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क्या यह दो-ध्रुवीय राजनीति की शुरुआत है?

।। प्रमोद जोशी, वरिष्ठ पत्रकार ।। कांग्रेस के सामने है अस्तित्व का सवाल वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव परिणाम की अनुगूंज अब तक देश और दुनिया में महसूस की जा रही है. इस चुनाव के परिणाम ने भारतीय राजनीति के लिए कई संकेत दिये हैं. आम जनता का मिजाज भांप पाने में असफल रहे कई […]

।। प्रमोद जोशी, वरिष्ठ पत्रकार ।।

कांग्रेस के सामने है अस्तित्व का सवाल

वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव परिणाम की अनुगूंज अब तक देश और दुनिया में महसूस की जा रही है. इस चुनाव के परिणाम ने भारतीय राजनीति के लिए कई संकेत दिये हैं. आम जनता का मिजाज भांप पाने में असफल रहे कई राजनीतिक दलों के लिए सबक दिये हैं. बहुदलीय भारत में क्या अब दो ही ध्रुव रहेंगे, या ऐसी घोषणा जल्दबाजी है? पढ़िए यह टिप्पणी :

चुनाव में जीतने के बाद वाराणसी में नरेंद्र मोदी ने कहा, पहले सरकार चलाने के लिए गंठबंधन करना पड़ता था. अब प्रतिपक्ष है नहीं. अब प्रतिपक्ष बनाने के लिए गंठबंधन करना पड़ेगा. इस चुनाव के बाद कम से कम दो सच्चइयां उजागर हुई हैं. अभी तक देश की राजनीति के तीन कोने थे. एक कांग्रेस, दूसरा भाजपा और तीसरा गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा विपक्ष. पर अब तीन नहीं दो कोने हो गये हैं.

एक भाजपा और दूसरा गैर-भाजपा.

बिहार में नीतीश कुमार के इस्तीफे की गहमा-गहमी के बीच एक प्रस्ताव आया कि जदयू और राजद एक साथ आ जायें. क्या व्यावहारिक रूप से यह संभव है? अभी तक बिहार में लालू को रोकने का श्रेय नीतीश कुमार को दिया जा रहा था. अब यह काम भाजपा ने संभाल लिया है.

ऐसे में क्या जदयू और राजद एक साथ जा सकते हैं? सेक्युलरिज्म की अवधारणा वास्तविक है तो फिर तमाम ताकतें एकसाथ क्यों नही आतीं? ऐसी पहेलियां दूसरे राज्यों में भी बूझी जायेंगी.

चुनाव परिणाम आने के बाद पहले जयललिता ने मोदी को और फिर मोदी ने जयललिता को बधाई देकर गर्मजोशी का माहौल बनाया है. जयललिता को एनडीए में शामिल करने की जरूरत मोदी को नहीं है, पर जयललिता को मोदी की जरूरत है. चुनाव के ठीक पहले मोदी और ममता के बीच कटु वक्तव्यों की बौछारें हुईं, पर जरूरत तो ममता को भी मोदी की होगी. उधर नवीन पटनायक ने केंद्र के प्रति अपने सकारात्मक रु ख की घोषणा करके साफ कर दिया है कि वे भाजपा विरोधी कैंप में नहीं हैं. तब विपक्ष में है कौन?

ममता बनर्जी ने जयललिता से बातचीत की है कि क्यों न हम मिल कर एक ब्लॉक बनायें और नेता विपक्ष का आधिकारिक पद और लोकसभा के उपाध्यक्ष पद पर अपने प्रत्याशी को बैठायें. कांग्रेस की लोकसभा में 44 सीटें हैं. ममता की 34 और जयललिता की 37 जोड़ने पर संख्या होती है 71. इसमें नवीन पटनायक की 20 और जोड़ दें तो यह संख्या 91 हो जाती है. क्या यह ब्लॉक विपक्ष की दावेदारी पेश करेगा. ऐसा हुआ तो कांग्रेस आधिकारिक विपक्ष के रूप में भी नहीं बचेगी.

इस चुनाव के पहले कयास यह था कि किसी को साफ बहुमत नहीं मिला तो तीसरे मोरचे के किसी व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनाया जाए. अंतिम दौर में कांग्रेस ने अपने सारे घोड़े खोल दिये थे. लक्ष्य एक था कि मोदी न आने पायें. क्या मोदी अब कांग्रेस को विपक्ष के रूप में बने रहने देंगे?

हाल के दिनों में नरेंद्र मोदी के खिलाफ कांग्रेस के बाद सबसे बड़ा मोरचा तीसरे मोरचे का था. इसके मुख्य घटक थे वाम मोरचा, जदयू, सपा और जदएस. इनकी सीटों को जोड़ दें तो 20 होती हैं. यानी तीसरे मोरचे की ताकत बीजद के बराबर है.

