अलग-अलग आंकड़ों का औसत भी लें, तो देश की सड़कों पर हर साल सवा लाख से ज्यादा लोग अपनी जान सड़क हादसे में गंवा देते हैं. और अब तक अगर सरकारों का रवैया देखें, तो लगेगा कि इन जानों की फिक्र सरकार को नाम मात्र की ही है. बस खानापूर्ति भर है. लेकिन सड़क हादसे में एक मंत्री की मौत के बाद अचानक लग रहा है कि तसवीर शायद बदले.
एक और मौत ने फिर से हमारे सामने वह सवाल खड़ा कर दिया है, जिसे हम बार-बार उठाने की कोशिश करते हैं, लेकिन जवाब नहीं मिल पाता है. वही सवाल, कि आखिर कब तक हिंदुस्तानी सड़कें दुनिया की सबसे खूनी सड़कें बनी रहेंगी? कब तक हम रोड सेफ्टी को इतने हल्के में लेते रहेंगे? कब तक हिंदुस्तानियों की जान की अहमियत को इतना कम आंकते रहेंगे?
अलग-अलग आंकड़ों का औसत भी लें, तो देश की सड़कों पर हर साल सवा लाख से ज्यादा लोग अपनी जान सड़क हादसे में गंवा देते हैं. और अब तक अगर सरकारों का रवैया देखें, तो लगेगा कि इन जानों की फिक्र सरकार को नाम मात्र की ही है, महज कागजों और खानापूर्ति में. लेकिन सड़क हादसे में एक मंत्री की मौत के बाद अचानक लग रहा है कि तसवीर शायद बदले.
अचानक लगने लगा है कि इस बार शायद कुछ अलग हो. सवा लाख लोगों की मौत पर जैसा रवैया अब तक सरकारों का देखने को मिलता रहा है, पता नहीं क्यों उम्मीद हो रही है, वह बदलेगा. या कम-से-कम ऐसा लग रहा है कि अब चारों ओर से चर्चा शुरू होगी. समाधान निकालने की कोशिशें होंगी और कुछ ठोस कदम उठाये जायेंगे. लोगों की जान की कीमत समझी जायेगी. ट्रैफिक सेफ्टी नियमों को लागू करने में कड़ाई बरती जायेगी. सड़कों के डिजाइन की खामियां दूर की जायेंगी और सुरक्षा को सबसे बड़ी प्राथमिकता माना जायेगा.
इस उम्मीद की वजह साफ है. एक तो इस बार कोई आम आदमी या नेता हादसे का शिकार नहीं हुआ है. इस बार हादसे में मौत एक केंद्रीय मंत्री की हुई है. और हादसे की तसवीर लगभग वैसी ही, जैसी हमें हर रोज देखने की आदत है. क्रॉसिंग से गुजरती दो गाड़ियां, एक की रफ्तार ज्यादा, कोई एक लापरवाह और कोई बेपरवाह. नतीजा मौत. इस बार दिल्ली के चौराहे पर ऐसा देखा गया है.
दूसरी वजह है सरकार का नया होना. वर्षो बाद फिर से सरकार में आयी एनडीए में जोश दिख रहा है. कई मुद्दों पर सकारात्मक ऐलान सुनने को मिले हैं. हालांकि, कार्रवाई का इंतजार है, और लग रहा है कि गोपीनाथ मुंडे के निधन के बाद सरकार शायद कुछ कदम ऐसे उठाये, जिनसे सड़कें ज्यादा सुरक्षित हों.
सबसे अहम तो ट्रैफिक नियमों का पालन ही है. यह समझते हुए कि सभी हाइवे, सड़कों या चौराहों पर ट्रैफिक पुलिस को तैनात करना नामुमकिन है. हर स्पॉट पर पुलिसकर्मी हों, तो भी जरूरी नहीं कि सभी नियम तोड़नेवाले उनकी नजर में आ जायें, या वे सभी को पकड़ पायें. इसलिए, इसका समाधान टेक्नोलॉजी ही हो सकती है. जहां सबसे पहले स्पीड कैमरे लगाने की जरूरत है. सबसे पहले देश की उन खूनी सड़कों को कैमरे से लैस किया जाना चाहिए, जहां पर रिकॉर्ड के मुताबिक सबसे ज्यादा सड़क हादसे होते हैं. वहां पर कैमरे से लोगों पर एक अंकुश लगेगा कि वे स्पीड लिमिट को ना तोड़ें, या नियम ना तोड़ें. इससे चप्पे-चप्पे पर पुलिस वालों की तैनाती से छुट्टी मिलेगी.
इसके बाद लाइसेंसिंग की पूरी प्रक्रिया को फिर से देखने की जरूरत है. बिना काबिलियत के ड्राइविंग लाइसेंस देना बंद किया जाना चाहिए, जिसके लिए लाइसेंस से पहले ट्रेनिंग भी अनिवार्य की जा सकती है. इसके अलावा इस क्षेत्र में भी टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल जरूरी है. लाइसेंस देने के मापदंड और प्रक्रिया साफ सुथरी, सटीक और पारदर्शी होनी चाहिए, जिसका एक एक रिकॉर्ड इंटरनेट पर होना चाहिए. किसे किस गाड़ी के लिए किस आधार पर लाइसेंस मिल रहा है, इसके लिए नियम बनाना चाहिए.
सरकार की तरफ से एक और कोशिश दिखनी चाहिए, वह है पैदल यात्रियों की सुरक्षा और तरजीह. ना सिर्फ उनके लिए फुटपाथ साफ करवाये जाने चाहिए, बल्कि उनके लिए सड़क पार करने के सेफ रास्ते बनाये जाने चाहिए.
और साथ में गाड़ियों के ड्राइवरों को याद दिलाया जाये कि पैदल यात्रियों के अधिकार क्या हैं. हादसों की सूरत में लागू होनेवाले कानून को कड़ा करने की जरूरत भी है. ट्रैफिक नियमों को तोड़ने की सूरत में ज्यादा बड़ा चालान भी, क्योंकि असल समाधान लोगों से ही आनेवाला है. सड़क पर जान लेने के लिए सरकारें सड़क पर ड्राइव करने नहीं आती हैं. लोग जाते हैं, अपनी गाड़ियों के साथ, लापरवाह, बेपरवाह. ये, वही आम लोग हैं, जिनके लिए ट्रैफिक नियमों की कोई अहमियत नहीं है, या उन नियमों को तोड़ने में वे फा महसूस करते हैं.
वैसे लिस्ट अभी लंबी है, जिनकी उम्मीद मुङो सरकार से है, और इंतजार भी.
www.twitter.com/krantindtv