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बार-बार मंचित होता एक नाटक

मोहन राकेश के नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ में सत्ता, राज्य, स्त्री, कृति इत्यादि से संबंधित जीवन की विडंबनाओं के सूत्र छुपे हुए हैं. इसका द्वंद्व रोजमर्रा के द्वंद्व हैं, जहां अधिकार और संवेदना के प्रश्नों के बीच, भावना और यथार्थ के बीच टकराहट चलती रहती है. मोहन राकेश के प्रसिद्ध नाटक ‘आषाढ़ का एक […]

मोहन राकेश के नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ में सत्ता, राज्य, स्त्री, कृति इत्यादि से संबंधित जीवन की विडंबनाओं के सूत्र छुपे हुए हैं. इसका द्वंद्व रोजमर्रा के द्वंद्व हैं, जहां अधिकार और संवेदना के प्रश्नों के बीच, भावना और यथार्थ के बीच टकराहट चलती रहती है.

मोहन राकेश के प्रसिद्ध नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ के प्रकाशन का यह साठवां साल है. रंगकर्मी बार-बार इस नाटक के मंचन की ओर लौटते हैं. क्योंकि नाटक की अर्थ ध्वनियां और छवियां हमारे समय को अभिव्यक्त करती हैं, अर्थ की बहुस्तरीयता का अनुभव हर संवाद में, संवादों के बीच के मौन में होता है. यह इस नाटक की साहित्यिक खूबी भी है और उपलब्धि भी.
नाटक के क्लाइमेक्स में अथ यानी शुरुआत से आरंभ करने का इच्छुक कालिदास ज्यों मल्लिका के बच्चे के रोने की आवाज सुनता है, अपना मन बदल देता है. कालिदास के लिए मल्लिका के जीवन का परिवर्तन असह्य हो जाता है. वह एक भारी वाक्य ‘यह इच्छा का समय के साथ द्वंद्व था’ पीछे छोड़कर निकल जाता है. क्या यह द्वंद्व पुरुष का द्वंद्व नहीं! क्या यह द्वंद्व मनुष्य के जीवन में अनवरत नहीं चलता? समयजनित परिस्थिति से इस द्वंद्व का रिश्ता है.
कला और कृतिकार को सत्ता हमेशा से प्रलोभन से कब्जे में लेना चाहती है. जैसे: व्यापकता, संसाधन, पहुंच, सुविधाएं इत्यादि. ऐसा लगता है कि ये रचने को आसान बनायेगी और कीर्ति भी फैलेगी, लेकिन अंतत: यह प्रतिभा को खाली कर देती है. तर्क दिया जाता है कि प्रतिभा स्थानीयता में सीमित क्यों रहे? लेकिन कालिदास अंत में स्वीकार्यता है कि उसने जो लिखा, वह उसके अभाव और असुविधा के बीच कम व्यापक और स्थानीय जीवन की पूंजी थी. सत्ता की क्रूर परिस्थितियां जब उसे वंचित बना देती हैं, तब वह मूल पर लौटता है. सत्ता और सुविधा को पाने की ललक क्या हमारे समय की इच्छा नहीं है?
नाटक में मल्लिका का एक बार मंच पर आगमन के बाद प्रस्थान नहीं होता. हां, झंझावातों का उसके जीवन में प्रवेश-प्रस्थान होता रहता है. नैतिकता के कई मानदंडों पर वह खरी न हो, लेकिन उसके चरित्र में एक उदात्त है. अभावग्रस्त जीवन में उसने संवेदनाएं बचा रखी है, जिससे मनुष्य दूसरे के लिए कुछ करता है.
मल्लिका और अंबिका इस नाटक के दो विरोधी चरित्र हैं. शुरुआत की मल्लिका ही बाद में अंबिका का रूप ले लेती है लेकिन बेजार-सी. अंबिका के इतिहास का हमें पता नहीं, लेकिन वह शुरू से ही भविष्य जानती है. इसलिए मल्लिका का रोमान उसे जरा भी नहीं भाता और वह मल्लिका को यथार्थ की जमीन पर उतारती रहती है. आखिर पुरुष अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के पीछे स्त्रियों को रोजमर्रा के कामों के लिए ही तो छोड़ जाते हैं, लेकिन मल्लिका की रुचि इन कामों में कम है, इसलिए उसका घर अंबिका के घर की तरह ‘परिष्कृत’ नहीं. वह उज्जयनी के व्यापारियों से कालिदास के ग्रंथ मंगवाकर सहेजती है.
नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ यह दिखाता है कि राज्य एक मनुष्य के जीवन में प्रवेश कर जीवन को कैसे तहस नहस करता है. राज्य दावा करता है कि वह हमारे जीवन को बदल देगा. लेकिन, उसके द्वारा किया गया बदलाव मातूल की अपंगता के रूप में सामने आता है.
‘आषाढ़ का एक दिन’ में सत्ता, राज्य, स्त्री, कृति इत्यादि से संबधित जीवन की विडंबनाओं के सूत्र छुपे हैं. इसका द्वंद्व रोजमर्रा के द्वंद्व हैं, जहां अधिकार और संवेदना के प्रश्नों के बीच, भावना और यथार्थ के बीच टकराहट चलती रहती है. यह नाटक भागती हुई जिंदगी में एक नजर ठहरकर अपने भीतर देखने का आह्वान करता है कि हम कितना जर्जर हैं और कितना बचे हुए हैं.

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