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पुस्तक समीक्षा: हाशिए पर पड़ी दुनिया

संपा : सारंग उपाध्याय/ अनुराग चतुर्वेदी राजकमल प्रकाशन मूल्य : 600 रुपये प्रासंगिक विचारों की प्रासंगिक किताबहर समाज के परिवर्तनकारी आंदोलन में कई ऐसे व्यक्ति होते हैं, जो उस आंदोलन की पृष्ठभूमि में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के बावजूद सामने नहीं आ पाते हैं. अपने देश के इतिहास में भी कई ऐसे महान व्यक्तित्व हुए हैं, […]

संपा : सारंग उपाध्याय/ अनुराग चतुर्वेदी

राजकमल प्रकाशन

मूल्य : 600 रुपये


प्रासंगिक विचारों की प्रासंगिक किताब
हर समाज के परिवर्तनकारी आंदोलन में कई ऐसे व्यक्ति होते हैं, जो उस आंदोलन की पृष्ठभूमि में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के बावजूद सामने नहीं आ पाते हैं. अपने देश के इतिहास में भी कई ऐसे महान व्यक्तित्व हुए हैं, जिन्होंने समाज और राजनीतिक को बहुत गहराई से प्रभावित किया लेकिन गुमनामी में रह गये. ऐसे ही एक व्यक्तित्व थे बालकृष्ण गुप्त. वे राम मनोहर लोहिया के अभिन्न मित्र रहे हैं और भारतीय तथा विश्व राजनीति पर अपनी मजबूत पकड़ रखते थे. विडंबना ही है कि ऐसे व्यक्ति के बारे में आज बहुत कम लोग जानते हैं, जबकि सहमति-असहमति से परे ऐसे व्यक्तित्वों से परिचय वर्तमान के लिए आवश्यक है. इस आवश्यकता को पूरा करते हुए बालकृष्ण गुप्त के जीवन और विचारों को हिंदी के पाठकों के समक्ष रखने का महती काम वरिष्ठ पत्रकार सारंग उपाध्याय और अनुराग चतुर्वेदी ने ‘हाशिए पर पड़ी दुनिया’ किताब में किया है.

यह किताब पांच भागों में विभाजित है. पहले भाग में बालकृष्ण गुप्त पर उनके परिजनों एवं मित्रों के संस्मरण हैं, जिनमें उनके जीवन के विभिन्न पक्ष प्रकट होते हैं. दूसरे भाग में विश्व राजनीति के विभिन्न पहलुओं पर बालकृष्ण गुप्त के लिखे लेख संकलित हैं. इनमें अश्वेत दुनिया पर ‘हाशिए पर पड़ी दुनिया की दो तिहाई रंगीन आबादी’, ‘दक्षिण अफ्रीका’,‘इसलामी दुनिया और तेल का सियासी षड्यंत्र’,‘इंग्लैंड की बेरोजगार सड़कें’, ‘इटली’,‘नाजी रंगमंच के नेपथ्य में’,‘बदलते रूस में साकार होता साम्यवाद’,‘यूनान : एक इतिहास का भविष्य’ आदि लेख हैं. इन लेखों में जहां लेखक की राजनीतिक पक्षधरता का पता चलता है, वहीं एक सजग अवलोकन भी सामने आता है.

इसी तरह से पुस्तक का तीसरा भाग ‘बुद्धिजीवी, नेहरू, लोहिया और वामपंथ’ है, जिसमें भारतीय राजनीति के विभिन्न पक्षों की चर्चा है. ‘भारतीय बुद्धिजीवी’, ‘भारत की विदेश नीति’, ‘काली चमड़ी गोरा राज’ जैसे अवधारणात्मक लेखों के साथ भारतीय राजनीति पर उनके विशद विचारों का परिचय इस भाग में मिलता है. ‘कांग्रेस पार्टी’,‘वामपंथी बंगाल’, ‘सोशलिस्ट पार्टी और सत्याग्रह’ आदि लेख जहां देश राजनीतिक वातावरण को स्पष्ट करते हैं, वहीं ‘नेहरू के नवरत्न’ और ‘नेहरू के रहते क्या?,’ जैसे लेख जवाहरलाल नेहरू की नीतियों और उनकी कार्यशैली पर प्रश्न उठाते हैं. अगला भाग ‘बिड़ला, गोयनका और अंधी योजनाएं’ है, जो भारतीय पूंजीपतियों और उनकी राजनीतिक सांठ-गांठ पर केंद्रित है.

बालकृष्ण गुप्त का जीवनकाल 1910 से लेकर 1972 तक रहा, जिसमें भारत और पूरी दुनिया विभिन्न घटनाक्रमों से गुजरी, कोई भी सजग व्यक्ति उन सभी घटनाक्रमों से अछूता नहीं रह सकता. बालकृष्ण गुप्त भी ऐसे ही सजग व्यक्ति थे, उन्होंने उन सभी मुद्दों पर कलम चलाई. संपादक द्वय ने इस पुस्तक में उन तमाम विचारों का प्रतिनिधि संकलन करने की कोशिश की. किताब में संकलित सामग्री के चयन में संपादकों की मेहनत स्पष्ट झलकती है. वैसे भी, प्रतिनिधि लेखों का चयन एक चुनौतीपूर्ण काम होता है एवं यदि प्रसंग बालकृष्ण गुप्त जैसा हो, तो यह चुनौती और भी बढ़ जाती है. सारंग उपाध्याय और अनुराग चतुर्वेदी ने कुशलतापूर्वक इस काम को अंजाम दिया है. परिणामस्वरूप, समाज और राजनीति में रुचि रखनेवाले लोगों के लिए यह एक संग्रहणीय किताब बन पड़ी है.

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