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भूटान यात्रा से देंगे दुनिया को संदेश

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस फैसले पर बहुत-से लोगों को हैरानी भी हुई होगी कि उन्होंने अपनी विदेश यात्रा के पहले पड़ाव के रूप में चीन, जापान या अमेरिका जैसे प्रमुख देशों को न चुन कर एक छोटे से पड़ोसी देश भूटान को चुना है, लेकिन उनके इस फैसले का संदेश साफ है कि भारत […]

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस फैसले पर बहुत-से लोगों को हैरानी भी हुई होगी कि उन्होंने अपनी विदेश यात्रा के पहले पड़ाव के रूप में चीन, जापान या अमेरिका जैसे प्रमुख देशों को न चुन कर एक छोटे से पड़ोसी देश भूटान को चुना है, लेकिन उनके इस फैसले का संदेश साफ है कि भारत सबसे पहले अपने पड़ोसी देशों के साथ अच्छे संबंध स्थापित करना चाहता है. इस फैसले के विभिन्न कूटनीतिक आयामों के साथ-साथ भारत की सामरिक, विदेश नीति और व्यापार के लिहाज से भूटान के साथ संबंधों की अहमियत पर नजर डाल रहा है आज का नॉलेज.

डॉ रहीस सिंह

विदेश मामलों के जानकार
भारत दुनिया के उन देशों में से एक है, जो समस्याओं से ग्रस्त पड़ोसी देशों से घिरा है. भारत के ज्यादातर पड़ोसी देश भारत के साथ अच्छे पड़ोसी या सही अर्थो में मित्र जैसा व्यवहार करते नहीं दिख रहे, जबकि किसी देश की शांतिपूर्ण प्रगति के लिए आवश्यक होता है कि पड़ोसियों के साथ उसके संबंध मैत्रीपूर्ण रहें. हालांकि भूटान अब तक इसका अपवाद रहा है और भारत के प्रति उसका रवैया हमेशा से ही मित्रता का बना रहा है. हालांकि कभी-कभी कुछ सामान्य मुद्दों को लेकर मतवैभिन्य दिखा, लेकिन दोनों के बीच गहन मतभेदों अथवा संघर्ष जैसी स्थिति कभी नहीं आयी.

भूटान के भारत के प्रति इस दृष्टिकोण के मद्देनजर ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी विदेश यात्रा की शुरुआत भूटान से करने का फैसला लिया है. भारत की विदेश नीति के लिहाज से यह फैसला महत्वपूर्ण है. उनके इस फैसले से बहुत से लोगों को आश्चर्य हुआ है, कि उन्होंने अमेरिका, चीन, रूस या किसी यूरोपीय देश की बजाय एक छोटे से और बहुत हद तक प्रभावहीन देश को अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए चुना. लेकिन इस फैसले के कई अन्य उद्देश्य और आयाम हैं, जिन्हें जानने-समझने की जरूरत है.

नरेंद्र मोदी ने ‘ओथ डिप्लोमैसी’ के तहत सार्क प्रमुखों को भारत आने का न्योता देकर ही यह संदेश दे दिया था कि भारत की नयी सरकार अपनी विदेश नीति में अपने छोटे पड़ोसियों को भी बराबर की अहमियत देगी. इसका संकेत भाजपा के घोषणापत्र से भी मिला था, जिसमें कहा गया था कि यदि पार्टी की सरकार बनी तो वह पड़ोसियों से रिश्ते बढ़ाने के लिए पूरे प्रयास करेगी, लेकिन पड़ोसियों को भी भारत की संवदेनशीलताओं का आदर करना होगा.

यह बात महत्वपूर्ण है कि ज्यादातर छोटे पड़ोसी भारत को शंका की दृष्टि से देखते आये हैं. इसका फायदा उठा कर चीन भारत के पड़ोसी देशों में अपनी पैठ बनाने या बढ़ाने में कामयाब होता गया है. इसलिए यह जरूरी है कि पड़ोसी देशों के साथ संबंधों को सुदृढ़ बना कर न केवल चीन की रणनीति का मुकाबला किया जाये, बल्कि पड़ोसी देशों को यह विश्वास भी दिलाया जाये कि भारत उनका शुभचिंतक है और उनके साथ साङोदारी स्थापित कर आगे बढ़ना चाहता है. शायद इसी उद्देश्य के साथ नरेंद्र मोदी ने दक्षिण एशिया के पड़ोसी देशों की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अपनी पारी की शुरुआत की है और फिर अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए भूटान जैसे छोटे देश को चुना.

