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दुनियाभर में खाद्यान्न चुनौती

– ब्रह्मनंद मिश्र – खाद्यान्न की जरूरतों को पूरा करने के लिए वैश्विक स्तर पर कोशिशें हो रही हैं. इसी क्रम में दुनिया में गेहूं उत्पादन में 20 करोड़ टन से ज्यादा की वृद्धि में योगदान देने के लिए भारत में जन्मे वनस्पति वैज्ञानिक डॉ संजय राजाराम को ‘विश्व खाद्य पुरस्कार’ के लिए नामित किया […]

– ब्रह्मनंद मिश्र –

खाद्यान्न की जरूरतों को पूरा करने के लिए वैश्विक स्तर पर कोशिशें हो रही हैं. इसी क्रम में दुनिया में गेहूं उत्पादन में 20 करोड़ टन से ज्यादा की वृद्धि में योगदान देने के लिए भारत में जन्मे वनस्पति वैज्ञानिक डॉ संजय राजाराम को ‘विश्व खाद्य पुरस्कार’ के लिए नामित किया गया है. इन्होंने गेहूं की 480 नयी किस्में विकसित की हैं, जो दुनियाभर के 51 देशों में छोटे व बड़े किसानों द्वारा इस्तेमाल में लायी जा रही है.

इनकी उपलब्धियों को रेखांकित करते हुए आज के नॉलेज में खाद्यान्न उत्पादन की चुनौतियों, डॉ राजाराम के व्यक्तित्व और कृषि क्षेत्र में उनके योगदान के बारे में जानने की कोशिश..

भुखमरी एक ऐसा सच है, जिससे निपटे बिना मानव विकास की कल्पना बेहद मुश्किल है. सदियों की यह चुनौती 21वीं शताब्दी में भी मुंह बाये खड़ी है. प्रत्येक व्यक्ति को रोजाना 2,100 किलो-कैलोरी ऊर्जा आपूर्ति कर पाना दुनिया के कई देशों के लिए मुश्किल ही नहीं, बल्कि एक तरह से असंभव काम है. भूख से निपटने की कवायदें लगातार चल रही हैं.

फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन (एफएओ), वर्ल्ड फूड प्रोग्राम (डब्ल्यूएफपी), वर्ल्ड फूड कन्वेंशन (डब्ल्यूएफसी) और तमाम एनजीओ वैश्विक स्तर पर खाद्यान्न सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए प्रयासरत हैं, लेकिन कामयाबी अभी भी कोसों दूर है. हालांकि, चीन और ब्राजील जैसे देशों ने गरीबी से लड़ने व नागरिकों को भोजन मुहैया करा पाने में काफी हद कामयाबी हासिल की है. भारत में खाद्यान्न आपूर्ति को सुनिश्चित करने के लिए 1997 में सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस सिस्टम) की शुरुआत की गयी. कुप्रबंधन की वजह से यह योजना अव्यवस्थाओं की भेंट चढ़ गयी.

भुखमरी की वजहें

दुनिया की सात अरब आबादी का पेट भरने के लिए हमारी धरती पर्याप्त अनाज पैदा करती है. इसके बावजूद हर रात आठ में से एक बच्चे को भूखे पेट सोना पड़ता है. कुछ विकासशील देशों में तो हर तीसरा बच्च कु पोषण की चपेट में है. आखिर क्या कारण है इस बदनसीबी का? यह बात हर उस व्यक्ति के दिमाग में आती है, जो भुखमरी से निजात पाने के लिए लगातार प्रयासरत है. पहला कारण है गरीबी, जिसकी वजह से परिवार अपने लिए और बच्चों के लिए पोषणयुक्त भोजन की व्यवस्था नहीं कर पाते. इस वजह से गरीबी और भुखमरी के दल-दल से बाहर नहीं निकल पाते. ऐसे परिवारों के बच्चे कुपोषित होने के कारण भविष्य की चुनौतियों से लड़ने में सक्षम नहीं हो पाते.

