‘नौकरी का लालच देकर उन लोगों ने मेरे बेटे की जान ले ली. अरिंदम को मेरे सामने ले आएं. मैं अपने हाथों से उसे गोली मारना चाहती हूं.’
यह कहते हुए लीला प्रामाणिक की भीगी आंखों में आग धधकने लगती है. सोमवार को कोलकाता से कोई सौ किमी. दूर नदिया ज़िले के शांतिपुर इलाके में पंचायत चुनावों के दौरान हुई हिंसा में जिस संजीत प्रामाणिक (27) की मौत हो गई, लीला उन्हीं की मां हैं.
वह जिस अरिंदम का नाम ले रही हैं वह अरिंदम भट्टाचार्य शांतिपुर के तृणमूल कांग्रेस विधायक हैं. संजीत भी तृणमूल कांग्रेस के समर्थक थे. हिंसा के बाद शांतिपुर अपने नाम के ठीक उलट यानी पूरी तरह अशांत है.
गांव में पसरा सन्नाटा
नेशनल हाइवे-12 के किनारे बसे इस गांव में संजीत की मौत के बाद मरघट जैसा सन्नाटा है. फ़िज़ा में फैले तनाव की गंध भी आसानी से महसूस की जा सकती है.
रविवार को हुई हिंसा के निशान अब भी पूरे रास्ते और इलाके में बिख़रे नजर आते हैं. कहीं जल चुके बैलेट बॉक्स हैं तो कहीं मोटर साइकिलें.
रबींद्र भारती विश्वविद्यालय से बांग्ला साहित्य में पोस्ट ग्रेजुएशन की डिग्री लेने वाले संजीत की मौत पर गांव में मिला-जुला माहौल है.
इस मुद्दे पर गांव दो गुटों में बंटा है. संजीत के घरवाले और गांव वाले दोनों ही मीडिया से बात नहीं करना चाहते हैं.
संजीत के चाचा गौतम प्रामाणिक कहते हैं, ‘अब हम इस बारे में कोई बात नहीं करना चाहते. हमारा भोला-भाला संजीत राजनीति के दाव-पेंच की बलि चढ़ गया.’
वहीं गांव का एक युवक कहता है, ‘संजीत भले सीधा हो, वह ग़लत लोगों की संगत में काम कर रहा था.’
दरअसल, यह पंचायत चुनावों के दौरान हुई हिंसा का पहला ऐसा मामला है जहां किसी व्यक्ति की मौत विपक्षी दलों के नहीं बल्कि गांव वालों के हमले में हुई है.
स्थानीय लोगों का आरोप है कि ‘संजीत कुछ तृणमूल कांग्रेस कार्यकर्ताओं के साथ एक मतदान केंद्र में जाकर फ़र्जी वोट डाल रहा था. इसकी सूचना मिलते ही तीर-धुनष से लैस स्थानीय लोग भारी संख्या में मौके पर पहुंच गए. बाकी लोग तो भाग गए, लेकिन संजीत समेत चार लोग भीड़ के हत्थे चढ़ गए. बेरहमी से पिटाई की वजह से संजीत ने अस्पताल में दम तोड़ दिया. अब पुलिस के डर के मारे गांव के ज़्यादातर लोग फ़रार हो गए हैं.’
विधायक पर आरोप
संजीत के माता-पिता बुनकर हैं. संजीत उनकी इकलौती संतान थे. वह एमए करने के बाद नौकरी के लालच में स्थानीय विधायक के साथ ऑफ़िस असिस्टेंट के तौर पर काम कर रहे थे.
संजीत के पिता रंजीत बताते हैं ‘हमने अपनी इच्छाओं को दबा कर संजीत को पढ़ाया था. नौकरी के लालच में ही वह स्थानीय विधायक अरिंदम के संपर्क में था.’
संजीत के पिता का कहना है कि विधायक ने उनको नौकरी दिलाने का भरोसा दिया था.
