
कई मायनों में एक छोटे से इलाक़े गौतमपुरा के सतीश कुमार और सुगंदर एक ही सिक्के के दो पहलू की तरह लगते हैं.
कई लोगों को इस जगह का नाम नहीं पता होगा पर भारत की तकनीक राजधानी बैंगलोर के इस शहर को ”लिटिल ब्राज़ील” के नाम से भी जाना जाता है.
सुगंदर ने साबित किया है कि कैसे शिक्षा और फ़ुटबॉल के क्षेत्र में कुशलता से रोजगार पाया जा सकता है. वह रेलवे के लिए खेलते हैं.
सतीश कुमार की दास्तां बयां करती है कि केवल फ़ुटबॉल किसी का भला नहीं कर सकती और यह क्रिकेट नहीं है.
कुमार ने अपनी आधी ज़िंदगी फ़ुटबॉल ही खेला है. 24 वर्षीय कुमार 15 साल से हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) और मोहन बागान जैसी टीमों के लिए खेल रहे हैं.
मगर चोट के कारण वह मैदान से बाहर हैं. उन्होंने केवल दसवीं तक पढ़ाई की, जिसकी वजह से उन्हें रोज़गार भी नहीं मिला.
‘फ़ुटबॉल, फ़ुटबॉल’
कुमार कहते हैं, ”मेरा ध्यान पढ़ाई पर बिल्कुल भी नहीं था. उस वक्त मेरे दिमाग़ में हर वक़्त एक ही चीज़ चलती थी फ़ुटबॉल, फ़ुटबॉल और फ़ुटबॉल.”

कभी ब्रिटिश सैनिकों का मुख्यालय रहे पूर्वी बैंगलोर के मुख्य हिस्से में बसे इस क्षेत्र में फ़ुटबॉल के लिए दीवानगी है. बुज़ुर्ग अब भी इसे गन ट्रूप के नाम से जानते हैं. यहां अब भी ब्रिटिश ज़माने की आर्टिलरी रोड है.
कुमार कहते हैं, ”कई अच्छे खिलाड़ी हैं, जिन्होंने दसवीं या 12वीं से ज़्यादा पढ़ाई नहीं की है. मुझसे छोटे सभी खिलाड़ियों को मैं पहले पढ़ाई करने और उसके बाद फ़ुटबॉल को प्राथमिकता देने के लिए कहता हूं. अगर आप ऐसा नहीं करेंगे, तो फिर कभी आपको ज़्यादा चोट लग गई और आप घायल हो गए तो आपको नौकरी तक मिल नहीं सकती.”
गौतमपुरा के छोटे से मैदान में छात्रों के खेलने के लिए कुछ खास घंटे का समय तय है.
सुगंदर ने बताया, ”छात्र शाम सात बजे तक खेलते हैं. नौकरीपेशा शाम सात से नौ बजे के बीच खेलते हैं. यहां 18 से ज़्यादा टीमें हैं, जो नियमित रूप से खेलती हैं. हर टीम में सात खिलाड़ी होते हैं.
एक भारतीय फ़ुटबॉलर (1980-1986) रवि कुमार कहते हैं, ”केवल फ़ुटबॉल से आपकी आजीविका नहीं चल सकती. आपको ज़िंदगी चलाने के लिए शिक्षित होने की ज़रूरत है.”
सुगंदर ने यह बात माता-पिता से सीखी. वह कहते हैं, ‘मुझे इसका गर्व है कि मैं गौतमपुरा में पैदा हुआ.”
पेले

यहां के 320 लोगों की तरह ही सुगंदर को भी सरकारी नौकरी मिल गई है. उन्हें रेलवे व्हील फ़ैक्टरी में खेल कोटे से नौकरी मिली.
कुमार कहते हैं, ”मैं पढ़ना चाहता हूं और डिग्री भी पाना चाहता हूं. मेरी उम्र अभी ज़्यादा नहीं है.”
यहां प्रवेश द्वार पर ही महान फ़ुटबॉल खिलाड़ी पेले की प्रतिमा लगी है. पेले के अलावा यह जगह दो अन्य महान शख़्सियतों से भी जुड़ी है – मदर टेरेसा और बीआर अंबेडकर.
आप पूछ सकते हैं कि आख़िर ‘लिटिल ब्राज़ील’ या ‘पेले’ ही क्यों?
रवि कुमार कहते हैं, ”ब्राज़ीलियाई और भारतीय खिलाड़ी फ़ुटबॉल समान तकनीक अपनाते हैं.”
एचएएल की सीनियर डिवीजन में कोच रवि को फुटबॉल तकनीक पर बात करने में कोई हिचक नहीं. हालांकि वह यह भी जोड़ देते हैं, ”फर्क़ सिर्फ़ यह है कि हममें ब्राज़ीलियाई लोगों की तरह ताक़त नहीं है. यही कारण है कि हम फ़ीफ़ा विश्व कप का हिस्सा नहीं बनते.”
सुगंदर कहते हैं, ”हमने भी कन्नन और उलागानाथन जैसे दिग्गज खिलाड़ी दिए हैं. एक वक़्त दोनों ‘एशियाई पेले’ कहे जाते थे.”
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए यहां क्लिक करें. आप हमें फ़ेसबुक और ट्विटर पर भी फ़ॉलो कर सकते हैं.)