चुनाव परिणाम आने के कुछ दिन पहले नरेंद्र मोदी ने कहा था कि हमें साफ बहुमत मिलने वाला है, पर हमारे दरवाजे सबके लिए खुले हैं. हम सबके सहयोग से काम करेंगे. मोदी के उस निमंत्रण के पीछे कुछ बातें समझ में आती हैं. एक तो यह कि राज्यसभा में उनकी स्थिति अच्छी नहीं है. महत्वपूर्ण कानूनों को पास कराने के लिए उन्हें दूसरे सहयोगियों की जरूरत होगी. दूसरी ओर उनका एजेंडा केंद्र-राज्य संबंधों को फिर से परिभाषित करने का है.

इस सिलसिले में जयललिता, ममता और नवीन पटनायक तीनों ही महत्वपूर्ण हैं. नये राज्य सीमांध्र में चंद्रबाबू नायडू मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं. तेलंगाना में के चंद्रशेखर राव मुख्यमंत्री बनेंगे. दोनों का सहयोग मोदी को चाहिए. नायडू पहले से ही मोदी कैंप में हैं. महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और संभवत: दिल्ली विधानसभा के चुनाव भी अगले कुछ महीनों में होंगे. इन राज्यों से कांग्रेस को बाहर करने की भी मोदी की योजना है. इस राजनीति के बरक्स क्या कोई गैर-भाजपा राजनीति भी विकसित होगी?

कांग्रेस के सामने अस्तित्व का सवाल है. देखना होगा कि वह वैचारिक और संगठनात्मक रूप से किस रास्ते पर जाती है. क्या वह किसी वामपंथी एजेंडे के साथ सामने आयेगी? यानी मनमोहन सिंह की नीतियों के पलट? इस स्थिति में उसका वाम मोरचे के साथ तालमेल हो सकता है. पर यह भी देखें कि भारत में वाम मोरचे का भविष्य क्या है.

वर्ष 2004 में उसकी सीटें थीं 59. उसने कांग्रेस का समर्थन करके न्यूनतम साझा कार्यक्रम के रूप में अपना राजनीतिक एजेंडा भी आगे बढ़ाया. पर मनमोहन सिंह सरकार के साथ उसकी नहीं बनी. वाम मोरचा और डीएमके ने मिल कर सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों के विनिवेश को रोका. पर मनमोहन सिंह ने अमेरिका जा कर रक्षा और नाभिकीय सहयोग की नींव डाल दी.

यह रिश्ता अंतत: टूटा, जिसका नुकसान वाम दलों को ही हुआ. सन 2009 के चुनाव में वोटर ने 59 से घटा कर उसकी ताकत 24 की कर दी. और अब इस चुनाव में यह संख्या 10 हो गयी है. उसका बंगाल का गढ़ टूट चुका है. भाजपा केरल में भी प्रवेश कर गयी है. केरल विधानसभा के चुनाव दो साल बाद होंगे. वहां के जमीनी बदलावों पर नजर रखने की जरूरत भी है.

वाम मोरचा ने उभरते भारतीय मध्यवर्ग की आकांक्षाओं को नहीं पहचाना. सन 2011 में बंगाल विधानसभा का चुनाव हारने के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव एबी बर्धन ने दिल्ली के एक अखबार से कहा कि हम मध्य वर्ग से खुद को नहीं जोड़ पाये. पूंजी के वैश्वीकरण को भारत की कम्युनिस्ट पार्टियां समझ नहीं पायी है. भारत में वामपंथी आंदोलन सिर्फ औद्योगिक कामगारों के सहारे नहीं चल सकता. खेत-मजदूर और किसान गांव के दो विपरीत ध्रुव हैं. ऐसे ही तमाम वैचारिक प्रश्नों पर वामपंथी पार्टियों को विचार करने की जरूरत है. देश की जनता ने वामपंथियों को परास्त किया है, खारिज नहीं.

वर्ष 1991 मे जिस नयी आर्थिक नीति की शुरुआत हुई उसे लेकर हमारे यहां या तो पूर्ण समर्थन है या पूर्ण विरोध. किसी भी देश के कारोबारी उसके निर्माता होते हैं. वे तमाम लोगों के रोजगार का इंतजाम करते हैं. पर राजनीति, बिजनेस, ब्यूरोक्र ेसी और माफिया का गंठजोड़ भी खतरनाक होता है.

2जी घोटाला सबसे बड़ा प्रमाण है. दूसरी ओर बंद और घेराव का उजाड़वादी दर्शन भी कुछ नहीं देता. यह बात हम फलते-फूलते वस्त्र उद्योग की तबाही के रूप में देख चुके हैं. वस्त्र उद्योग एक बड़े वर्ग को रोजगार देता था. उसके आधुनिकीकरण की जब जरूरत थी, तब वह आंदोलनों, माफिया-संग्रामों में उलझा रहा.

वाम मोरचा ने बंगाल में इस बात को जब समझा तब तक राजनैतिक कमान उसके हाथ से निकल चुकी थी. आर्थिक विकास के विपरीत प्रभावों रोकने वाली ताकत भी चाहिए. इस लिहाज से वामपंथ की उपयोगिता कभी खत्म नहीं होगी. उसे नये ढंग से परिभाषित करने की जरूरत जरूर है. यह बात पूरी राजनीति पर लागू होती है.

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