है. चीन भारत के अरुणाचल प्रदेश के 90,000 वर्ग किलोमीटर भू-भाग पर अपना दावा करता है और जम्मू-कश्मीर में लगभग 38,000 वर्ग किलोमीटर भू-भाग पर अवैध रूप से दाखिल हो चुका है. इन्हीं कारणों से भारत-चीन सीमा से जुड़े इलाकों, खासकर अरुणाचल प्रदेश में फाइनेंस इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट में निवेश करने से एजेंसियां कतराती हैं.
सवाल उठता है कि नये समझौते से चीन को सुपरपावर बनने में भारत की भूमिका क्या सहायक की होगी? आइएमएफ में 2003 से 2006 के बीच भारत के एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर रहे बॉबी मिश्र के एक इंटरव्यू के अनुसार, चीन 2020 तक आर्थिक महाशक्ति बनना चाहता है और इसके लिए चीन न्यू डेवलपमेंट बैंक का बेहतर इस्तेमाल कर सकता है. ऐसी दशा में भारत को बेहद सावधानी बरतने की जरूरत होगी. हालांकि, बैंक को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर धाक जमाने में कम से कम 10 वर्ष का समय लग जायेगा. दूसरी ओर, कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि न्यू डेवलपमेंट बैंक की स्थापना उभरती अर्थव्यवस्था के सकारात्मक कदम हैं.
नये बैंक से हैं कई उम्मीदें
विशेषज्ञों का मानना है कि ब्रिक्स संस्थाओं की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विकास योजनाओं में हिस्सेदारी काफी अहम साबित होगी. खासकर विकासशील देशों को सबसे बड़ी उम्मीद यह है कि ब्रिक्स बैंक/ सीआरए निश्चित तौर पर विश्व बैंक और आइएमएफ के अधिपत्य को चुनौती देगा. इससे मूलभूत सेवाओं के लिए धन, आपातकालीन मदद, योजनागत ऋण और विवादग्रस्त क्षेत्रों में आर्थिक सहायता मुहैया कराने में राहें आसान होंगी. विश्व बैंक का भी मानना है कि विकासशील देशों में इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में कम से कम एक ट्रिलियन डॉलर निवेश की जरूरत है. दुनियाभर में मौजूद बहुपक्षीय विकास बैंक महज 40 प्रतिशत ही जरूरतों को पूरा कर पाने में सक्षम हैं.
वास्तव में ब्रिक्स बैंक की प्राथमिकताओं में बिजली, परिवहन, टेलीकम्युनिकेशन और जल/ सीवेज आदि व्यवस्थाएं शामिल होंगी. कम आयवाले देशों में भी ढांचागत विकास की मांग बढ़ेगी. कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि आनेवाले कुछ दशकों में इसके सदस्य देशों की संख्या भी बढ़ेगी. संभव है कि इससे ब्रिक्स बैंक के लोन की सीमा, विश्व बैंक के लोन की सीमा को भी पार कर जाये. यह भी मुमकिन है कि हाइ क्वालिटी लोन पोर्टफोलियो सुनिश्चित करने के लिए अधिक रिजर्व फंड की दरकार होगी. ऐसे में निगरानी जैसी चुनौतियों से बेहद सावधानी से निपटना होगा. अब ब्रिक्स देशों के इस कदम के वैश्विक वित्तीय प्रणाली पर पड़नेवाले असर पर भी पूरी दुनिया की निगाह रहेगी.
ब्रिक्स से जुड़ी कुछ खास बातें
– ब्रिक्स के गठन का विचार सबसे पहले इनवेस्ट बैंक गोल्डमैन सैक्स के चेयरमैन जिम ओ नील ने वर्ष 2001 में दिया था.
– दिसंबर, 2010 से पहले तक इस समूह में दक्षिण अफ्रीका शामिल नहीं हुआ था. तब इसे ‘ब्रिक’ के नाम से जाना जाता था. दक्षिण अफ्रीका के शामिल होने के बाद इसमें ‘एस’ अक्षर जोड़ा गया, जिसके बाद से यह ‘ब्रिक्स’ बन गया.
– इसकी वार्षिक बैठक किसी सदस्य देश की मेजबानी में होती है. 2012 की शिखर बैठक भारत में हुई थी. 2014 में यह इसी माह ब्राजील में आयोजित किया गया था.
– दुनिया के कुल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में इन पांचों देशों की हिस्सेदारी तकरीबन 21 फीसदी है. बीते 15 सालों में दुनियाभर के जीडीपी में इनकी हिस्सेदारी तकरीबन तीन गुना बढ़ी है.
– ब्रिक्स देशों के बीच आपसी कारोबार लगभग 300 अरब डॉलर तक पहुंच गया है. 2015 तक इसके 500 अरब डॉलर तक पहुंचने का अनुमान है. मालूम हो कि 2002 में यह महज 27.3 अरब डॉलर था.
– ब्रिक्स देशों के पास कुल मिलाकर करीब 44 खरब डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार है.
(स्नेत- ब्रिक्स देश एवं अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष)