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”मुझे देखने के लिए सड़क पर रुक जाते थे लोग”

वह रोज सुबह पांच बजे उठकर, फटाफट घर का काम खत्म करके दफ्तर के लिए चली जाती थीं. वहां चिट्ठियों का झोला उठाए लोगों को संदेशे पहुंचाने निकल पड़ती थीं. लेकिन, अब उनकी जिंदगी में सब बदल गया है. नई जिंदगी कैसी होगी ये सवाल पूछने पर ही इंद्रावती की आंखों में आंसू आ जाते […]

वह रोज सुबह पांच बजे उठकर, फटाफट घर का काम खत्म करके दफ्तर के लिए चली जाती थीं.

वहां चिट्ठियों का झोला उठाए लोगों को संदेशे पहुंचाने निकल पड़ती थीं. लेकिन, अब उनकी जिंदगी में सब बदल गया है.

नई जिंदगी कैसी होगी ये सवाल पूछने पर ही इंद्रावती की आंखों में आंसू आ जाते हैं.

35 साल से ज्यादा समय तक महिला डाकिया रहने वालीं इंद्रावती कहती हैं, "मैं अपने दफ्तर और काम को कभी नहीं भूल पाऊंगी. लोगों की आवाज़ें, उनकी बातें याद आती रहेंगी."

इंद्रावती एक महिला डाकिया थीं और अब वह रिटायर हो चुकी हैं. लेकिन, 35 सालों की कई यादें उनके चेहरे पर अब भी मुस्कुराहट बिखेर देती हैं.

डाकिये की राह देखते थे…

इंद्रावती के सफ़र की शुरुआत तब होती है जब लोग टकटकी लगाए डाकिये की राह देखते थे लेकिन उस वक्त महिला डाकिये के बारे में सोचना चिट्ठी की जगह मैसेज ऐप के बारे में सोचने जैसा था.

लेकिन, तब इंद्रावती महिला डाकिया बनीं और उन्होंने डाकिया मतलब पुरुष डाकिया की छवि को जैसे तोड़ दिया.

लोग उन्हें देखकर हैरान होते थे और जानने की कोशिश करते थे कि वो ये काम क्यों कर रही हैं.

इंद्रावती दिल्ली के कनॉट प्लेस में स्थित स्पीड पोस्ट डिपार्टमेंट में काम करती थीं और आसपास के 6-7 किमी. के क्षेत्र में पैदल चिट्ठियां बांटा करती थीं.

‘देखने के लिए रुक जाते थे लोग’

साल 1982 का वो दौर जब इंद्रावती महिला डाकिया के तौर पर नियुक्त हुई थीं तब औरतों के लिए फील्ड का काम करना जैसे नामुमकिन सा था.

इंद्रावती बताती हैं कि महिला डाकिया होना उस वक्त अच्छा काम नहीं माना जाता था. इसलिए वह लोगों को अपने काम के बारे में ठीक से बताती भी नहीं थीं.

उनके कुछ क़रीबी भी इस काम को खराब नजरिये देखते थे.

लेकिन, जब नौकरी के आखिरी दिन इंद्रावती का सम्मान हुआ और घर में भी कार्यक्रम हुआ तो लोगों ने माना कि उनकी कितनी इज्जत है.

उस समय में लोग किसी महिला डाकिया को देखकर क्या सोचते होंगे.

इसके जवाब में इंद्रावती बताती हैं, "जब मैंने काम शुरू किया था तो महिला डाकिया के बारे में लोग सोच भी नहीं सकते थे. जब मैं चिट्टियां देने जाती तो कई लोग मानते ही नहीं थे कि मैं डाकिया हूं. फिर उन्हें कार्ड दिखाना पड़ता था. कई बार तो आसपास के लोग रुककर मुझे देखने लगते."

"लोग सोचते थे कि कोई मजबूरी होने पर ही औरत काम कर सकती है. मुझे कहते भी थे कि इसके पति की मौत हो गई होगी या घर की माली हालत खराब होगी इसलिए ये काम करती है. मेरे साथ साहनुभूति जताते जबकि मुझे इस काम में कोई दिक्कत नहीं थी."

काम का पहला दिन

दफ्तर में भी कई लोग इंद्रावती को हैरानी से देखते.

