बिहार के बंटवारे के बाद 15 नवंबर 2000 को जब झारखंड अलग राज्य बना था, तो यहां के लोगों की ख़ुशियां, उम्मीदें और आकांक्षाएं उछाल मार रही थीं. लेकिन समय के साथ लोगों की ख़ुशियां ख़त्म होती गईं और निराशा और हताशा के स्वर सुनाई पड़ने लगे.
झारखंड के बारे में हर कोई यही कहता है कि भौगोलिक और प्रशासनिक अधिकार तो मिला, लेकिन संतुलित, सम्यक विकास और भविष्य का तानाबाना कहीं पीछे छूट गया.
हाल ही में आई रघुराम राजन कमेटी की रिपोर्ट ने झारखंड को ‘सबसे अल्प विकसित राज्यों’ की श्रेणी में पांचवें नंबर पर रखा. अब एक बार फ़िर झारखंड को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग भी ज़ोर पकड़ती जा रही है.
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यहां के लोगों की शिकायत थी कि खनिज संपदा से संपन्न होने बावजूद भी वे समुचित विकास से पीछे हैं. आदिवासी अपने को वंचित और उपेक्षित महसूस कर रहे थे. फिर एक लंबे संघर्ष के बाद अलग राज्य का गठन हुआ.
छोटे राज्य
क्या छोटे राज्यों की अवधारणा विकास, सुशासन और नई कार्य संस्कृति की गारंटी देती है?
इस सवाल पर दैनिक हिन्दी समाचार पत्र ‘प्रभात ख़बर’ के वरिष्ठ संपादक अनुज कुमार सिन्हा कहते हैं, "बेशक यह देती है, बशर्ते गुड गवर्नेंस और लीडरशिप हो. संतुलित विकास के प्रति सरकारें प्रतिबद्ध हों और शासन पारदर्शी हो."
लेकिन इस कसौटी पर झारखंड कहां खड़ा है?
इस पर वे कहते हैं, "झारखंड का दुर्भाग्य रहा है कि 13 साल में यहां नौ सरकारें बनी और वो भी सब लंगड़ी. राज्य में नीतिगत और ठोस फ़ैसलों की कमी रही है. समय पर पैसे ख़र्च नहीं होते. घोटालों की वजह से यहां की राजनीति और नौकरशाही भी बदनाम होती रही है. इस कारणों से राज्य का विकास बहुत हद तक प्रभावित हुआ है."
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हालांकि 13 सालों में झारखंड ने परिवर्तन भी देखे और यहां परिस्थितियां भी बदलीं. लेकिन विश्लषकों की नज़र में झारखंड ने कभी रफ़्तार नहीं पकड़ी.
झारखंड जब अलग राज्य बना था, तो इसकी आबादी दो करोड़ 69 लाख 45 हजार 829 थी. जो अब बढ़कर तीन करोड़ 29 लाख 88 हजार 34 हो गई है.
ज़िलों की संख्या 18 से बढ़कर 24 और प्रखंडों की संख्या 260 हो गई है. साक्षरता दर भी 53.56 से बढ़कर 66.41 फ़ीसदी पहुँच गई है.
आकंड़ों की ज़ुबानी
राजधानी रांची में ऊंची इमारतों का जाल चारों तरफ बिछ गया है. कई मॉल खुले, सड़कों पर महंगी गाड़ियां बढ़ीं, फ़ैशन ने भी यहां अपने क़दम पसारे.
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तीन नए विश्वविद्यालय भी खुले. 32 साल बाद राज्य में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव कराए गए. हर श्रेणी की दस हज़ार किलोमीटर सड़कों का निर्माण हुआ है, लेकिन अब भी यहां 1000 वर्ग किलोमीटर पर स्टेट, मेजर और राष्ट्रीय राजमार्ग की लंबाई महज़ 90 किलोमीटर है जबकि राष्ट्रीय पैमाना 182 किलोमीटर है.
विकास के लिए भी झारखंड की योजनाओं का आकार (बजट) भी साल दर साल बढ़ता गया . मसलन 2002-2003 में झारखंड का योजना आकार 2651 करोड़ रुपए था, जो बढ़कर 2014-15 में 18,270 करोड़ रुपए हो गया है.
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लेकिन कड़वा सच यह है कि काग़ज़ी योजनाओं और केंद्रीय सहायता से प्राप्त पूरे पैसे किसी भी साल ख़र्च नहीं हो सके. भारी बजट के बाद भी राज्य के विकास की गाड़ी एक पुरानी खटारा गाड़ी की तरह ही चली.
झारखंड सरकार अक्सर यह दावा करती रही है कि राज्य की आर्थिक हालत में सुधार हो रहा है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार राज्य 7.50 से 8.0 प्रतिशत विकास दर को बनाए हुए है.
झारखंड चैंबर ऑफ कॉमर्स के अध्यक्ष विकास सिंह कहते हैं, "छोटे राज्यों के तेज़ विकास की संभावनाएं ज़्यादा होती हैं, लेकिन झारखंड इससे एकदम अलग है. औद्योगिक विकास यहां सरकार के एजेंडा में कभी नहीं रहा. दो लाख करोड़ से ज़्यादा के पूंजी निवेश के एमओयू अधर में ही लटके रहे. 13 साल में नई राजधानी या कोर कैपिटल का निर्माण भी नहीं हो सका."