भारत के लिए भूटान की महत्ता
इससे पहले जब नये प्रधानमंत्री की विदेश यात्रा संबंधी प्राथमिकताओं पर चर्चा हुई थी, तब भी स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संकेत दिया था कि वे अपना पहला विदेश दौरा किसी पड़ोसी देश का ही करना चाहेंगे. हालांकि उस समय भूटान के अतिरिक्त बांग्लादेश और नेपाल के विकल्पों को भी सामने रखा गया था, लेकिन प्रधानमंत्री ने भूटान को ही चुना. भूटान को चुनने के क्या-क्या कारण हो सकते हैं, इस विषय पर विचार करने से पहले भूटान की भौगोलिक स्थिति और उसकी भारत के लिए रणनीतिक महत्ता (बांग्लादेश या नेपाल की तुलना में) पर अवश्य विचार करना चाहिए.

पहला, भूटान एक भू-आबद्ध (लैंड लॉक्ड) देश है, इसलिए वह सामरिक सुरक्षा की दृष्टि से भारत के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है. भारत और चीन के बीच अवस्थित होने के कारण भूटान ज्यादा महत्वपूर्ण इसलिए भी है, क्योंकि वह दोनों देशों के बीच बफर राज्य की हैसियत में होने के कारण शक्ति संतुलन को बदल सकता है. दूसरा, भूटान के साथ भारत के संबंध इतने मैत्रीपूर्ण हैं कि वहां भारतीय सेना की भी मौजूदगी है. यही नहीं, भूटान भारत का अकेला ऐसा पड़ोसी देश है जिसके चीन के साथ राजनयिक संबंध नहीं है. तीसरा, भूटान भारत के पड़ोसियों में एक मात्र ऐसा देश है, जो उन आतंकवादी संगठनों के खिलाफ कार्रवाई कर चुका है जो भारत के खिलाफ अभियान चला रहे थे. भूटान ने अपनी भूमि से भारत के खिलाफ क्रियाशील आतंकवादी संगठनांे के सफाये के लिए 15 दिसंबर, 2003 को ‘ऑपरेशन ऑल क्लीयर’ चलाया था, जिसमें बड़ी संख्या में उल्फा उग्रवादियों ने आत्मसमर्पण किया और सैकड़ों मारे गये थे.

अगर इसकी तुलना में बांग्लादेश और नेपाल को देखें तो बांग्लादेश के जन्म के समय से ही एक भारत विरोधी समूह उभरा, जो आज वहां प्रभावशाली स्थिति में है और पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआइ के साथ मिलकर भारत विरोधी गतिविधियां लगातार चला रहा है. रही बात नेपाल की तो नेपाल उनकी पहली यात्रा के लिए उचित राष्ट्र हो सकता था, लेकिन इस समय नेपाल स्वयं आतंरिक राजनीतिक संकट का शिकार बना हुआ है. इस दृष्टि से भूटान ज्यादा अनुकूल प्रतीत होता है.

भूटान ने अब तक भारत का यथाशक्ति साथ दिया है और किसी भारत विरोधी संगठन या गठबंधन में शामिल नहीं हुआ है, जबकि भारत के अन्य सभी पड़ोसी भारत विरोधी कूटनीति का हिस्सा प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से बन चुके हैं. यही नहीं भूटान की सरकार और राज्याध्यक्ष हर कदम पर भारत के साथ मैत्री संबंधों को वरीयता देते हैं. चीन के साथ उसका सीमा विवाद भी रहा है, इसलिए वह भारत की पीड़ा को अच्छी तरह से समझता है. लेकिन विश्व आर्थिक मंच पर तेजी से उपस्थिति दर्ज करा रहा चीन भूटान पर इस समय खासा आर्थिक दबदबा कायम कर चुका है. भूटान चीनी प्रभाव से उपजनेवाले संशयों का समाधान भारत के साथ मैत्री में ढूंढना चाहता है. ऐसा भूटान के प्रधानमंत्री की बातों में देखा भी जा सकता है.

भारत का परंपरागत मित्र
भूटान के प्रधानमंत्री शेरिंग टोबगे स्पष्ट तौर पर कह चुके हैं कि भारत भूटान का परंपरागत मित्र है और भारत के साथ उनकी अटूट मैत्री है. उन्होंने यह भी कहा था कि दोनों देशों के बीच का संबंध परस्पर विश्वास और सहयोग पर आधारित है और उनका देश भारत से मैत्री संबंध कम होने की सोच भी नहीं सकता है. मनमोहन सिंह सरकार ने जाते-जाते भूटान को केरोसिन और गैस पर सब्सिडी बंद करने का निर्णय लिया था, हालांकि काफी आलोचना होने के बाद उसने यह निर्णय वापस ले लिया.

मतलब यह हुआ कि भूटान जिस तरह से भारत के साथ मैत्री का प्रकटीकरण करता है, भारत को भी उसकी भावनाओं का आदर करना होगा. भारत भूटान के जरिये चीनी रणनीति का मुकाबला करने की युक्ति अपना सकता है, क्योंकि इसकी उत्तरी सीमा तिब्बत को छूती है और दक्षिण, पूर्व एवं पश्चिम भारत को छूती है. साथ ही, भूटान चीन को हमेशा ही शंका की दृष्टि से देखता है.

भूटान को भारत से आर्थिक सहयोग के साथ-साथ संवेदनात्मक धरातल पर भी सहयोग की जरूरत है. उसे यह एहसास कराने की आवश्यकता है कि भारत आर्थिक और सामरिक दृष्टि से उसका संरक्षक बन कर उसके साथ हमेशा खड़ा रहेगा. वैसे भी जहां तक संभव हो भारत को उसके साथ आर्थिक और ढांचागत रिश्तों को और अधिक मजबूत करना चाहिए ताकि वह भारत के साथ कई मोचरें पर उसके कनिष्ठ लेकिन महत्वपूर्ण सहयोगी के रूप में खड़ा हो सके. संभवत: मोदी ने इन पहलुओं को जरूर देखा होगा. अब इन पर होमवर्क करने की जरूरत है. अगर वास्तव में मोदी भूटान की भारत के लिए सामरिक और आर्थिक महत्ता की पहचान करते हुए संबंधों को आगे बढ़ाते हैं, तो भारत की विदेश नीति को एक नयी दिशा मिलेगी और वह भूटान के जरिये दुनिया को एक नया संदेश देने में भी सफल हो जायेगा.

भारत-भूटान आर्थिक साङोदारी
भारत भूटान को अपेक्षाओं के मुताबिक आर्थिक सहयोग देने की कोशिश करता रहा है. भूटान में उत्पादित विद्युत से भारत के उत्तर-पूर्व के राज्यों को मदद मिलती है. 336 मेगावॉट की ‘चूखा जल विद्युत परियोजना’ से पश्चिम बंगाल तथा असम में विद्युत आपूर्ति होती है. इस परियोजना से भूटान को 40 प्रतिशत राष्ट्रीय आय प्राप्त होती है. 1020 मेगावाट ताला परियोजना निमार्णाधीन है.

2010 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भूटान यात्रा के साथ भूटान में लोकतंत्र की प्रगति को व्यापक समर्थन दिया था. भारत ने भूटानी व्यापार को 16 एंट्री और एक्जिट प्वाइंट पर अनुमति दी थी और इस बात पर सहमति प्रदान की थी वह भूटान में 2020 तक कम से 10,000 मेगावॉट बिजली उत्पादन क्षमता विकसित और आयात करेगा.

भूटान ने अपने यहां 1960 में पंचवर्षीय योजना को अपनाया और 1961 में पहली पंचवर्षीय योजना लागू की. भारत तभी से उसे पंचवर्षीय योजनाओं के लिए वित्तीय मदद दे रहा है. उसने जून, 2013 के अंत में 10वीं पंचवर्षीय योजना के लिए 3625 करोड़ रुपये की मदद की, साथ ही हाइड्रोप्रोजेक्ट्स तथा विभिन्न प्रकार की सब्सिडीज के लिए अनुदान तथा अनुदानित ऋण दिये. भूटान का हाइड्रोपावर द्विपक्षीय सहयोग का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है. तीन हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट भारत के सहयोग से विकसित हो रहे हैं, जिनमें 1020 मेगावाट के टाटा हाइड्रो प्रोजेक्ट, 336 मेगावाट के चुखा हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट, 60 मेगावाट के करिछू हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट पूरे हो चुके हैं. 10 अन्य प्रोजेक्ट्स पर सहमति बनी है, जिनमें से पुनातसंगछू- वन और टू हाइड्रो इलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट, मंगेदछू हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट निमार्णाधीन हैं. अन्य सात प्रोजेक्ट्स-खोलांगछू, अमोछू, वांगछू, बुनाखा रिजरवायर, कूरी गांेगरी, चमकारछू और संकोश पर सहमति के प्रयास जारी हैं. इसी प्रकार की अन्य बहुत सी परियोजनाएं हैं जिनके लिए भारत उसकी मदद कर रहा है.

दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार
भारत और भूटान अच्छे व्यापार सहयोगी भी हैं. भारत-भूटान व्यापार और वाणिज्य समझौता वर्ष 1972 में हस्ताक्षरित हुआ था. इसके बाद वर्ष 2006 में 10 वर्ष की अवधि के लिए भारत-भूटान मुक्त व्यापार की शुरुआत हुई. वर्ष 2012 के दौरान दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार 68.3 बिलियन का रहा. इस दौरान भूटान ने 41.7 अरब रुपये का भारत से आयात किया, जो कि भूटान के कुल आयात का 79 प्रतिशत था, जबकि 26.6 अरब रुपये का निर्यात किया, जो कि उसे कुल निर्यात का 94 प्रतिशत था. 2012 में द्विपक्षीय व्यापार में 11 प्रतिशत की वृद्धि हुई.

भारत-भूटान संबंधों की परंपरागत डोर
भारत और भूटान के संबंध परंपरागत रहे हैं, जिसमें आंशिक विचलन भले ही आये हों, लेकिन कभी वास्तविक दूरी नहीं बनी. 1865 में सिनचुला की संधि हुई थी और यहीं से दोनों के मध्य ऐतिहासिक रिश्तों का आरंभ हुआ. 1910 में पुरनवा की संधि हुई और दोनों के मध्य संबंध सुदृढ़ हुए. स्वतंत्रता के बाद अगस्त, 1949 की संधि द्वारा दोनों राष्ट्रों के मध्य ‘चिरस्थायी शान्ति व मित्रता’ स्थापित हो गयी. इस संधि में कहा गया था कि भारत भूटान के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगा, लेकिन भूटान अपनी विदेश नीति का संचालन भारत के मार्गदर्शन में करेगा. इसके अतिरिक्त भूटान केवल भारत की संतुष्टि पर ही हथियार मंगा सकता है तथा इस प्रकार के हथियार भारत के क्षेत्र से ही भूटान आ सकते हैं.

इस प्रकार से सुरक्षा की दृष्टि से भारत व भूटान के संबंध अत्यंत महत्वपूर्ण थे, जो 1949 में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की स्थापना के बाद और भी महत्वपूर्ण बन गये. आरंभ में भूटान के राजतंत्र को भारत के जनतंत्र से खतरा होने की बात कही जा रही थी, लेकिन भारत के निमार्ताओं का सहअस्तित्व पूर्ण संबंधों पर विश्वास था, इसलिए ये अफवाहें निराधार साबित हो गयीं. भूटान को यह भी डर था कि सिक्किम के भारत में विलय से वह भी प्रभावित होगा, लेकिन भारत ने उसे विश्वास दिलाया कि भूटान की क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान किया जायेगा. भूटान को यह भी डर था कि जिस प्रकार सिक्किम में नेपाली लोगों का बाहुल्य हो गया है, वैसा ही भूटान के साथ होगा. यही नहीं वह ‘वृहत नेपाल’ (ग्रेटर नेपाल) की अवधारणा से भी सशंकित है.

भारत ने 1949 की संधि के बाद भूटान को लगभग हर वैश्विक मंच पर प्रोत्साहन देने की कोशिश की. उसने 1963 में कोलंबो योजना की सदस्यता ग्रहण कर अपनी अंतरराष्ट्रीय महत्ता को प्रस्तुत करने का प्रयास किया. इस सदस्यता के फलस्वरूप भूटान को जापान, ऑस्ट्रेलिया, भारत, कनाडा, न्यूजीलैंड और इंग्लैंड से तकनीकी सहायता मिली. वर्ष 1969 में भूटान का प्रवेश अंतरराष्ट्रीय डाकसंघ में हुआ. इन मंचों पर भूटान का प्रवेश भारत द्वारा प्रायोजित था, लेकिन 1971 में वह भारत के पूर्ण सहयोग से एशिया-प्रशांत आर्थिक और सामाजिक परिषद सदस्यता प्राप्त करने में सफल हुआ. इसी क्रम में भूटान 1985 में दक्षिण एशिया क्षेत्रीय सहयोग संगठन (दक्षेस) का सदस्य बना. 1970 में भूटान ने संयुक्त राष्ट्र में अपनी सदस्यता के लिए आवेदन किया. सितंबर, 1971 में भारत के प्रयासों से भूटान संयुक्त राष्ट्र का 127वां सदस्य बना.

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