ब्रजकिशोर दुबे जाने-माने लोक गायक हैं. इन्होंने राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति सहित कई बड़ी शख्सियतों के सामने प्रस्तुति दी है. उन्होंने बिहारी बाबू, माई जैसी फिल्मों के लिए गीत भी लिखा. 1975 से वे लोक संस्कृति के कार्यक्रम से जुड़े रहे हैं. लोक गायकी व उसमें आ रहे प्रदूषण के बारे में उनके नजरिये को जानना जरूरी है. पंचायतनामा के लिए उनसे सुजीत कुमार ने विस्तृत बात की. प्रस्तुत है उसका प्रमुख अंश :
भिखारी ठाकुर और महेंद्र मिसिर की परंपरा वाले बिहार में लोक संगीत की स्थिति क्या है?
ये दोनों हमारी संस्कृति की धरोहर हैं. इनके बिना तो शुरुआत ही नहीं हो सकती है. इस पीढ़ी के जो भी गायक हैं, चाहे इस संस्कृति के दम पर जिस भी ऊंचाई तक पहुंचे हुए हैं. वह भिखारी ठाकुर और महेंद्र मिसिर की रचनाओं को गाते हैं. इस पीढ़ी के भी कलाकारों में इन दोनों कलाकारों के लिए श्रद्धा भाव है. जहां तक पूर्वी गीतों की बात है, दुनिया के किसी भी कोने में अगर पूर्वी की बात होगी, महेंद्र मिसिर का जिक्र जरूर होगा. उनके अलावा भी अन्य कई लोग हैं जिन्होंने पूर्वी की रचना की है. मेरा अपना अनुभव है.
मंच पर मैं जब भी ऐसे रचनाकारों के गीतों को गाता हूं. श्रोता भावविभोर हो जाते हैं. ये दोनों ऐसी हस्तियां हैं, विशेष रूप से भोजपुरी जगत की. जिन्हें भूला ही नहीं जा सकता. इनकी उपेक्षा की ही नहीं जा सकती है. इनकी रचनाओं का ही जादू है कि तब से ले कर अब तक न जाने कितनी बार इनकी रचनाओं को सुना, गाया गया है. आशा है पीढ़ी दर पीढ़ी इनकी रचनाएं गायी जायेंगी. लोक संस्कृति खास कर भोजपुरी की बात करें तो ऐसे तो बहुत सारी हस्तियों ने इस संस्कृति के लिए अपना योगदान किया है, लेकिन जहां तक इन दोनों की बात है. इनका नाम इतिहास पुरुषों में शुमार किया जाता है. अगर इतिहास को भूल कर या छोड़ कर भोजपुरी क्षेत्रों में इस भाषा में गाने वाले गायक, गायिकाओं को श्रोताओं आशीर्वाद मिल जाये, तो यह आश्र्चय होगा. इनको भूलने से आशीर्वाद मिल ही नहीं सकता है. हमारी संस्कृति में किसी भी मांगलिक कार्यो में अपने पुरखों को याद करना हमारा संस्कार है, ठीक वैसे ही भोजपुरी लोक संगीत में इनको याद करना संस्कार है. इन्हें याद करना भी चाहिए.
वर्तमान परंपरा को आप किस रूप में देखते हैं? ये परंपरा पुरानी परंपरा से किस तरह से जुदा हैं?
आज के दौर में बाजारवाद हावी है. संस्कार पीछे छूट गये हैं. इनमें कुछ ऐसे भी कलाकार हैं, जो व्यापार करते हुए भी अपने संस्कार को नहीं भूले हैं. इससे ना पुरखों की और ना ही उनकी प्रतिष्ठा में किसी तरह की कोई कमी आयी है. देखिए, धारा बदलती रहती है. यह प्रकृति का नियम है. अंधकार, प्रकाश दोनों शाश्वत हैं. इसे स्वीकार करना होगा.
मेरा विश्वास है, चाहे आज जिस जगह, ऊंचाई पर हों, घूम फिर कर आपको वापस आना ही होगा. बाजारवाद के चलते गायन को चमक मिल जाती है लेकिन जनमानस की श्रद्धा, स्नेह नहीं मिलता है. ऐसी धाराओं के साथ चलने वाले लोगों को इतिहास भी अपने पास जगह नहीं देता है. बाजारवाद के कारण भोजपुरी या पूरे लोक संगीत पर जो आक्रमण हुए हैं, उसे रोकने के लिए संपूर्ण इलाके को आगे आना होगा. इसमें थोड़ी सी पहल भी हो गयी है. अब आवाज उठने भी लगी है. एक बात और गौर करने वाली है. मीडिया, कुछ अन्य सुविधाओं की वजह से भोजपुरी और अन्य लोक संस्कृति को बड़ा आयाम मिल रहा है. यह बात भी इसी के साथ है कि इन आयामों के साथ ही कुछ लोग रातों रात स्टारडम पाने के लिए पारंपरिक धारा को प्रदूषित कर रहे हैं. इनकी वजह से ग्रामीण क्षेत्रों में संस्कार, संस्कृति गैर भोजपुरी भाषियों की तीखी प्रतिक्रिया आती है. यह भी सच है कि भिखारी ठाकुर, महेंद्र मिसिर, शारदा सिन्हा, विंध्यवासिनी देवी जैसे कलाकारों को अलग मुकाम मिल चुका है. आज के दौर में भी उनका मान सम्मान कम नहीं हुआ है. फिर सवाल यह है कि भोजपुरी भाषी ही अपने संस्कार, सभ्यता को विद्रूप होते देखकर दुख होता है. सभ्यता, कला, लोक संस्कृति में विकास चाहिए, लेकिन अपने गौरवपूर्ण इतिहास, संस्कार और संस्कृति की कीमत पर नहीं.
