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गोल्फ़ स्टिक से चुनौतियों को हराने वाली दीक्षा डागर

दीक्षा के पिता ने कागज़-कलम उठाई और कुछ लिखकर दीक्षा की तरफ बढ़ा दिया, हाथों में गोल्फ़ स्टिक थामे दीक्षा ने कागज़ पर लिखा मैसेज पढ़ा और फ़िर मैदान पर रखी छोटी-सी बॉल की तरफ़ एक टक ध्यान लगाते हुए कागज़ पर लिखे उस ख़ास शॉट को हूबहू मार कर दिखा दिया. शॉट मारते ही […]

दीक्षा के पिता ने कागज़-कलम उठाई और कुछ लिखकर दीक्षा की तरफ बढ़ा दिया, हाथों में गोल्फ़ स्टिक थामे दीक्षा ने कागज़ पर लिखा मैसेज पढ़ा और फ़िर मैदान पर रखी छोटी-सी बॉल की तरफ़ एक टक ध्यान लगाते हुए कागज़ पर लिखे उस ख़ास शॉट को हूबहू मार कर दिखा दिया.

शॉट मारते ही आवाज़ आई…खटैक!!! जिसके बाद उनके आसपास मौजूद लोगों की तालियों की गड़गड़ाहट गूंज उठी, लेकिन दीक्षा ना तो शॉट की आवाज़ सुन सकीं, ना ही उसके बाद बजने वाली तालियों की.

दरअसल दीक्षा जन्म से ही सुन नहीं सकतीं. सुनने के लिए उन्हें अपने कानों में एक मशीन लगानी पड़ती है जिसकी मदद से वो 60 से 70 फ़ीसदी सुन पाती हैं. उस दिन मैदान में उमस होने की वजह से इस मशीन ने काम करना बंद कर दिया था.

लेकिन उनकी ये शारीरिक अक्षमता उन्हें जीतने और आगे बढ़ने से रोक नहीं सकी.

अपने इसी बुलंद हौसले और जीत के जज़्बे के साथ दीक्षा 18 अगस्त से जकार्ता में होने वाले एशियन गेम्स में हिस्सा लेने पहुंच रही हैं.

दिल्ली में रहने वाली दीक्षा 23 से 26 अगस्त तक गोल्फ़ के मैदान में उतरेंगी. टीम इवेंट के साथ-साथ वो एकल मुकाबलों में भी भारत को महिला गोल्फ़ का पहला मेडल दिलाने की जी-तोड़ कोशिश करेंगी.

इन मुकाबलों में उनके सामने जापान, साउथ कोरिया, चीनी ताइपे और थाईलैंड जैसी टीमों की चुनौती होगी.

तीन साल तक नंबर वन एमेच्योर गोल्फ़र रह चुकीं 17 साल की दीक्षा डागर से देश को बहुत उम्मीद है. उनकी तामाम उपलब्धियां उनकी काबीलियत की तस्दीक करती हैं.

सुनने के लिए अब उनके पास बेहतर तकनीक वाली मशीन है जो आसानी से ख़राब नहीं होती.

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छह साल की उम्र में पिता ने गोल्फ़ सिखाया

दीक्षा के बड़े भाई योगेश भी सुनने में अक्षम हैं, इसलिए जन्म से पहले ही दीक्षा को लेकर भी मां-बाप को आशंका थी.

दीक्षा के जन्म से पहले उन्होंने तमाम मन्नतें मांगी. लेकिन दीक्षा के जन्म के तीन साल बाद हुए टेस्ट में वे सुनने में अक्षम पाई गईं.

उनके पिता कर्नल नरेंद्र डागर बताते हैं, "ये जानकर पूरा परिवार बहुत परेशान हो गया था. लेकिन दीक्षा की मां और मैंने फ़ैसला किया कि इस समस्या को बच्चों की कमज़ोरी नहीं बनने देंगे."

