‘रेत से आगे’ पढ़ते हुए लगता है कि लेखक एक ही समय में कई विधाओं में सक्रिय रहता है. कथा-डायरियों से लेकर स्मृति शेष तक में सामाजिक सरोकार का परिचय मिलता है.
समय कम है और मीलों का सफर बाकी है, ‘रेत से आगे’ किताब के प्राक्कथन की अंतर्ध्वनि यही है. एक अंतर्ध्वनि यह भी है कि आज के बदलते हालात में पाठकों की गिरती संख्या पर चिंता जाहिर करना आवश्यक है. यह किताब जाबिर हुसैन की है, और ‘चाक पर रेत’ का दूसरा हिस्सा है. वे बेहद संवेदनशील व्यक्ति हैं. सक्रिय और सघन राजनीति में भी रहे, तो पूरी संवेदनशीलता के साथ रहे. सौभाग्य है कि साहित्य और समाज में अभी भी गहरी संवेदनायुक्त रचनाओं की अहमियत बची हुई है. इस कारण ‘रेत से आगे’ में उनकी कहानियां, कथा डायरियां, संस्मरण, टिप्पणियां, कविताएं और यहां तक कि उनकी लिखी स्मृति-रेखाएं भी, सब पाठक को एक ऐसी दुनिया में ले जाते हैं, जहां वह भाषा और संस्कार से समृद्ध होता है. हालांकि, रचनाकार के अभीष्ट तक जाने की जो राहें हैं, वे आज की तेज रफ्तार जिंदगी तक पहुंचने की कम ही मोहलत देती हैं.
इस किताब को पढ़ते हुए कई बार लगता है कि लेखक एक ही समय में कई विधाओं में सक्रिय रहता है. कथा-डायरियों से लेकर स्मृति शेष तक छह खंडों में जिस सामाजिक सरोकार का परिचय मिलता है, वह एक संवेदनशील व्यक्ति के रूप में जाबिर हुसैन का सघन सकारात्मक पक्ष है.
दोआबा प्रकाशन से आयी इस किताब के अंतिम खंड में स्मृति शेष व्यक्तियों के नामों पर जाएं, तो वे सिर्फ राजनीति और साहित्य से जुड़े लोग नहीं हैं. प्रख्यात पर्यावरणविद अनुपम मिश्र और वैज्ञानिक यशपाल के न रहने पर वे अपनी प्रतिक्रिया यूं दर्ज करते हैं- ‘जो शख्स दशकों प्रकृति की नैसर्गिकता बनाये रखने की लड़ाई लड़ता रहा हो, अंत में वही प्रकृति उसका साथ नहीं दे सकी. आहत मन से प्रकृति उसे ‘विदा’ कहने को तैयार हो गयी.’ वहीं, प्रो यशपाल पर उनकी प्रतिक्रिया है-
‘प्रो यशपाल एक बड़े वैज्ञानिक तो थे ही, आत्मीयता और प्रेम के सांचे में ढले एक कद्दावर इंसान भी थे. उनके निधन की खबर ने मुझे अतीत के कुहासे में लाकर खड़ा कर दिया है. प्रो यशपाल की तरह के इंसान हमारे बौद्धिक समाज में अब नहीं के बराबर हैं.’ देश की इन दो बड़ी प्रतिभाओं से एक साथ एहसास और व्यवहार के धरातल पर इतना निकट एक संवेदनशील नागरिक ही हो सकता है. ‘रेत से आगे’ की रचनाओं का सच यही है.
मनोज मोहन