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क्रिकेट का वो बल्ला और अमरीका

ब्रजेश उपाध्याय बीबीसी संवाददाता, वॉशिंगटन आरा मशीन से चुराई लकड़ी और पड़ोस के बढ़ई की हज़ारों मिन्नतों से बना था वो क्रिकेट का बल्ला. सात-आठ ईंटों को एक पर एक रखकर बने विकेट के सामने लकड़ी के उस पटरे को लेकर मोहल्ला क्रिकेट के गावस्कर, विश्वनाथ और ज़हीर अब्बास जब बैटिंग करने उतरते थे तो […]

आरा मशीन से चुराई लकड़ी और पड़ोस के बढ़ई की हज़ारों मिन्नतों से बना था वो क्रिकेट का बल्ला.

सात-आठ ईंटों को एक पर एक रखकर बने विकेट के सामने लकड़ी के उस पटरे को लेकर मोहल्ला क्रिकेट के गावस्कर, विश्वनाथ और ज़हीर अब्बास जब बैटिंग करने उतरते थे तो इसी अंदाज़ में कि आज तो माइकल होल्डिंग हों या डेनिस लिली किसी की ख़ैर नहीं है.

और फिर कॉर्क की गेंद पूरी रफ़्तार से आती थी, बल्ले से टकराती थी. जाती कहां थी ये याद नहीं लेकिन उस पटरे को थामने वाले हाथों में जो झनझनाहट होती थी, जो करंट लगने का एहसास होता था वो अब भी याद है. फिर भी उस लकड़ी के पटरे को संजो कर रखा जाता था. किसी ने पेन से उस पर ब्रैडमैन भी लिख रखा था.

फिर मोहल्ले में आया एक रईसज़ादा. उसके पास था क्रिकेट का वो बैट जिसकी तस्वीरें हमने खेल-खिलाड़ी और स्पोर्ट्स वर्ल्ड के पन्नों पर देखी थीं. वो बल्ला हम में से ज़्यादातर के लिए एक तरह का सपना था जिसे हम ज़िंदा रखते थे, तस्वीर वाले उन पन्नों को स्कूल की कॉपी-किताबों पर जिल्द चढ़ाकर.

वो अपना बैट लेकर आया हमारे साथ खेलने. लेकिन उसकी एक शर्त थी. बल्ला उसका है तो सबसे पहले बैटिंग वो करेगा. हमें शर्त मंज़ूर थी और धीरे-धीरे हमें उस बल्ले की आदत पड़ने लगी. हमारा लकड़ी का पटरा अब रनर्स बैट की तरह इस्तेमाल होता था. लेकिन फिर कुछ और भी हुआ.

झुंझलाहट और आदत

हम उस रईसज़ादे से बेहतर बैटिंग करने लगे. मैदान में वो बल्ला उससे ज़्यादा दूसरे के हाथों में होता. रईसज़ादे की झुंझलाहट बढ़ने लगी थी. बल्ले को ऐसे नहीं वैसे पकड़ो, उसे ज़मीन पर मत पटको की शिकायतें तेज़ होने लगीं. और फिर उसने एक नया बाउंसर डाला.

वो जैसे ही आउट होता, बल्ला लेकर घर चल देता. कहता होमवर्क का टाइम हो गया, ट्यूशन के लिए सर आने वाले हैं. खेल वहीं ख़त्म हो जाता. हमारी आदत इतनी ख़राब हो चुकी थी कि लकड़ी के उस पुराने पटरे से खेलना अब हमें गवारा नहीं था. हम अब उसके ग़ुलाम थे.

आगे की कहानी फिर कभी. लेकिन जब ओबामा जी ने अफ़गानिस्तान में खेल समेटने का एलान किया तो पता नहीं क्यों बचपन का वो रईसज़ादा याद आ गया.

ज़रूर उनकी भी होमवर्क की मजबूरियां रही होंगी. घरवालों से उन्होंने कह रखा था कि 2014 के आख़िर तक खेल ख़त्म हो जाएगा, समय रहते घर लौट आएंगे, सो हो गया. खेल अभी पूरा नहीं हुआ था उससे क्या फ़र्क पड़ता है.

