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राजनीतिक स्वतंत्रता का हमउम्र चित्रकला बाजार

भारतीय कला बाजार में पिछले कुछ दशकों में दिलचस्प तब्दीलियां आयी हैं. भारतीय आधुनिक और समकालीन चित्रकला, अगर दोनों के समय का समावेश करके उसके कुल योग को देखा जाये, तो भी उसके अनुपात को समझने में कोई मुश्किल नहीं होगी. उसका कुल योग हमारी राजनीतिक स्वाधीनता की आयु के समतुल्य है. हमारी राजनीतिक स्वतंत्रता […]

भारतीय कला बाजार में पिछले कुछ दशकों में दिलचस्प तब्दीलियां आयी हैं. भारतीय आधुनिक और समकालीन चित्रकला, अगर दोनों के समय का समावेश करके उसके कुल योग को देखा जाये, तो भी उसके अनुपात को समझने में कोई मुश्किल नहीं होगी. उसका कुल योग हमारी राजनीतिक स्वाधीनता की आयु के समतुल्य है. हमारी राजनीतिक स्वतंत्रता के समक्ष ऐसी प्रत्यक्ष और सटीक समानता या समांतर उपस्थिति हमारे देश में और किसी चीज की नहीं है.

यह सौभाग्य अन्य कलाओं को तो बिलकुल नहीं मिला. क्योंकि बाकी सभी कलाएं, चाहे वह नृत्य हो, गायन हो, वादन हो, सभी शास्त्रीयता के दायरे में आती हैं. वे हमारे आधुनिक वर्तमान में पूरी शिद्दत से हमारी परंपरा का प्रतिनिधित्व तो करती हैं, लेकिन उनका कद वैसा ही है जैसा परिवार में किसी बुजुर्ग का होता है.

मैं आधुनिक चित्रकला के संदर्भ से समय की यह गणना प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप की स्थापना से कर रहा हूं, न कि बंगाल स्कूल की स्थापना से. बंगाल स्कूल के संदर्भ से कला शिक्षा की बात करना उपयुक्त होगा, लेकिन कला बाजार की आमद और प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप की स्थापना में संबंध है. यह माना जा सकता है कि भारतीय आधुनिक चित्रकला के बाजार में और व्यक्तिगत, संस्थागत और नीलामी के सार्वजनिक मंचों तक, सभी जगह मूलतः इसी ग्रुप के चित्रकार आज तक छाये हैं.
इस ग्रुप की स्थापना सन् 1947 में हुई थी, इस प्रकार से भारतीय आधुनिक चित्रकला के बाजार की नींव का वर्ष भी यही है. आजादी के बाद देश जब अन्य क्षेत्रों में अपनी पहचान अर्जित कर रहा था, उसी माहौल में भारतीय आधुनिक चित्रकला भी देशी और विदेशी मंचों पर अपना उपयुक्त स्थान टटोल रही थी.
उपनिवेशवाद के शिकार रहे देशों को अंततः सबसे बड़ा नुकसान उसकी सांस्कृतिक अस्मिता पर मिली चोट से होता है. भारत में उपनिवेशवाद का सबसे पहला शिकार समाज का मूलतः शहरी वर्ग ही था, लेकिन किसी धीमे जहर की तरह दो सौ वर्षों में उसने देश की ग्रामीण व्याकरण को भी अपने पाश में ले ही लिया था. जब हमारी शहरी और ग्रामीण, दोनों समाज उपनिवेशवाद के जाल में फंस चुकी थी, तो समाज का एक वर्ग बचा था, जो उसके चंगुल से बचा रहा. सामाजिक उपेक्षा कभी-कभी कितनी महत्वपूर्ण हो जाती है यह इस बात का उदाहरण है.
उपनिवेशवाद के चंगुल और उसके प्रभावों से हमारा आदिवासी लोक बचा रहा. यह एक पैगन संस्कृति का मूल स्वभाव है और स्वतः स्फूर्त भी है और आत्म-प्रतिष्ठा भी. अपनी इन्हीं विशिष्टताओं के रहते हमारी समाज का यह लोक और उसकी चेतना दूषित होने से बची रही. क्या हम आज अपने आदिवासी समाज को सभी साक्षरों की तुलना में पूर्णतः स्वस्थ मानते हैं?
भारतीय समकालीन चित्रकला के आंगन और उसके बाजार में अब एक ऐसी चित्रकला ने अपनी गहरी जड़ें जमा लीं हैं, जिसे हम अपनी सहूलियत के लिए आदिवासी चित्रकला कहते हैं. मध्य प्रदेश की जनजातियों में से एक गौंड आदिवासी तो मूलतः परधान थे और जिनकी सामाजिक पहचान उनके संगीत से थी, पिछले तीन दशक में वे अब चित्रकार हो गये हैं. स्वर्गीय जनगढ़ सिंह श्याम का नाम इनमें सबसे प्रमुख है. अब अनेक गौंड चित्रकार हैं, जिनकी कीर्ति देश-विदेश में है.
वे दुनियाभर के संग्रहालयों और दीर्धाओं में अपने चित्र प्रदर्शित करते हैं, उन्हें अच्छे दामों में बेच सकने में अब उन्हें कोई दिक्कत नहीं होती है. अधिकांश गौंड चित्रकार अब शहर में रहते हैं और दुनियाभर में घूमते हैं. वे अब अपने जंगलों से पूर्णतः विस्थापित हो चुके हैं. उनके चित्र अब अपनी प्रकृति की स्मृति के चित्र हैं, उनके सांगीतिक विस्थापन के कम.
वह समाज, जो उपनिवेशवाद की काली परछाइयों से लगातार बचा रहा और जिसमें हमारी संस्कृति की पैगन चेतना बिना विचलित हुए दो शताब्दियों तक निर्बाध बनी रही, समकालीनता के नाम से उसी उपनिवेशवाद की दूर की कौड़ी से अब वही समाज घायल है. इसलिए मैंने शुरू में कहा था कि भारतीय कला बाजार में पिछले कुछ दशकों में बेहद दिलचस्प तब्दीलियां आयीं हैं, लेकिन अंत में मैं अपने वाक्य में जोड़ना चाहूंगा कि ऐसी तब्दीलियां चिंतनीय हैं,
क्योंकि इन तब्दीलियों का प्रमुख कारण वह बाजार है, जो हमारी राजनीतिक स्वतंत्रता का हमउम्र है.
आजादी के बाद भारत जब अन्य क्षेत्रों में अपनी पहचान अर्जित कर रहा था, उसी माहौल में भारतीय आधुनिक चित्रकला भी देशी और विदेशी मंचों पर उपयुक्त स्थान टटोल रही थी.
मनीष पुष्कले

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