संजीत की मां लीला बताती हैं, ‘हम उसके राजनीति में जाने के ख़िलाफ़ थे. हमने उसे चेताया भी था. लेकिन नौकरी के लालच में वह राजनीति में शामिल हुआ था. अब उसे जान देकर अपने इसकी कीमत चुकानी पड़ी है.’
घरवालों का आरोप है कि विधायक के कहने पर ही वह दूसरे लोगों के साथ मतदान केंद्र पर गए थे.
लेकिन दूसरी ओर, स्थानीय विधायक अरिंदम भट्टाचार्य कहते हैं, ‘वह तृणमूल कांग्रेस के दफ़्तर में कागज़ात संभालता था. वह कुछ कागज़ देने एक मतदान केंद्र गया था. वहां विपक्ष ने उस पर हमला कर दिया.’
नौकरी का सवाल पूछने पर वो भड़क जाते हैं. ‘मैंने उसे कभी नौकरी का भरोसा नहीं दिया था. मैं कहां से नौकरी दूंगा ?’
मौत का ज़िम्मेदार कौन?
संजीत की मौत के बाद अस्पताल जाने पर अरिंदम को लोगों की भारी नाराज़गी का सामना करना पड़ा था. बाद में उन्होंने मौके से भाग कर अपनी जान बचाई.
कोलकाता और नदिया ज़िले के बीच उत्तर 24-परगना ज़िले के आमडांगा में माकपा कार्यकर्ता तैमूर गाएन के घर में भी सन्नाटा पसरा है.
तैमूर की पंचायत चुनावों के दौरान एक बम विस्फ़ोट में मौत हो गई थी. वह एक मतदान केंद्र के बाहर खड़े होकर लोगों से शांतिपूर्ण तरीके से मतदान की अपील कर रहे थे. उसी समय मतदान केंद्र पर कब्ज़े की लड़ाई शुरू हो गई. इसी दौरान बम विस्फोट में तैमूर को गहरी चोटें आईं. इसके कुछ देर बाद उन्होंने अस्पताल में दम तोड़ दिया.
तैमूर का परिवार शुरू से ही माकपा से जुड़ा रहा है. उसके पिता मुस्तफ़ा गाएन माकपा के स्थानीय सचिव हैं. वह बताते हैं, ‘मेरा बेटा निर्दलीय उम्मीदवार के समर्थन में प्रचार कर रहा था. यहां तृणमूल कांग्रेस का मुकाबला निर्दलीय उम्मीदवार से है.’
उनका आरोप है कि ‘तृणमूल कांग्रेस के लोगों ने उनके बेटे की हत्या कर दी है. दूसरी ओर, तृणमूल कांग्रेस उम्मीदवार बबलू मल्लिक दावा करते हैं कि तैमूर मतदान केंद्र के बाहर खड़े होकर लोगों को भड़का रहे थे. उनकी जेब में बम रखा था. उसके फटने से ही तैमूर की मौत हो गई. तृणमूल का इससे कोई लेना-देना नहीं है.’
बंगाल के विभिन्न हिस्सों में रविवार की हिंसा के दौरान कम से कम 18 लोग मारे गए हैं और 50 से ज्यादा घायल हो गए.
ऐसे ज़्यादातर मामलों में मरने वाले वही लोग हैं जो राजनीति में ज़्यादा सक्रिय नहीं थे. शायद राजनीति के दाव-पेंच नहीं जानने की वजह से ही उनको हिंसा में फंस कर अपनी जान से हाथ धोना पड़ा.
संजीत के पिता रंजीत कहते हैं, ‘मेरा तो इकलौता चिराग चला गया. नेता लोग तो लड़-भिड़ कर बाद में हाथ मिला लेंगे. लेकिन मेरे तो भविष्य के तमाम सपने और उम्मीदें संजीत की चिता के साथ ही जल कर राख हो गईं.’
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