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सेहत के लिए गांधीवादी आहार
जब गांधीजी की रुचि प्राकृतिक चिकित्सा में बढ़ी, तो उन्होंने बिना मिलावट वाले, कुदरती स्वाद और गुणों को बरकरार रखनेवाले संतुलित आहार की महिमा समझी. दक्षिण अफ्रीका में फीनिक्स फार्म का प्रयोग उनकी इसी पद्धति का अनुसरण था, जो आज ‘ऑर्गेनिक’ कृषि कहलाती है. गांधी द्वारा अपनाये गये सात्विक भोजन ‘गांधीवादी आहार’ के बारे में […]
जब गांधीजी की रुचि प्राकृतिक चिकित्सा में बढ़ी, तो उन्होंने बिना मिलावट वाले, कुदरती स्वाद और गुणों को बरकरार रखनेवाले संतुलित आहार की महिमा समझी. दक्षिण अफ्रीका में फीनिक्स फार्म का प्रयोग उनकी इसी पद्धति का अनुसरण था, जो आज ‘ऑर्गेनिक’ कृषि कहलाती है. गांधी द्वारा अपनाये गये सात्विक भोजन ‘गांधीवादी आहार’ के बारे में बता रहे हैं व्यंजनों के माहिर प्रोफेसर पुष्पेश पंत…
यह वर्ष हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 150वीं जयंती के पर्व के रूप में मनाया जा रहा है और यह स्वाभाविक ही है कि हमारा ध्यान बारंबार इस महापुरुष के जीवन, कर्म और चिंतन की ओर आकर्षित होगा, किया जायेगा. इसलिए हमें अनायास इस समय बापू के खान-पान और भोजन संबंधी उनके जीवन दर्शन का स्मरण हो रहा है. इस संबंध में अपने प्रिय पाठकों के साथ कुछ विशेष जानकारी साझा करने के लिए मेरा मन अकुला रहा है.
गांधीजी अहिंसा के पुजारी थे और कट्टर शाकाहारी थे. अपने जीवन में उन्होंने इतने उपवास रखे कि यदि कुल दिनों का हिसाब करें, तो जोड़ महीनों तक क्या, साल तक जा पहुंचे. इसी कारण कुछ लोगों को गलतफहमी है कि गांधी की दिलचस्पी खाने में नहीं थी.
कई लोगों को यह भी लगता है कि वह सनकी थे- मसलन सिर्फ काली बकरी का दूध पीते थे तथा कच्ची हरी सब्जियां, मौसमी फल, मेवे और खजूर से ही काम चला लेते थे. बहुत हुआ तो मोटे अनाज का अल्पाहार, आश्रमवासियों के हाथ से कूटा-पीसा खाने को मिलता था. साबरमती में कस्तूरबा की अलग रसोई थी, जो सात्विक तो थी, परंतु महात्मा के आहार के कट्टरपंथी अनुशासन से संचालित नहीं होती थी.
हकीकत यह है कि अपने इंग्लैंड में बिताये छात्र जीवन से ही गांधीजी ने सत्य के साथ-साथ भोजन के साथ भी प्रयोग आरंभ कर दिया था. यहीं पर वह शाकाहार आंदोलन से जुड़े. वैसे भी उनका परिवार एक शाकाहारी वैश्य परिवार था.
उनकी रुचि प्राकृतिक चिकित्सा में बढ़ी और उन्होंने बिना मिलावट वाले, कुदरती स्वाद और गुणों को बरकरार रखनेवाले संतुलित आहार की महिमा समझी. दक्षिण अफ्रीका में फीनिक्स फार्म का प्रयोग उस पद्धति का ही अनुसरण था, जो आज ‘ऑर्गेनिक’ कृषि कहलाती है. सौ साल पहले ही गांधी अपने अनुयायियों को उस भोजन के गुणों से परिचित करा रहे थे, जिसे आज ‘सस्टेनेबल’ तथा छोटे किसान की जीविका को निरापद रखने के लिए अनिवार्य माना जा रहा है. कंद, मूल, फल को सर्वश्रेष्ठ समझनेवाले बापू का ‘गांधीवादी’ आहार आज आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की कसौटी पर खरा उतर चुका है.
गांधी इस बात पर जोर देते थे कि हमें अपनी जरूरत से अधिक किसी भी उत्पाद के उपयोग का अधिकार नहीं है और न ही उपभोगवादी विलासिता का हमें कोई अधिकार है. किसी भी हाल में अन्न की बरबादी बापू को असह्य थी.
हमारे लिए यह समझना परमावश्यक है कि सात्विक भोजन का अर्थ नीरस या बेस्वाद खाना नहीं है.साल 1936 में जब सुभाष बाबू कारावास में थे, तो उनके स्वास्थ्य के बारे में चिंतित गांधी ने एक चिट्ठी में उनके खान-पान का विस्तृत नुस्खा लिख भेजा था, जिसमें पोषण के साथ-साथ स्वाद का संतुलन बिठानेवाला का प्रयास था.
ग्रामीण हस्तशिल्प और कुटीर उद्योगों के संरक्षण के साथ दशकों से जुड़े राजीव सेठी ने अपनी संस्था ‘एशियन हेरिटेज फाउंडेशन’ के तत्वावधान में एक अनोखे प्रीतिभोज का आयोजन किया, जिसमें इन पंक्तियों के लेखक ने हाथ बंटाया. वहां पर परोसे व्यंजनों के जरिये गांधी की जीवनी प्रस्तुत की गयी. गुजराती दाल ढोकली से लेकर ‘विलायती’ बकरी के दूध से बनी पनीर, हरी पत्तियों के सलाद के साथ-साथ बाजरे की खिचड़ी पत्तल में शामिल किये गये.
चंपारण की याद दिलानेवाला बिहार-झारखंड का मोरिंगा तथा कलकत्ता वाले उपवास का बखान करती गंधराज नींबू शिकंजी भी थी. कौसानी में, जहां बापू ने गीता की अनासक्ति योग टीका लिखी थी, की याद दिलाने कुमाऊंनी छोलिया रोटी भी मौजूद थी, तो मिठास के लिए खजूर भी.
कुल मिलाकर देखें, तो गांधीवादी आहार का सबसे महत्वपूर्ण संदेश था जैविक विविधता को निरापद रखने का और जीवित रहने के लिए खाने का तथा खाने के लिए जीवित रहने के लालच से बचने का!
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