विकासशील देशों में छोटे किसानों और मजदूर तबकों के लिए जीवन-यापन बहुत मुश्किल है. ऐसे किसानों को अच्छे बीज, उर्वरक, सिंचाई और कृषि यंत्रों की समुचित व्यवस्था नहीं हो पाने के कारण दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. दूसरी समस्या, कृषि क्षेत्र में निवेश की कमी से जुड़ी है. ज्यादातर विकासशील देशों में कृषि की ढांचागत व्यवस्थाएं, सिंचाई आदि का इंतजाम नहीं है. खाद्यान्न भंडारण, यातायात जैसी सुविधाओं के नहीं होने से भी इस व्यवस्था में सुधार नहीं हो पा रहा है. यूनाइटेड नेशंस फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन की एक शोध के मुताबिक, किसी अन्य क्षेत्र में निवेश में बजाय अगर कृषि में निवेश का स्तर बढ़ाया जाये, तो पांच गुना बेहतर परिणाम हासिल किया जा सकता है.

जलवायु, विस्थापन की समस्या

प्राकृतिक आपदाएं जैसे बाढ़, चक्रवात और लंबे समय तक रहने वाला सूखा विकासशील देशों के लिए सबसे बड़ी समस्या बन कर सामने आते हैं. जलवायु में होने वाले परिवर्तनों की वजह से गरीबी उन्मूलन और भुखमरी से निपटने में दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. इनमें सूखे जैसी समस्या से तो दुनिया के कई देश प्रभावित होते हैं. वर्ष 2011 में भयंकर सूखे के कारण इथोपिया, सोमालिया और कीनिया में जबरदस्त खाद्यान्न संकट उत्पन्न हो गया था. कुछ ऐसी ही स्थिति 2012 में पश्चिमी अफ्रीका के साहेल क्षेत्र में देखने में आयी थी.

ज्यादातर देशों में जलवायु परिवर्तन सामान्य प्रक्रिया और खाद्यान्न उत्पादन को बुरी तरह से प्रभावित कर देता है.भू-क्षरण और मरुस्थलीयकरण जैसी समस्याओं के कारण दुनियाभर में उपजाऊ भूमि का दायरा कम होते जाना चिंताजनक है. इसके अलावा, वनों की कटाई के कारण भी भू-क्षरण और जलवायु विसंगतियां आ रही हैं.

कई देशों में युद्ध विस्थापन भी कृषि और अनाज उत्पादन को प्रभावित कर रहा है. खेती-किसानी में लगे करोड़ों लोग ऐसी विषम परिस्थितियों में विस्थापित हो जाते हैं. सीरिया जैसे कई देशों में इमरजेंसी जैसे हालात में खाद्यान्न सुरक्षा सुनिश्चित कर पाना आसान नहीं है. देखा गया है कि युद्ध के दौरान विद्रोहियों द्वारा खाद्यान्नों को भी हथियार बना लिया जाता है. विरोधी सैनिकों द्वारा कई बार अनाज भंडारों पर कब्जा कर लिया जाता है और खाद्यान्नों को नष्ट कर दिया जाता है.

खाद्य क्षति व बेकाबू बाजार

दुनियाभर में जितना खाद्यान्न (1.3 बिलियन टन) उत्पादित किया जाता है, उसका लगभग एक-तिहाई उपयोग में नहीं आ पाता है यानी यह किसी न किसी रूप में बरबाद हो जाता है. इसकी कई वजहें हैं. भंडारण, अन्न संरक्षण, समुचित वितरण प्रणाली का अभाव, अनाज ढुलाई में होने वाली बरबादी इसके प्रमुख कारणों में गिने जा सकते हैं. यह दुखद है कि समुचित वितरण की इस नाकामी की ही वजह से दुनिया में आठ में से एक आदमी को भूखा रहना पड़ता है.

