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क्या अब इराक़ टूट जाएगा?

ज़ुबैर अहमद बीबीसी संवाददाता, नई दिल्ली मेसोपोटामिया जैसी प्राचीन सभ्यता का उद्गम स्थल इराक़ आज मारकाट, दहशत और हिंसा राज में बदल चुका है. इसके प्राचीन शहर कर्बला में 7वीं शताब्दी (680) में हुए शियाओं के क़त्लेआम को आज के शिया हर साल आशूरा के नाम से याद करके मातम करते हैं. लेकिन इन दिनों […]

मेसोपोटामिया जैसी प्राचीन सभ्यता का उद्गम स्थल इराक़ आज मारकाट, दहशत और हिंसा राज में बदल चुका है.

इसके प्राचीन शहर कर्बला में 7वीं शताब्दी (680) में हुए शियाओं के क़त्लेआम को आज के शिया हर साल आशूरा के नाम से याद करके मातम करते हैं. लेकिन इन दिनों कर्बला जैसे कांड लगभग रोज़ हो रहे हैं. इराक़ में अराजकता का दौर जारी है.

इराक़ आज तबाही और बिखराव के मुहाने पर खड़ा है. सुन्नी चरमपंथियों ने शिया बहुसंख्यक वाली इराक़ी सरकार के कई शहरों को अपने क़ब्ज़े में कर लिया है और इसके सैकड़ों सैनिकों को मौत के घाट उतारने का दावा किया है.

अमरीकी मदद

जंग जारी है. मारकाट रोज़ हो रहा है, लेकिन अमरीका अब तक इस सोच में डूबा है कि इराक़ी सरकार की किस तरह से मदद की जाए. पश्चिमी देश खामोश हैं.

इराक़ की मदद करने को ईरान तैयार

विडंबना है कि आज अगर कोई देश इराक़ को टूटने से बचा सकता है, तो वह है इसका पड़ोसी देश ईरान, जिसके विरुद्ध सद्दाम हुसैन के इराक़ ने 10 साल तक युद्ध लड़ा था.

विडंबना यह भी है कि जिस ईरान पर अमरीका हमेशा क्षेत्र के शिया चरमपंथियों को स्पॉन्सर करने का इल्ज़ाम लगाता आया है और जिसे एक दुष्ट देश कहता आया है आज इराक़ में बीच-बचाव के लिए उसकी भूमिका के लिए तैयार नज़र आता है.

ख़बर यह है कि इराक़ में सुन्नी विद्रोहियों द्वारा शिया बहुमत वाली सरकार को रौंदने से बचाने का ज़िम्मा ईरान ने उठा लिया है. अमरीका को यह काफ़ी नागवार गुज़रा होगा, लेकिन इसके अलावा कोई चारा नहीं है.

इसलिए उसने अपना मुंह मोड़ लिया है. यानी ईरान की बग़दाद में भूमिका की अनदेखी कर दी है. ख़बर यह भी है कि बग़दाद की रक्षा और मोसूल और तिकरीत को सुन्नी विद्रोहियों से वापस लेने के लिए ईरान ने इराक़ी सरकार की मदद शुरू कर दी है. इस जोख़िम भरे काम के लिए ईरान ने अपने रिवॉल्यूशनरी गार्ड के विशेष सैन्य बल अल-कूद्ज़ यूनिट को बग़दाद भेजा है.

इस यूनिट का नेतृत्व ब्रिगेडियर जनरल क़ासिम सुलेमानी कर रहे हैं. यह वही फ़ौजी जनरल हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद की सुन्नी चरमपंथियों के ख़िलाफ़ लड़ाई में मदद की, जिसके फलस्वरूप सीरिया की शिया बहुमत वाली सरकारी फ़ौज ने कई शहरों पर दोबारा क़ब्ज़ा कर लिया.

ईरान की चिंता

इसके बाद से इस फ़ौजी अफ़सर का महत्व इतना बढ़ा कि वह इराक़ के शिया प्रधानमंत्री नूरी अल मलिकी के ग़ैर सरकारी सलाहकार से बन गए.

अब देखना है कि उनकी भूमिका क्या रंग लाती है. लेकिन मालूम होता है कि इराक़ में बनी स्थिति से ईरान काफ़ी चिंतित है. सुन्नी विद्रोहियों ने न केवल कई शहरों पर क़ब्ज़ा कर लिया है बल्कि सैंकड़ों शिया नागरिकों और फ़ौजियों की कथित तौर पर बेरहमी से हत्या भी कर दी है. ईरान ने इस पर कड़ी प्रतिक्रिया जताई है.

इराक़ः शिया धर्मगुरु की हथियार उठाने की अपील

मगर ईरान दो कारणों से इराक़ी सरकार की मदद के लिए मैदान में कूदा है. एक तो यह कि इराक़ पर वह अपना असर खोना नहीं चाहता. दूसरे, कर्बला समेत शियाओं के अधिकतर धार्मिक और मुक़द्दस स्थान इराक़ में हैं और उनकी सुरक्षा ईरान अपना धार्मिक कर्तव्य समझता है. ईरान ने सुन्नी विद्रोहियों को पहले ही धमकी दे रखी है कि शिया धर्मस्थलों को नुक़सान पहुंचाने वालों को बख़्शा नहीं जाएगा.

देखना यह है कि ईरान की भूमिका से इराक़ी सरकार सुन्नी विद्रोहियों को कुचल पाती है या नहीं. इराक़ के अंदर लोगों की राय यह है कि अगर जंग रुक भी गई और विद्रोही पीछे भी धकेल दिए गए, तो देश का विभाजन होना असंभव नहीं.

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