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जायके का संकल्प

जब कभी हम पार्टी वगैरह करते हैं या किसी खास मौके पर कहीं जाते हैं, तो अक्सर गैर पारंपरिक खाना ही पसंद करते हैं. हालांकि, हम पारंपरिक पकवानों में बहुत कुछ नया कर सकते हैं. इसी बारे में बता रहे हैं व्यंजनों के माहिर प्रोफेसर पुष्पेश पंत… नये साल में नया कुछ करने को मन […]

जब कभी हम पार्टी वगैरह करते हैं या किसी खास मौके पर कहीं जाते हैं, तो अक्सर गैर पारंपरिक खाना ही पसंद करते हैं. हालांकि, हम पारंपरिक पकवानों में बहुत कुछ नया कर सकते हैं. इसी बारे में बता रहे हैं व्यंजनों के माहिर प्रोफेसर पुष्पेश पंत…
नये साल में नया कुछ करने को मन अकुलाता है, तो फिर खान-पान के मामले में ही हिचकिचाहट क्यों हो? इसका सबसे बड़ा कारण उन व्यंजनों से आजमायी दोस्ती बरकरार रखने की ख्वाहिश ही लगती है, जो मौसम के साथ बदलती नहीं.
मसलन, आप भोजनालयों का मेनू उठाकर पलट लें, तो आपको वही दो अदद दालें नजर आयेंगी-काली और पीली. काली यानी साबुत माह की मखनी और पीली अर्थात तड़का या दाल फ्राई. अब कौन बहस करे कि कौन-सी पीली दाल पेश की जायेगी- अरहर, धुली मूंग, मलका-मसूर, धुली उड़द या चना? पनीर तो सब्जियों का सफाया कब का कर चुका है.
आधा दर्जन पनीर व्यंजनों के बीच लंका में अकेले विभीषण की तरह ‘मिक्स्ड वेज’ एक सजा काटती हुई चीज लगती है. मांस, मुर्गे, मछली आदि भी कड़ाही, मसाला आदि विशेषणों से अलग दिखाये जाते हैं, परंतु पकाने-खानेवालों को शोरबा मुर्ग-मखनी वाला या मीट मसाला वाला ही रास आता है.
तुर्रा यह कि हम तो बहुत-कुछ खिलाना चाहते हैं. होटल वाले करें क्या, ग्राहक भी यही ऑर्डर करते हैं! यह हाल सिर्फ हिंदुस्तानी खाने का ही नहीं है. चीनी, इतालवी, थाई, कांटीनेंटल आदि आप जो नाम लें, वह स्थानीय जायके के अनुसार ही तैयार किया जाता है. तथाकथित मुगलिया और तंदूरी का साम्राज्य देशभर में फैल चुका है. रही-सही कसर उडुप्पी के भोजनालयों ने पूरी कर डाली है. दक्षिण भारतीय टिफिन के आइटम भोजन का पर्याय या विकल्प बन चुके हैं.
अखिल भारतीय बाजार पर अपना कब्जा करने की रणनीति अपनानेवाली बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों ने भी स्वाद का विनाशकारी भूमंडलीकरण कर डाला है. बर्गर, पित्जा अपना चोला बदल भारत की संतान बनने के अभियान में जुटे हैं.
हम इन बातों की ओर अपने पाठकों का ध्यान दिलाना इसलिए परमावश्यक समझते हैं, क्योंकि हमारा खान-पान न केवल हमारी सांस्कृतिक पहचान का अभिन्न अंग है, वरन हमारी सेहत के साथ भी जुड़ा है. जायके के लालच में हम एक खतरनाक दलदल में फंसते-धंसते जा रहे हैं. अब वक्त आ गया है कि हम ठंडे दिमाग से सोचें कि जो कुछ हमें परोसा जा रहा है, वह वास्तव में कितना पारंपरिक है? क्या वाकई शादी की दावतों और भोजनालयों के खाने को ऐसा भरोसेमंद पुराना दोस्त माना जा सकता है, जिसे कभी छोड़ा ही नहीं जा सकता?
अगर हम समय रहते नहीं चेते, तो न केवल अपनी उस अनमोल विरासत को गंवा देंगे, जो अद्भुत विविधता को प्रिबिंबित करती है, बल्कि झटपट कचरा खाने (फास्ट जंक फूड) के नशेड़ी सरीखे आदी बन अपनी जान का जोखिम भी बढ़ायेंगे.
इसलिए नव वर्ष की अगवानी करने के साथ हम यह संकल्प करें कि इस साल ‘पुराने’ परिचित से ही चिपके नहीं रहेंगे. कुछ नया जरूर आजमायेंगे. नये को विदेशी का पर्याय न समझें. अपने देश में ही नया आजमाने को बहुत कुछ है. व्यावसायिक फूड फेस्टिवलों ने यह गलतफहमी फैलायी है कि अवध, हैदराबाद या कश्मीर और केरल को छोड़ कहीं बेहतरीन खान-पान की विरासत है ही नहीं. बहुत हुआ तो राजस्थान के राजपरिवारों के मनगढ़ंत मेनू फिरंगी पर्यटक को मूंड़ने के काम लाये जाते हैं.
गनीमत है कि अपनी जड़ों की तलाश में जुटी देश की नौजवान पीढ़ी ने बिहारी, पूर्वोत्तरी एवं अनेक भाषाई आधार पर गठित राज्यों के उपक्षेत्रों तथा छोटे-छोटे समुदायों के खानदान में हम सभी की दिलचस्पी बढ़ायी है. काठियावाड़ी, सूरती, मालवानी, कोंकणी, कोल्हापुरी का अंतर लोग समझने लगे हैं. दिल्ली में सिक्किम, लद्दाख के मोमो ने कबाब को पछाड़ दिया है. इसका तंदूरी अवतार भी आ चुका है. बिहारी-पू्र्वांचली ही नहीं अन्य राज्यों के प्रवासियों को भी लिट्टी चोखा रिझाते हैं.
नया साल आपके लिए सपरिवार मंगलमय हो!

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