सब्र का फल मीठा होता है. अधीर रंजन चौधरी को अब इस कहावत का अर्थ शायद बखूबी समझ में आ गया होगा.
पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद ज़िले के राजकुमार, बेताज़ बादशाह, गरीबों के मसीहा और रॉबिनहुड के नाम से मशहूर चौधरी ही अकेली वह शख़्सियत हैं जिनकी बदौलत बंगाल में सीपीएम और तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) की आंधी में भी अब तक कांग्रेस का झंडा लहरा रहा है.
पार्टी के तमाम नेता इधर से उधर हो गए. लेकिन चौधरी अकेले ऐसे नेता हैं जिन्होंने बीते दो दशकों से अकेले अपने बूते मुर्शिदाबाद ज़िले को कांग्रेस का अजेय क़िला बनाए रखा है.
दो दिन पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अधीर की काफ़ी सराहना की थी. दरअसल, अधीर ऐसे नेताओं में से हैं जिनकी लाख आलोचना की जाए, अनदेखी नहीं की जा सकती.
शायद नियति और क़िस्मत इसे ही कहते हैं. लोकसभा चुनावों से ठीक पहले आलाकमान ने प्रदेश कांग्रेस की कमान चौधरी से लेकर सोमेन मित्र को सौंप दी थी. इससे चौधरी की नाराज़गी स्वाभाविक थी.
वे लेफ्ट फ्रंट और तृणमूल कांग्रेस के साथ किसी तरह के तालमेल के सख़्त ख़िलाफ़ थे. अधीर शुरू से ही बीजेपी और तृणमूल कांग्रेस से समान दूरी बरतने की वकालत करते रहे हैं.
शायद यही वजह है कि अबकी लोकसभा चुनावों से पहले अधीर के बीजेपी में शामिल होने की अफवाहें काफी तेज थीं. लेकिन उन्होंने संयम बरता और अब उनको लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता के तौर पर इसका इनाम मिला है.
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शुरुआती राजनीति
राजनीतिक पंडितों का कहना है कि कांग्रेस आलाकमान ने बंगाल में वर्ष 2021 के विधानसभा चुनावों से पहले चौधरी को लोकसभा में संसदीय दल का नेता बना कर राज्य में संगठन की मजबूती के लिए उनके करिश्माई व्यक्तित्व पर भरोसा जताया है.
वह प्रणब मुखर्जी के बाद इस पद पर पहुंचने वाले बंगाल के दूसरे सांसद हैं. हालांकि प्रणब को उस समय संसदीय दल का नेता बनाया गया जब केंद्र में मनमोहन सिंह सरकार सत्ता में थी.
स्कूली पढ़ाई बीच में ही छोड़ कर नक्सल आंदोलन के जरिए राजनीति में कदम रखने वाले अधीर चौधरी का लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता के तौर पर सफ़र आसान नहीं रहा है. बंगाल प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रहे अधीर रंजन चौधरी पर अक्सर बाहुबली होने के आरोप लगते रहे हैं.
लेकिन राज्य में कांग्रेस अगर अब भी चर्चा में है तो उसका श्रेय अधीर को ही जाता है. दो दशक पहले से ही ममता बनर्जी के धुर विरोधी रहे अधीर को अगर गंगा के किनारे बसे मुर्शिदाबाद का बेताज़ बादशाह माना जाता है तो उसकी कई ठोस वजहें हैं.
दो दशक से भी लंबे अरसे से बंगाल में बेहद प्रतिकूल हालातों में भी पार्टी का परचम फहराने के बावजूद चौधरी को उनकी निष्ठा का ख़ास फल नहीं मिला था.
मनमोहन सिंह सरकार में दो साल तक रेल राज्य मंत्री रहे अधीर खुद को दलित मंत्री कहते थे. यही नहीं, लोकसभा चुनावों से कुछ महीने पहले उनसे प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी भी छीन ली गई. लेकिन बावजूद इसके अधीर पार्टी के लिए डटे रहे.