वह बताती हैं, "उस समय इस विभाग में महिला डाकिया होना अजीब बात थी. एक महिला डाकिया पहले से थी लेकिन वो भी बाद में बाबू बन गई. उस वक्त दूसरे सेक्शन से लोग मुझे देखने आते."

हालांकि, बाद में काफी कुछ बदल गया. इंद्रावती ने बताया कि कुछ समय में लोग उन्हें जानने लगे. उनके इसी काम की तारीफ होने लगी. बल्कि उनकी नियुक्ति के 7-8 साल बाद एक और महिला डाकिया आईं और धीरे-धीरे संख्या बढ़ने लगी.

जब इंद्रावती ने पहले दिन दफ्तर में कदम रखा तो उनके दिमाग में कई सवाल कौंध रहे थे. वह सोच रही थीं कि जिंदगी के 23-24 साल घर में बिताए और अब अकेले बाहरी दुनिया का सामना कैसे करेंगी.

अपने पहले दिन को याद करते हुए इंद्रावती मुस्कुराकर कहती हैं, "मैं वाकई उस दिन डरी हुई थी बल्कि हफ्ते-दस दिन तक मुझे लगा कि ये काम मुझसे नहीं होगा. चिट्ठियों का भारी बैग भी उठाने में दिक्कत होती थी. अनजान घरों में जाने पर शर्म आती थी. अब तो उस बारे में सोचकर हंसी आती है."

चिट्ठियां पढ़ने में आया मजा

एक अनजान डाकिया धीरे-धीरे लोगों का करीबी बन जाता है. वह उनकी चिट्ठियां पढ़कर सुनाता है और लोग उसे अपने दिल का हाल बता देते हैं.

इंद्रावती ऐसे ही कई अनुभवों से गुजरी हैं.

वह बताती हैं, "मुझे अपने पढ़े-लिखे होने की खुशी उस वक्त सबसे ज्यादा हुई जब मैंने लोगों को चिट्ठियां पढ़कर सुनाईं. कई लोग खासकर बुजुर्ग पढ़ नहीं पाते थे. जब मैं उनकी चिट्ठी पढ़ती तो वो खुश होकर मुझे आशीर्वाद देते."

"मैंने कई दुखभरी खबरें सुनाईं तो कई बार मेरे हाथों खुशियां भी पहुंचीं. कई लोग तो मुझे अपने लिए शुभ मानने लगे थे. अच्छी ख़बर होने पर मुझे मिठाई खिलाते. कई मेरा फोन नंबर लेकर रखते और उनके समय के मुताबिक आने के लिए कहते."

इंद्रावती बताती हैं कि उन्हें ये भी मालूम था कि कुछ बच्चे अपने पड़ोस के पते पर लव लेटर मंगवाते हैं ताकि घरवालों को पता न चले. पर उन्होंने कभी किसी को नहीं बताया.

ये लगाव सिर्फ एक तरफा नहीं था बल्कि चिट्ठी लेने वाले भी इंद्रावती को याद करते हैं. उनके दफ्तर के आखिरी दिन फेयरवेल में एक महिला इंद्रावती से मिलने आई थीं.

इंद्रावती उनके घर चिट्ठियां पहुंचाया करती थीं.

दफ्तर जिंदगी बन गया है

इंद्रावती कहती हैं कि उन्हें दफ्तर में घर से ज्यादा प्यार मिला. उनका बाल विवाह हो गया था.

घरवालों के विरोध के बावजूद भाई और ससुर के सहयोग से उन्होंने पढ़ाई की और फिर महिला डाकिया की नौकरी कर ली.

इंद्रावती कहती हैं, "दफ्तर में सभी ने मुझे बहुत प्यार दिया. ट्यूमर के इलाज के बाद जब मैं लौटी तो मुझे स्टेशनरी के काम में रखा ताकि आराम मिल सके. जब फिर से डाकिये की जरूरत हुई तो मुझे बुलाया. लेकिन, तब मैं डरी हुई थी कि अब इतना लंबा चल पाऊंगी या नहीं. मैं तो इस्तीफा भी देने वाले थी लेकिन दफ्तर वालों ने ही मुझे रोक था."

इंद्रावती कहती हैं कि रिटायरमेंट के बाद नए रूटीन की आदत होने में समय लगेगा. अब वो दौर वापस नहीं लौटेगा लेकिन चिट्ठीयों से यादों में नाता जुड़ा रहेगा…

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