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कर्नल नरेंद्र डागर ख़ुद भी गोल्फ़ खिलाड़ी रहे चुके हैं. सेना में रहते हुए उन्होंने इस खेल के गुर सीखे. अपने पिता को खेलता देख दीक्षा को भी गोल्फ़ से प्यार हो गया. छह साल की उम्र में उन्होंने पहली बार गोल्फ़ स्टिक उठाई. उनके पिता ने ही उन्हें ट्रेनिंग दी.

इस बीच ऑपरेशन की मदद से दीक्षा का कोक्लियर इम्पलांट हुआ. इस ऑपरेशन के ज़रिए उनके कान में एक मशीन लगा दी गई जिसकी मदद से दीक्षा अब 60 से 70 फ़ीसदी सुन सकती थीं.

दीक्षा ने स्पीच थेरेपी की मदद से बोलना सीखा. उनके पिता बताते हैं, "दीक्षा मशीन की मदद से आवाज़ सुन सकती है. लेकिन इसकी अपनी सीमाएं हैं. अगर उनका किसी से आई कॉन्टेक्ट नहीं हो रहा है तो उन्हें आवाज़ सुनने में समस्या होती है."

"कोई सामान्य बच्चा 10 क़दम आगे चला जाए तो उसे आवाज़ देकर बुलाया जा सकता है, लेकिन अगर दीक्षा कुछ कदम आगे बढ़ जाए तो उसे हाथ लगाकर ही रोकना पड़ता है."

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12 साल की उम्र में पहला मैच

दीक्षा ने अपनी शारीरिक चुनौती को कभी अपनी कमी नहीं बनने दिया. उन्होंने हमेशा शारीरिक रूप से सामान्य बच्चों के साथ पढ़ाई की और गोल्फ़ भी सामान्य लोगों के साथ खेला.

करियर का सबसे पहला मैच उन्होंने 12 साल की उम्र में इंडियन गोल्फ़ यूनियन नेशनल सब जूनियर सर्किट में खेला था. इसके बाद उनके करियर की गाड़ी फ़ुल स्पीड में दौड़ी.

गोल्फ़ में शानदार प्रदर्शन के दम पर वो अंडर 15 और अंडर 18 स्तर पर नंबर वन एमेच्योर गोल्फ़र बन गईं. लेड़ीज़ एमेच्योर गोल्फ़र की सूची में वो साल 2015 से लगातार पहले पायदान पर रही हैं.

घरेलू टूर्नामेंट के अलावा उन्होंने कई अंतराष्ट्रीय टूर्नामेंट भी खेले. देश के बाहर उनका पहला टूर्नामेंट सिंगापुर में हुआ. यहां लेडीज़ एमेच्योर ओपन गोल्फ़ प्रतियोगिता में भारतीय महिला गोल्फ टीम ने जीत हासिल की थी और एकल मुकाबले में भी दीक्षा अव्वल रहीं.

किसी अंतरराष्ट्रीय गोल्फ़ मैदान पर भारतीय महिला गोल्फ टीम की यह पहली जीत थी.

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दो मुकाबलों को छोड़ अब तक के सारे मुकाबले दीक्षा ने शारीरिक रूप से सामान्य लोगों के साथ खेले हैं. तुर्की में खेले गए डेफ़ ओलंपिक में उन्होंने देश को सिल्वर मेडल दिलाया था.

दीक्षा ‘यूएस प्रोफ़ेशनल ओपन गोल्फ़र्स प्ले ऑफ़’ के फ़ाइनल तक पहुंचीं. इसी साल हुए मलेशिया लेडीज़ ओपन में वो तीसरे नंबर पर रहीं, जबकि टीम के साथ उन्होंने पहला स्थान हासिल किया.

18 अगस्त से होने वाले एशियन गेम्स के बाद दीक्षा आयरलैंड में होने वाले 2018 वर्ल्ड चैम्पियनशीप में हिस्सा लेंगी.

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गोल्फ से प्यार

दीक्षा टेनिस, बैडमिंटन और स्विमिंग जैसे गेम्स भी खेलती हैं. लेकिन गोल्फ़ से उन्हें ख़ास प्यार है. यही वजह है कि उन्होंने करियर के तौर पर भी गोल्फ़ को ही चुना.