जेल के अंदर भाषण रिकॉर्ड होता था
अपने करियर के शुरुआती दिनों में कुछ समय के लिए वे फ़ॉरवर्ड ब्लॉक में रहे.
लेकिन पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कार्यकाल में उन्होंने कांग्रेस का हाथ थाम लिया. उस समय मुर्शिदाबाद ज़िले को आरएसपी का गढ़ माना जाता था.
वर्ष 1991 के विधानसभा में पहली बार मैदान में उतरे अधीर को सीपीएम समर्थकों की भारी हिंसा का सामना करना पड़ा था. कोई तीन सौ समर्थकों ने उनको खदेड़ दिया था.
अधीर हालांकि तब लगभग 1400 वोटों से हार गए थे. लेकिन उनकी सांगठनिक क्षमता, साहस और सीपीएम के ख़िलाफ़ जुझारूपन ने इलाके के कांग्रेसियों में उनकी लोकप्रियता रातों-रात बढ़ा दी.
वर्ष 1996 के विधानसभा चुनावों में एक सीपीएम नेता के परिजन की हत्या के आरोप में जेल में रहने के बावजूद चौधरी नबग्राम विधानसभा सीट जीत ली.
मुर्शिदाबाद के एक पुराने कांग्रेसी नेता रमेंद्र नाथ चौधरी बताते हैं, "उस समय अधीर के भाषणों के जेल के भीतर रिकॉर्ड किया जाता था और उनको पार्टी की रैलियों में चलाया जाता था."
दिलचस्प बात यह है कि ममता बनर्जी ने तब अधीर की उम्मीदवारी का भारी विरोध किया था. इन दोनों नेताओं के बीच सांप-नेवले की लड़ाई आज तक जस की तस है.
बाग़ी तेवर
अधीर वर्ष 1996 में पहली बार विधायक बने और उसके तीन साल बाद सांसद. उन्होंने ज़िले की बरहमपुर लोकसभा सीट से 1999 में उस समय चुनाव लड़ा था जब वर्ष 1951 के बाद वहां कांग्रेस कभी नहीं जीती थी.
वह सीट आरएसपी की गढ़ थी. उस साल जीतने के बाद चौधरी लगातार पांच बार जीत चुके हैं. अधीर ने खुद तो इलाके में अपनी बादशाहत क़ायम रखी ही है, उनकी पहल पर ही कांग्रेस नेता प्रणब मुखर्जी ने भी वर्ष 2004 में ज़िले की जंगीपुर संसदीय सीट से अपने जीवन का पहला लोकसभा चुनाव लड़ा और जीता था.
साल 2004 और 2009 में इस अल्पसंख्यक-बहुल सीट से प्रणब की जीत के असली वास्तुकार अधीर ही थे.
चौधरी को 10 फरवरी, 2014 को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया था. वे बीते साल 21 सितंबर तक इस पद पर रहे. उनके कार्यकाल के दौरान ही वर्ष 2016 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने वाम मोर्चे के साथ हाथ मिलाया था. हालांकि उससे कोई ख़ास फ़ायदा नहीं हुआ.
मुर्शिदाबाद में चौधरी की ताक़त का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने विधानसभा से लेकर पंचायत चुनावों तक कई बार आलाकमान की इच्छा के ख़िलाफ़ जाकर बाग़ी उम्मीदवारों तक को जिताया है. लेकिन अधीर की शख्सियत ही ऐसी है कि बावजूद इसके केंद्रीय नेतृत्व ने उनके ख़िलाफ़ कभी कोई कार्रवाई नहीं की.
संसद के भीतर और बाहर चौधरी की छवि एक प्रखर वक्ता की है. बीते पांच वर्षों के दौरान वह संसद में कई बार मोदी सरकार पर तीखे हमले कर चुके हैं. लेकिन बीते साल नारदा और सारदा घोटालों के मुद्दे पर ममता बनर्जी सरकार पर तीखे हमलों ने आलाकमान की नज़रों में उनके नंबर बढ़ा दिए थे.
