केंद्रीय कैबिनेट ने भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) के आईडीबीआई बैंक में 51 फ़ीसदी हिस्सेदारी ख़रीदने के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया है.
एलआईसी के पास पहली ही आईडीबीआई बैंक की 7 से 7.5 फ़ीसदी की हिस्सेदारी है. कैबिनेट के फ़ैसले का मतलब है कि एलआईसी को बैंक में क़रीब 10,000 से 13,000 करोड़ रुपये तक का निवेश करना पड़ सकता है.
अभी वित्त मंत्रालय का काम देख रहे पीयूष गोयल ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि कुछ लोगों को लगता है कि इस क़रार से एलआईसी पर कोई नकारात्मक असर पड़ेगा, लेकिन इसके उलट मैं देश को बताना चाहता हूं कि ये एक शानदार डील होगी और आईडीबीआई की 1916 शाखाएं एलआईसी के लिए खुल जाएंगी.
(बीबीसी संवाददाता मानसी दाश ने इस मुद्दे पर बिज़नेस पत्रकार शिशिर सिन्हा से बात की)
एलआईसी धारकों के लिए चिंता का विषय
एलआईसी में निवेश करने वालों के लिए ये एक चिंता का विषय है. उनमें ये डर बना हुआ है कि क्योंकि एलआईसी को जब अपनी जेब से 10 से 13 हज़ार करोड़ रुपये जब देने पड़ेंगे तो निश्चित रूप से ये पैसा पॉलिसी धारकों द्वारा दी गई प्रीमियम राशि में से दिया जाएगा.
अब इससे एलआईसी की कमाई पर और एलआईसी के अब तक के जो फंड बने हुए हैं उन पर असर पड़ेगा. ऐसे में कुछ हद पॉलिसी धारकों के मन में समाया ये डर लाज़मी है. ये संभव है कि पॉलिसी धारकों को जो रिटर्न मिलता था उसमें कुछ कमी हो जाए.
लेकिन सरकार ये दावा कर रही है कि ऐसा कुछ नहीं होगा क्योंकि जिस तरह इस क़रार को बनाया गया है उसमें किसी को नुकसान नहीं होने वाला है. और एलआईसी ने अपने निवेश के माध्यम से जो कमाई की है उसी से पैसे का भुगतान किया जाएगा. ऐसे में इससे पॉलिसी धारकों को कोई नुकसान नहीं उठाना पड़ेगा.
लेकिन इसके बावजूद भी कुछ हद तक ये आशंका बनी हुई है.
LIC द्वारा IDBI को घाटा से उबारना कितना सही
इस मामले में सरकार की नाकामी से ज़्यादा अहम बात ये है कि एक सरकारी बैंक जिसका एनपीए 25 फ़ीसदी तक पहुंच जाना वाकई में चिंता का विषय है.
ऐसा इसलिए है कि क्योंकि क्या बैंक ने जिन्हें कर्ज दिए उनका सही से आकलन नहीं कर पाई कि वे कर्ज लौटा पाएंगे या नहीं. ये बैंक की ग़लती है. हम लोग बार बार ये देख रहे हैं कि करदाताओं का पैसा सरकारी बैंकों में बार-बार डाला जा रहा है जो कि एक ग़लत संकेत देता है. इससे करदाताओं को ये महसूस होता है कि उसने जिस मक़सद से पैसे दिए थे उसका इस्तेमाल कहीं और हो रहा है.
ऐसे में मैं ये कहूंगा कि आपकी बैंकिंग व्यवस्था में काफ़ी कुछ बदलाव लाने की ज़रूरत है और काफ़ी ज़िम्मेदारी तय करने की ज़रूरत है.
अब तक हमने जो पैसे दिए उनका कुछ नहीं हो सकता. उदाहरण के लिए, आईडीबीआई बैंक में सरकार ने पिछले तीन सालों में 16 हज़ार करोड़ रुपये डाले हैं जो कि करदाताओं का पैसा था. ऐसे में कहीं न कहीं जवाबदेही सुनिश्चित करनी पड़ेगी.
क्या एलआईसी बैंकिंग बिजनेस में घुस सकती है?
एलआईसी बैंक का कामकाज नहीं चलाएगी. इस डील के बाद एलआईसी को आईडीबीआई के 1900 से ज़्यादा शाखाओं का नेटवर्क मिलेगा.
इन शाखाओं में काम करने वाले लोगों के रूप में एलआईसी को प्रशिक्षित मानव संसाधन मिलेगा जो कि उनका बैंकिंग व्यापार चलाएगा. फ़िलहाल एलआईसी के लगभग 11 लाख एजेंट हैं.
इनकी मदद से एलआईसी डोर स्टेप बैंकिंग की सुविधा दे सकता है जिसके ज़रिए कम लागत पर जुटाया गया पैसा मिल जाएगा. ऐसे में ये नहीं है कि एलआईसी के अधिकारी बैंक चलाएंगे. बल्कि आईडीबीआई के कर्मचारी ही काम करेंगे लेकिन मालिकाना हक़ एलआईसी के पास आ जाएगा.
क्या यही मैन पावर एनपीए के लिए ज़िम्मेदार नहीं?
ये अपने आप में एक विडंबना है बैंक में उसी मैन पावर के ज़रिये काम किया जाएगा लेकिन सरकार ये भरोसा दिलाने की कोशिश कर रही है कि हम जवाबदेही तय करेंगे ताकि लोग अब तक के कामकाज की शैली से हटकर नई तरह से काम कर पाएं.
उन्हीं की जानकारी में जो अब तक काम हुआ है वो आगे न हो और लोग बेहतर ढंग से काम कर पाएं. अब ये अलग बात है कि मालिकाना हक़ सरकार के पास रहे या एलआईसी के पास रहे. लेकिन महत्वपूर्ण बात ये है कि अगर मैन पावर जवाबदेह होकर काम करेगा तो हम इस एनपीए की स्थिति से बच पाएंगे.
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