पांच साल पहले ओबामा जी ने भाषण दिया था कि अफ़ग़ानिस्तान में फ़ौज की संख्या एक लाख से ऊपर पहुंचाकर जीत हासिल करेंगे, अफ़गान नागरिकों के साथ एक लंबा रिश्ता कायम करेंगे, मिलकर अल क़ायदा को ख़त्म करेंगे, लोकतंत्र को मज़बूत करेंगे, गांव और शहरों में स्कूल और कॉलेज खुलेंगे, लड़कियां भी आज़ादी से पढ़ेंगी, नौकरियां करेंगी.

सब तो हासिल हो गया.

अमन और शांति

अब अफ़गानिस्तान चमक रहा है. तालिबान या अल क़ायदा का दूर-दूर तक अता-पता नहीं, चुनाव हो चुके हैं, दूसरा दौर होने वाला है, नई सरकार आने वाली है. अफ़गान फ़ौज अब किसी से भी टक्कर ले सकती है. अमन और शांति का बोलबाला है.

ऐसा नहीं है क्या? चलिए कोई बात नहीं. अब ओबामा जी का कहना है कि सब कुछ ठीक करने की ज़िम्मेदारी अमरीका की तो है नहीं, अफ़गानिस्तान का भविष्य अफ़गान लोगों को तय करना है.

सर, प्रजेंट ठीक हो जाए तब तो फ़्यूचर की बात करें. हमने कब कहा कि सब कुछ अमरीका की ज़िम्मेदारी है. लेकिन खेल पूरा तो हो जाने देते. थोड़े दिन और रुक जाते तो अच्छा होता. ऊपर से आपने ये भी कह दिया है कि साल 2016 के बाद मैदान बिल्कुल खाली कर देंगे यानी अल क़ायदा अब नए सिरे से घर बसाने की तैयारी शुरू कर ले. बस दो साल किसी तरह से काटना है.

साल 1989 के बाद जब अमरीका ने मैदान खाली किया था तो ओसामा एंड पार्टी को एक से एक हथियार मिले थे. इस बार तो सुना है कि ज़वाहिरी एंड कंपनी को गाड़ियां भी मिलेंगी.

अफ़ग़ानिस्तान से लौटे एक अमरीकी फ़ौजी ने मुझे बताया कि आज के दिन अगर पूरी अमरीकी फ़ौज वहां से लौट आती है, तो जो बख्तरबंद गाड़ियां अफ़गान फ़ौज के लिए छोड़ी गईं हैं. उनमें एक महीने के बाद तेल डलवाने का भी पैसा नहीं रहेगा. तेल तो फिर सऊदी अरब से ही आएगा न!

ओबामा की तारीफ़

ओबामा जी की मजबूरी वैसे सबको समझ में आ रही है. जब वेस्ट प्वाइंट मिलिट्री एकेडमी से इस साल पास होने वाले नए फ़ौजियों से उन्होंने कहा कि मुमकिन है कि उनमें से किसी को अब इराक़ या अफ़गानिस्तान नहीं जाना पड़ेगा तो तालियों की गड़गड़ाहट सुनने लायक थी. बहुत दिनों बाद उन्होंने अपने किसी काम के लिए तारीफ़ सुनी है.

कमांडर इन चीफ़ के नाते उन्हें एक और बात पता चली है. कह रहे हैं कि जंग ख़त्म करना जंग शुरू करने से कहीं ज़्यादा मुश्किल है. इतने बड़े ओहदे पर हैं, ये छोटी-छोटी बातें कभी-कभी निकल जाती हैं दिमाग़ से.

उनकी मुश्किल तो एक और भी है. दुनिया की सबसे बड़ी फ़ौज को घर बिठाकर तो खिलाएंगे नहीं. वैसे भी अब दुनिया के दूसरे देशों को अमरीकी बल्ले की, मेरा मतलब फ़ौज की, ज़रूरत है. सीरिया और कुछ अफ़्रीकी देश कब से इंतज़ार कर रहे हैं.

तो अब देखिए अगला ट्रिप कहां का लगता है. गॉड ब्लेस अमरीका!

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