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आगामी विधानसभा चुनावों पर नज़र
वर्ष 2016 के लोकसभा चुनावों में जहां बंगाल पर 34 साल तक शासन करने वाली सीपीएम का खाता तक नहीं खुल सका, वहीं कांग्रेस ने दो सीटें जीत लीं. यह कहना ज़्यादा सही होगा कि मुर्शिदाबाद में अधीर कांग्रेस के पर्याय हैं.
अब आलाकमान ने उनको संसद में अहम जिम्मेदारी सौंप कर दो साल बाद होने वाले विधानसभा चुनावों में पार्टी का चेहरा बनाने के संकेत दे दिए हैं.
राजनीतिक मोर्चे पर अपने भाषणों और रणनीति से विरोधियों को धूल चटाने वाले चौधरी का निजी जीवन इतना आसान नहीं रहा है.
दो अप्रैल, 1956 को जन्मे अधीर ने 15 सितंबर, 1987 को अर्पिता चौधरी से शादी की थी. लेकिन उनकी इकलौती पुत्री की अक्तूबर, 2006 में एक बहुमंजिली इमारत से गिर कर मृत्यु हो गई थी.
पुलिस के मुताबिक वह आत्महत्या का मामला था. उसके बाद इसी साल नौ जनवरी को अर्पिता का भी निधन हो गया. लेकिन चौधरी ने अपनी निजे जीवन की मुश्किलों और तकलीफ़ों को कभी पार्टी के हितों के आड़े नहीं आने दिया.
अधीर अक्सर कहते रहे हैं कि वे एक पैदल सिपाही हैं जो युद्ध के मोर्चे पर हमेशा सामने खड़ा रहता है. इसलिए वह पैदल सिपाही की तरह लड़ते रहेंगे. लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता बनने के बाद भी उन्होंने यही बात दोहराई.
अधीर के ख़िलाफ़ कई आपराधिक मामले दर्ज हैं. इनमें हत्या के आरोप तक शामिल हैं. इन मामलों में उनको कई बार जेल जाना पड़ा है. लेकिन खुद अधीर इन मामलों को विपक्षी दलों की साजिश बताते हैं.
जनाधार वाले नेता
एक पुराने कांग्रेस निहार रंजन मैत्र कहते हैं, "आप अधीर पर बाहुबली होने का आरोप लगा कर उनकी लाख आलोचना कर लें, उनकी अनदेखी नहीं कर सकते. महज मुर्शिदाबाद ही नहीं बल्कि बंगाल कांग्रेस में उनकी कद-काठी का कोई दूसरा जुझारू नेता चिराग लेकर ढूढ़ने से भी नहीं मिलेगा."
प्रदेश कांग्रेस ने भी अधीर के संसदीय दल नेता बनने का स्वागत किया है. प्रदेश अध्यक्ष सोमेन मित्र कहते हैं, "अधीर चौधरी के लौटने पर उनका नागरिक अभिनंदन किया जाएगा."
वह कहते हैं कि इससे वर्ष 2021 के विधानसभा चुनावों में पार्टी एक बार फिर पूरी सांगठनिक ताक़त के साथ मैदान में उतरेगी.
राज्य विधानसभा में विपक्ष के नेता अब्दुल मन्नान कहते हैं, "अधीर को संसदीय दल का नेता बना कर आलाकमान ने व्यापक जनाधार वाले इस नेता को पहली बार योग्य पद दिया है. गनी ख़ान चौधरी और प्रियरंजन दासमुंशी के बाद अधीर ही अकेले ऐसे नेता हैं जिनका व्यापाक जनाधार है."
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि कांग्रेस आलाकमान ने इस फैसले के जरिए यह संकेत दिया है कि बंगाल उसकी प्राथमिकता सूची में काफी ऊपर है और दो साल बाद होने वाले विधानसभा चुनावो में पार्टी यहां पूरी ताकत के साथ मैदान में उतरेगी.
राजनीतिक विज्ञान के प्रोफेसर उज्ज्वल कुमार मुखर्जी कहते हैं, "शायद अब आलाकमान ने भी मान लिया है कि बंगाल में अधीर ही पार्टी का भविष्य हैं."
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