खाद्यान्नों को उत्पादित करने के लिए प्रकृति के बेशकीमती स्नेतों का दोहन किया जाता है. इसके उत्पादन में 3.3 बिलियन टन ग्रीन हाउस गैसों का उत्सजर्न होता है, जो पर्यावरण के लिए बेहद खतरनाक है. ग्रीन हाउस गैसों के दुष्प्रभाव को कम करने के लिए दुनियाभर में कई कदम उठाये गये हैं और इसके लिए काफी खर्च किया जा रहा है.

खाद्यान्न कार्यक्रम में लगे देश

दुनियाभर में कई देश भुखमरी और गरीबी से निजात पाने के लिए खाद्यान्न कार्यक्रम चला रहे हैं. चीन और ब्राजील ने अपने यहां खाद्यान्न कार्यक्रमों में अपेक्षित सफलता हासिल की है. खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए चीन ने अपनी कृषि नीति में बदलाव करते हुए निवेश और उद्यमिता के दायरे को बढ़ाया और गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम में सफलता प्राप्त की. खासकर अनाज के बाजारों को चीन ने नियंत्रित कर लिया. तकनीकी स्तर पर हुए अच्छे काम की ही वजह से उत्पादन में बढ़ोतरी हुई.

दूसरा उदाहरण ब्राजील का है. ब्राजील ने राजनीतिक इच्छा शक्ति दिखाते हुए अपने यहां भुखमरी से निपटने के लिए तेजी से ‘जीरो हंगर प्रोग्राम’ को आगे बढ़ाया और इसके बेहतर नतीजे भी सामने आये. जीरो हंगर प्रोग्राम को कामयाब बनाने के लिए ब्राजील के राष्ट्रपति लूला द सिल्वा ने दिसंबर, 2002 में यूएन के फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन की सहयोगी एजेंसियों को ब्राजील में आमंत्रित किया था. इसके अलावा ‘बोल्सा फेमलिया’ कार्यक्रम के तहत कंडीशनल कैश ट्रांसफर योजना में भी ब्राजील ने सफलता हासिल की.

यूएन का पारिवारिक कृषि वर्ष

यूनाइटेड नेशंस फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन वर्ष 2014 को अंतरराष्ट्रीय पारिवारिक कृषि वर्ष के रूप में मना रहा है. इसके तहत वैश्विक स्तर पर फैमिली फार्मिग से गरीबी, भुखमरी, खाद्य सुरक्षा, पर्यावरण संरक्षण, प्राकृतिक स्नेतों का समुचित प्रबंधन और दूर-दराज इलाकों में विकास के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है.

एफएओ की क्या हैं योजनाएं

वर्ष 2014 के बहुत पहले से ही यूएन फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन परिवारों और छोटे किसानों के साथ काम कर रहा है और उन्हें उन्नत तकनीक आदि के लिए जागरूक कर रहा है. फैमिली फार्मिग की योजना को बेहतर बनाने के लिए एफएओ विभिन्न देशों की सरकारों और स्थानीय संस्थाओं के साथ काम कर रहा है. फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन (एफएओ) बोलोविया और कोलंबिया में छोटे किसानों को आजीवका के लिए जद्दोजहद को आसान बनाने के लिए उनकी मदद कर रहा है. सामुदायिक स्तर पर आपदा प्रबंधन के तौर-तरीकों के बारे में छोटे-मोटे किसानों को जागरूक किया जा रहा है.