लोक संस्कृति को लेकर जो दृश्य अभी बन रहा है, उसे निपटने के लिए किस तरह के कदम को उठाने की जरूरत है?
लोक संस्कृति हमारे ग्रामीण जीवन का अटूट हिस्सा है. इसकी उपेक्षा की ही नहीं जा सकती है. लोक संस्कृति और कला जहां भी हैं, चाहे वह अपना राज्य हो या फिर दूसरा कोई राज्य. वहां प्रखंड स्तर से लेकर राज्य स्तर तक ऐसे आयोजनों को करने, उनकी संख्या बढ़ाने की आवश्यकता है. जिससे हमारी संस्कृति को बढ़ावा मिले. बिहार के लोग दूसरे राज्यों में भी हैं, ऐसे में वहां की सरकार को चाहिए कि वह इन लोगों से संपर्क स्थापित कर के ऐसे आयोजनों को बढ़ावा दे. इन आयोजनों में परंपरा के अनुरूप प्रदर्शन हो. जो विकृत धारा के हैं, उन पर सरकारी प्रतिबंध लगाये जाने की जरूरत है. ग्रामीण क्षेत्रों के भी लोगों, श्रोताओं की यह दायित्व होता है कि वह अपने संस्कृति को विकृत ना होने दें. इस धारा को रोकने का प्रयत्न करें. गांव, शहर के स्कूलों, कॉलेज के स्तर से ही इन विषयों पर कार्य करने की जरूरत है.
लोक संस्कृति के अभी के स्वरूप का कारण क्या है? बाजारवाद, सरकारी अनदेखी या कलाकारों को उचित सम्मान नहीं मिलना? कैसे कदम उठाने की जरूरत है, ताकि समृद्ध संस्कृति को और नया मुकाम मिले?
इन कारणों में सबसे पहले बाजारवाद है. पारंपरिक कलाकारों को उचित सम्मान नहीं मिलता है. उनके कार्यक्रमों की संख्या सीमित होती है. इसके लिए नयी पीढ़ी को जागरूक करना होगा. अभी की पीढ़ी यही सोच रही है कि जो हम देख रहे हैं, वह हमारी लोक संस्कृति है. उन्हें यह बताने की जरूरत है कि यह लोक संस्कृति का विकृत रूप है. हमारा अतीत शानदार रहा है. कुछ प्रयास भी करने होंगे.
जिला स्तर पर सरकारी समितियां बनाने की जरूरत है. इसमें संगीत से जुड़े क्षेत्र के लोगों, सामाजिक संगठन के लोगों को जोड़ा जाये. सभी एक मंच पर आकर लोगों को जागरूक करें. प्रखंड स्तर से ही ऐसे आयोजन किये जाये, जहां हमारी संस्कृति का प्रदर्शन हो. इतने काम अगर हो तो स्वाभाविक है, धारा जरूर बदलेगी. ग्रामीण क्षेत्रों के कलाकारों को पारंपरिक कार्य करने के बाद सम्मान दिया जाये. इससे दूर तक संदेश भी जायेगा और लोगों में चेतना भी आयेगी. अभी मीडिया के जरिये ही ग्रामीण क्षेत्रों के कलाकारों को यह जानकारी मिलती है कि शहर में कला के लिए क्या हो रहा है या किसे क्या सम्मान मिला है? उन्हें प्रोत्साहित करने की पुख्ता प्रयास किये जाये. प्रतिभा उनमें भी हैं. उनको भी आगे आने का अवसर मिलना चाहिए. सरकार ‘ युवा महोत्सव ’ का आयोजन करती है. ऐसे आयोजन कलाकारों के लिए बहुत महत्वपूर्ण हो सकते हैं. इनकी संख्या बढ़नी चाहिए. कलाकारों को अगर उचित हक मिले तो बात काफी हद तक बन सकती है. जहां ज्यादा विकृति है, वहीं से शुरुआत करने की जरूरत है. इसका सुखद परिणाम अवश्य मिलेगा. ग्रामीण इलाकों में महिला कलाकारों की भी प्रतिभा पर कोई ऊंगली नहीं उठा सकता है. उनको भी आगे लाने का प्रयास होना चाहिए. इससे कई लाभ मिलेंगे. एक तो लोगों में जनचेतना आयेगी दूसरी महिलाएं भी अपने पैरों पर खड़ी हो सकेंगी.
ब्रजकिशोर दुबे
प्रसिद्ध लोक गायक