वो गोल्फ़ से अपने प्यार को कुछ यूं बयां करती हैं, "गोल्फ़ शांति का खेल है और दिमाग़ से खेला जाता है. इसलिए मुझे ये बेहद पसंद है. दूर-दूर तक फ़ैले गोल्फ़ के हरे मैदान मुझे बहुत भाते हैं. जब गेम में ज़्यादा चैलेंज होता है तो मुझे और ज़्यादा मज़ा आता है."

चुनौतियां

बेशक चुनौतियां अब भी हैं. खेल के मैदान में भी और ज़िंदगी के दूसरे मोर्चों पर भी.

दीक्षा एमेच्योर गोल्फ़र हैं, किसी प्रोफेशनल गोल्फ़र की तरह गेम जीतने पर उन्हें पैसे नहीं मिलते. लेकिन इंडियन गोल्फ़ यूनियन और आर्मी उन्हें मदद देती है.

लेकिन ये मदद काफ़ी नहीं क्योंकि गोल्फ़ बेहद महंगा खेल है. देश में आयोजित होने वाले किसी टूर्नामेंट के लिए ही कम से कम 35 से 40 हज़ार का खर्च आ जाता है और साल में ऐसे 20 से ज़्यादा इवेंट होते हैं.

पैसे के अलावा दीक्षा के सामने एक और चुनौती है, वह यह कि दीक्षा लेफ्ट हैंड की खिलाड़ी हैं. गोल्फ़ खेलने वाले लेफ्ट हैंड खिलाड़ियों के इक्विपमेंट बहुत मंहगे हैं और आसानी से नहीं मिलते. एक गोल्फ किट 3 लाख की आती है .

कान की मशीन

दीक्षा के पास सुनने के लिए अब अच्छी तकनीक वाली मशीन है, लेकिन इस मशीन की भी अपनी कुछ तकनीकी सीमाएं हैं. जैसे, बैटरी ख़त्म होते ही दीक्षा की ज़िंदगी में सूनापन छा जाता है. वो कुछ सुन नहीं पातीं.

ऐसे ही एक वाकये को याद करते हुए पिता कर्नल डागर बताते हैं कि वे किसी बात पर दीक्षा से बहुत नाराज़ हो गए थे. नाराज़गी में उन्होंने दीक्षा को गुस्से में बहुत डांटा, लेकिन दीक्षा की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई दी. बाद में उन्हें एहसास हुआ कि दीक्षा की मशीन की बैटरी ही ख़त्म हो चुकी थी जिसकी वजह से वह डांट का एक भी हिस्सा नहीं सुन पाईं.

वो हंसते हुए कहते हैं, ‘गुस्सा उतरने के बाद मैंने सोचा कि ठीक ही है जो नहीं सुना. लेकिन कई बार हम एक ही बात को बार-बार कहते हैं. तो वो झल्लाकर कहने लगती है कि कितनी बार कहोगे पापा, मैंने सुन लिया."

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पढ़ाई में रुकावट

दीक्षा 12वीं की छात्रा हैं, लेकिन अपने टूर्नामेंट की वजह से उन्हें अलग-अलग जगह जाना पड़ता है, जिसकी वजह से वो रोज़ाना स्कूल नहीं जा पातीं.

यही वजह है कि दीक्षा अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद ही प्रोफ़ेशनल गोल्फ़र बनना चाहती हैं. 18 साल की उम्र में वो प्रोफ़ेशनल गोल्फ़र बन सकती हैं.

दीक्षा ने साबित किया है कि वो किसी से कम नहीं हैं.

कर्नल डागर चाहते हैं कि उनकी बेटी दीक्षा एशियन गेम्स के साथ-साथ अगले ओलंपिक में भी देश के लिए गोल्ड मेडल लाए.

वो चाहते हैं कि लोग दीक्षा की शारीरिक दिक्कत की नहीं, बल्कि उनकी काबिलियत की बात करें.

वो दूसरे मां-बाप को भी सलाह देते हैं कि बच्चे से उम्मीदें लगाने से पहले उसे उस काबिल बनाने में मदद करें.

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