डॉ राजाराम : 20 करोड़ टन अधिक गेहूं की पैदावार के सूत्रधार

प्रसिद्ध वनस्पति विज्ञानी डॉ संजय राजाराम का जन्म भारत में हुआ और वह मेक्सिको के नागरिक हैं. वर्ष 2014 के विश्व खाद्य पुरस्कार के लिए उन्हें नामित किया गया है. हरित क्रांति के बाद गेहूं उत्पादन में वैश्विक स्तर पर 20 करोड़ टन उत्पादन बढ़ाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है. गेहूं उत्पादन की तकनीक से विश्व स्तर पर पोषक युक्त खाद्यान्न की आपूर्ति और भुखमरी से निपटने में काफी मदद मिलेगी. डॉ राजाराम ने सीआइएमएमवाइटी (इंटरनेशनल मेज एंड व्हीट इम्प्रूवमेंट सेंटर) के डॉ नॉरमन बोरलॉग के गेहूं उत्पादन कार्यक्रम को आगे बढ़ाया और गेहूं की 480 नयी किस्में विकसित की, जो दुनियाभर के 51 देशों में छोटे व बड़े किसानों द्वारा इस्तेमाल में लायी जा रही है.

बेमिसाल उपलब्धि

विश्व खाद्य पुरस्कार इस बार कई मायनों में महत्वपूर्ण है. वर्ल्ड फूड प्राइज फाउंडेशन अपने मार्गदर्शक डॉ नॉरमन बोरलॉग का जन्म-शताब्दी वर्ष और संयुक्त राष्ट्र खाद्यान्न व कृषि संगठन का पारिवारिक कृषि वर्ष के रूप में मना रहा है. यह संयोग है कि डॉ संजय राजाराम के सराहनीय योगदान की वजह से दुनियाभर के किसान और उपभोक्ता लाभान्वित हो रहे हैं. डॉ राजाराम ने शीतकालीन व बसंतकालीन गेहूं की प्रजातियों का संकरण कराया, जो सैकड़ों वर्षो से अलग-अलग जीन पूल में रखी गयी हैं. इससे तैयार पौधे से दुनियाभर के विभिन्न जलवायु में अच्छी पैदावार प्राप्त की गयी.

बनता गया नेटवर्क

विकासशील देशों में तकनीक और ज्ञान को आपस में साझा करने से मिल रही कामयाबी से प्रभावित होकर राजाराम ने ग्लोबल साइंटिफिक व्हीट नेटवर्क तैयार कर दिया. इसके माध्यम से शोधकर्ताओं के बीच आनुवांशिकी स्नेतों, सूचनाओं और आविष्कारों को साझा करने का सिलसिला शुरू हो गया, जो इससे पहले कभी संभव नहीं हो सका था. इसी वजह से तेजी से बढ़ रही जनसंख्या के लिए गेहूं उत्पादन में बढ़ोतरी कर गरीबों के लिए पोषणयुक्त भोजन की व्यवस्था करने का प्रयास संभव हुआ.

शुरुआती जीवन और शिक्षा

डॉ संजय राजाराम का जन्म 1943 में उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले के एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था. आपको यह जान कर शायद आश्चर्य हो सकता है कि इनका परिवार महज पांच हेक्टेयर कृषि भूमि पर आर्थिक रूप से निर्भर था. इन खेतों में गेहूं, धान आदि फसलों की खेती होती थी. बचपन से ही संजय में देश-दुनिया को देखने और जानने की जबरदस्त ललक थी. उन्हें अपनी प्राथमिक शिक्षा हासिल करने के लिए रोजाना पांच किलोमीटर पैदल चलना पड़ता था. उस समय देहात क्षेत्रों में 96 फीसदी आबादी अशिक्षित थी. हजारों गांवों और सिटी स्कूलों वाले वाराणसी में उन्होंने जिला स्तर पर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया. स्टेट स्कॉलरशिप पर उन्होंने हाइस्कूल पास करने के बाद 1962 में गोरखपुर विश्वविद्यालय के जौपुर कॉलेज से कृषि विज्ञान में बीएस की डिग्री हासिल की.