दुर्दशा
दरअसल यहां राजनीतिक प्रतिबद्धता कम व्यक्तिगत लाभ साधने की प्रवृति ज़्यादा है.
राज्य सरकार की रिपोर्ट के अनुसार रोज़गार और ग़रीबी झारखंड की सबसे बड़ी समस्या है. सरकारी विभागों में अधिकारियों और कर्मचारियों के 77,000 से अधिक पद खाली हैं.
13 साल में झारखंड लोक सेवा आयोग ने सिर्फ़ पांच परीक्षाएं ली हैं. उनमें से भी तीन परीक्षाएं जांच के घेरे में हैं.
एक तरफ़ जहां राज्य में ग़रीबी का प्रतिशत घटकर 37 प्रतिशत पर पहुंचा है, वहीं बीपीएल परिवारों की संख्या बढ़ गई है. यहां 1.24 करोड़ की आबादी ग़रीबी रेखा से नीचे अपना जीवन यापन कर रही है.
पूरे देश के आंकड़ों से इसकी तुलना करें तो राष्ट्रीय स्तर पर जहां शहरी और ग्रामीण क्षेत्र में ग़रीबी घटी है वहीं झारखंड के शहरी क्षेत्र में ग़रीबी बढ़ी है. ऐसा रोज़गार को लेकर ग्रामीण आबादी का शहरों की ओर पलायन कारण हो सकता है.
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राज्य के 3400 गांवों में अब भी बिजली नहीं पहुंची है. राज्य को 1600 मेगावॉट बिजली की ज़रूरत है लेकिन राज्य अपने बूते 580-600 मेगावाट ही बिजली उत्पादन कर पाता है. राजधानी रांची को भी ज़ीरो कट पावर नसीब नहीं है.
झारखंड स्मॉल स्केल इंडस्ट्रीज़ एसोसिएशन के उपाध्यक्ष शरद पोद्दार कहते हैं, "संचरण और वितरण की व्यवस्था लचर होने की वजह से राज्य में उद्योग धंधे नहीं पनप सके."
सरकारी एजेंसी डिस्ट्रिक्ट इनफॉरमेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन (डीआइएसई) द्वारा जारी की गई साल 2011-2012 की रिपोर्ट बताती है कि झारखंड में 34 फ़ीसदी स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग से शौचालय नहीं है. राज्य के ग्रामीण इलाक़ों में महज सात फ़ीसदी लोगों को पाइप से जलापूर्ति होती है जबकि ग्रामीण इलाक़ों में 92.4 फ़ीसदी लोग खुले में शौच जाते हैं.
चिंता
राज्य की आदिवासी महिलाओं में साक्षरता दर 39.35 फ़ीसदी है. इसी इलाक़े में 72 फ़ीसदी युवतियों की शादी कम उम्र में होती है.
झारखंड में 70 फ़ीसदी महिलाएं एनीमिया से पीडि़त हैं और यहां मातृ मृत्यु दर 261 है, जबकि राष्ट्रीय औसत 212 है.
राज्य सरकार की रिपोर्ट बताती है कि 29.74 लाख हेक्टेयर ज़मीन कृषि योग्य है, लेकिन सिंचाई की सुविधा महज़ 25 फ़ीसदी ज़मीन के लिए उपलब्ध है.
राज्य के आर्थिक विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर रमेश शरण कहते हैं कि 13 साल में झारखंड अपेक्षा के अनुरूप तरक्की नहीं कर सका, जबकि छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड बेहतर रास्ते पर हैं.
वो कहते हैं, "इसके लिए अस्थिर सरकारें बहुत हद तक ज़िम्मेदार हो सकती हैं."
प्रोफ़ेसर शरण के मुताबिक़ प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता से ही ग़रीबी और असमानता समाप्त नहीं की सकती. इसके लिए बेहतर मानवीय और मालिकाना इस्तेमाल भी ज़रूरी है.
नक्सलवाद का साया
वो बताते हैं कि आम आदमी को लाभ पहुंचाने वाली अधिकतर योजनाएं कारगर ढंग से लागू नहीं हो रहीं. इसके अलावा तमाम बड़े प्रोजेक्ट सालों से पीछे चल रहे हैं या फिर लटक रहे हैं.
राज्य सरकार की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ साल 2013 में राज्यभर में नक्सली मामलों से जुड़े 408 केस दर्ज किए गए जबकि 85 नक्सली हत्याएं हुईं.
झारखंड जब बना तब राज्य के 14 ज़िले नक्सल प्रभावित थे. ऐसे ज़िलों की संख्या अब बढ़कर 21 हो गई है.
अलग राज्य गठन के बाद से अब तक नक्सली हत्याओं की संख्या 1,000 से अधिक है.
आदिवासी विषयों पर काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता रतन तिर्की कहते हैं, "आदिवासियों के सम्यक विकास के लिए छोटे राज्यों का गठन होना चाहिए. लेकिन झारखंड के संदर्भ में बात करें, तो यहां अस्थिर राजनीति और सरकार की वजह से समस्याएं बढ़ी."
करीब 25 लाख परिवार विस्थापन का दर्द झेल रहे हैं. साथ ही लोगों का पलायन यहां बड़ी चुनौती है. झारखंड के क़रीब सवा सौ प्रखंड पांचवीं अनुसूची के तहत आते हैं, लेकिन सरकार पांचवी अनुसूची की हिफ़ाज़त के प्रति गंभीर नहीं रही.
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