डॉ एमएस स्वामीनाथन के मार्गदर्शन में उन्होंने भारतीय कृषि अनुसंधान शोध संस्थान, नयी दिल्ली से 1964 में पोस्टग्रेजुएट किया. यूनिवर्सिटी ऑफ सिडनी से पीएचडी के लिए रोटरी क्लब की स्कॉलरशिप पर ऑस्ट्रेलिया चले गये. उनके प्रोफेसर और मार्गदर्शक डॉ आइए वॉटसन ने उन्हें ‘इंटरनेशनल मेज एंड व्हीट इंप्रूवमेंट सेंटर’ में डॉ बोरलॉग और डॉ ग्लेन एंडरसन के साथ काम करने की सलाह दी, जिसकी वजह से गेहूं पर शोध के क्षेत्र में उन्होंने बेमिसाल उपलब्धियां हासिल की.

अथक प्रयासों से मिला परिणाम

राजाराम ने बोरलॉग के मार्गदर्शन में गेहूं की नयी किस्मों को विकसित किया. यह दौर गेहूं उत्पादन के लिए गोल्डेन पीरियड माना जाता है. 1980-90 के दशक में राजाराम ने बोरलॉग की तरह विभिन्न किस्मों के संकरण से अपेक्षित परिणाम हासिल किया. दुनियाभर में 58 मिलियन हेक्टेयर से अधिक कृषि भूमि पर इन किस्मों का सफल उत्पादन हुआ. इन किस्मों से विश्व के अलग-अलग भौगोलिक और जलवायु वाले क्षेत्र में बेहतर उत्पादन हासिल हुई. उनके अथक प्रयासों का ही नतीजा है कि भोजन में सबसे ज्यादा कैलोरी और प्रोटीन के स्नेत के रूप में गेहूं आज दुनिया में करोड़ों लोगों की क्षुधा को शांत कर रहा है. तेजी से बढ़े उत्पादन की वजह से राजाराम द्वारा विकसित की गयी गेहूं की किस्में पाकिस्तान और चीन के दूर-दराज इलाकों में भी छोटे-मोटे किसानों द्वारा इस्तेमाल में लायी जा रही है.

अहम यह कि एल्युमिनियम को सहने वाली गेहूं की किस्में ब्राजील की अम्लीय मिट्टी में भी अच्छा उत्पादन दे रही हैं. गेहूं में लगने वाले गेरूआ जैसे रोग, जो दुनियाभर में गेहूं उत्पादन को प्रभावित करते हैं, उनकी प्रतिरोधक किस्में भी विकसित की गयीं. इन प्रतिरोधक किस्मों को विकसित किये जाने की वजह से दुनियाभर में गेहूं की पैदावार में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई.

सौ से ज्यादा देशों में गेहूं की खेती

गेहूं एक ऐसा अनाज है जो प्रचुर मात्र में पोषकतत्व होने की वजह से पूरे विश्व में भोज्य पदार्थ के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. चावल, गेहूं और मक्का आदि को स्थायी अनाज कहा जाता है. अन्य फसलों की तुलना में गेहूं का उत्पादन अपेक्षाकृत कम दिनों और बड़े पैमाने पर किया जा सकता है.

गेहूं दुनियाभर में इस्तेमाल में लाया जाता है. इसका उत्पादन अधिक ऊंचाई, ठंडे इलाकों सहित विश्व के किसी भी जलवायु में किया जा सकता है. इसका भंडारण आसान है और विभिन्न खाद्य पदार्थो के रूप में इसे इस्तेमाल में लाया जाता है. कैलोरी और प्रोटीन युक्त भोजन के लिए 100 से अधिक देशों में साढ़े चार बिलियन से अधिक लोग गेहूं को भोजन के रूप में प्रयोग में लाते हैं. चीन और भारत में सबसे अधिक गेहूं का उत्पादन होता है. विश्व बैंक के अनुमान के मुताबिक, 2050 तक 9.6 बिलियन जनसंख्या के लिए 60 प्रतिशत अधिक गेहूं उत्पादन की जरूरत पड़ेगी. विश्व स्तर पर 240 मिलियन हेक्टेयर में गेहूं का उत्पादन किया जाता है, जोकि अन्य फसलों के मुकाबले काफी अधिक है. 80 प्रतिशत भूमि विकासशील देशों में है, जो गेहूं उत्पादन की भूमि है.

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