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कांग्रेस दूसरा कोण बनी रहेगी

।। अजित साही ।। वरिष्ठ पत्रकार 1996, 1998 और 1999 के चुनाव में सबसे ज्यादा सीटें भाजपा को मिली थीं भारत की सोलहवीं लोकसभा के चुनावों के नतीजे 16 मई को आ जायेंगे. तमाम एग्जिट पोल बता रहे हैं कि कांग्रेस की करारी हार होने जा रही है. अधिकतर का कहना है कांग्रेस अकेले सौ […]

।। अजित साही ।।

वरिष्ठ पत्रकार

1996, 1998 और 1999 के चुनाव में सबसे ज्यादा सीटें भाजपा को मिली थीं

भारत की सोलहवीं लोकसभा के चुनावों के नतीजे 16 मई को आ जायेंगे. तमाम एग्जिट पोल बता रहे हैं कि कांग्रेस की करारी हार होने जा रही है. अधिकतर का कहना है कांग्रेस अकेले सौ सीटें भी नहीं जीत पायेगी. भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी कांग्रेस के बारे में यह दावा पहले से करते रहे हैं. एग्जिट पोल उनके इस दावे पर भी मुहर लगा रहे हैं कि भाजपा अब तक की सर्वाधिक सीटें जीत कर सत्तारूढ़ होगी. अगर वाकई ऐसा होता है, तो आजाद भारत के इतिहास में कांग्रेस की ये सबसे बुरी हार होगी. सवाल है कि इसके बाद कांग्रेस का भविष्य क्या होगा?

सत्ता में रहते हुए कांग्रेस तीन बार चुनाव हारी है- 1977, 1989 और 1996 में. पहली दो बार वो अगले ही चुनाव में जीत कर सत्ता में वापस आ गयी थी. लेकिन 1996 के बाद 1998 और 1999 के अगले आम चुनावों में भी कांग्रेस की हार हुई थी. इन तीनों चुनावों में कांग्रेस लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी भी नहीं बन पायी थी. ऐसा पहले सिर्फ 1977 में हुआ था. 1989 में बहुमत खोकर विपक्ष में आ जाने के बावजूद कांग्रेस लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी रही थी.

वर्ष 1996, 1998 और 1999 के चुनाव में सबसे ज्यादा सीटें भाजपा को मिली थीं. लेकिन, 2004 में कांग्रेस अप्रत्याशित ढंग से सत्ता में आने में सफल रही. 2009 में भी उसके गंठबंधन यूपीए ने अपेक्षा के प्रतिकूल चुनाव जीता. माना जा रहा है कि भ्रष्टाचार, घोटालों और ढलती अर्थव्यवस्था के चलते कांग्रेस की लगातार तीसरी जीत के कोई आसार नहीं हैं. यदि कांग्रेस सचमुच हारती है, तो उसका भविष्य क्या होगा? क्या जैसा कि मोदी कह रहे हैं, कांग्रेस का विघटन हो जायेगा और उस पर सोनिया व राहुल गांधी का वर्चस्व समाप्त हो जायेगा?

गांधी परिवार का विकल्प नहीं

यदि कांग्रेस हारती है तो ऐतिहासिक और तात्कालिक, दोनों ही दृष्टिकोण से कांग्रेस के सर्वनाश की संभावना कम ही दिखती है. इस अटकल में भी दम नहीं लगता है कि पार्टी पर गांधी परिवार की प्रभुसत्ता खत्म हो जायेगी. ऐसा नहीं है कि कांग्रेसजन गांधी परिवार के प्रति विशेष प्रेम रखते हैं.

सोनिया-राहुल की शीर्षस्थता इसलिए अनिवार्य हो गयी है क्योंकि पार्टी में ऐसा कोई नेता है ही नहीं जो उन्हें अपदस्थ करके उसकी कमान अपने हाथ ले सके. इतिहास गवाह है कि जब भी किसी कद्दावर कांग्रेसी नेता ने गांधी परिवार या हाईकमान का विरोध करके अपनी पार्टी बनायी है, तो या तो उसका राजनीतिक जीवन समाप्त हो गया है या उसे उलटे मुंह लौट के कांग्रेस आना पड़ा है.

महाराष्ट्र के शरद पवार जरूर एक अपवाद हैं. लेकिन 1999 में कांग्रेस छोड़ कर राकांपा बनाने के बाद उनका भी कद दोबारा कभी उतना ऊंचा नहीं हो पाया जितना तब था जब वह कांग्रेस में चोटी के नेता थे.और कांग्रेस से अलग होने के फौरन बाद ही पवार को मजबूरन यूपीए से जुड़ना पड़ा था और वह आज भी उसी लाठी के सहारे दिल्ली में हैं.

कांग्रेस छोड़ कर भी सफल राजनीति करनेवाले रहे हैं, लेकिन कम. ये अधिकतर वे हैं जो भाजपा या स्थापित क्षेत्रीय पार्टियों में शामिल हो गये थे. लेकिन इनमें भी कोई ऐसा नहीं है जो अगर आज कांग्रेस में होता तो गांधी परिवार को चुनौती दे पाता. कांग्रेस छोड़नेवाले ऐसे नेताओं की संख्या अधिक नहीं है जिनको भाजपा या दूसरे बड़े दलों में आसानी से जगह मिली हो. वजह यह है कि इन दलों में पहले ही कई महत्वाकांक्षी नेता हैं जो जाहिर तौर पर दलबदलुओं को अपनी पार्टी में बमुश्किल घुसने देते हैं.

कांग्रेसमुक्त भारत- एक अतिरंजित परिकल्पना

कांग्रेस के ‘असामयिक निधन’ की आशंका भी अतिरंजित है. हार के बावजूद उसकी राजनीतिक पैठ इसलिए बनी रहेगी क्योंकि भारतीय राजनीति के द्विकोणीय ध्रुवीकरण के एक कोण का प्रतिनिधित्व करनेवाली वह अकेली राष्ट्रव्यापी पार्टी है. भारतीय लोकतंत्र को ब्रितानी संसदीय प्रणाली पर जरूर तराशा गया था, लेकिन 1951-52 के पहले आम चुनाव से लेकर 1989 के नौवें आम चुनाव तक भारत में ब्रिटेन सरीखी दो-दलीय व्यवस्था नहीं बन पायी थी. यूं तो अलग-अलग पार्टियां गाहे-ब-गाहे ठीक-ठाक चुनावी प्रदर्शन करती थीं, लेकिन कोई एक पार्टी कांग्रेस के स्थायी विकल्प के रूप में नहीं उभर पायी थी. 1977 में जीतनेवाली जनता पार्टी भी ढाई साल के भीतर टूट कर बिखर गयी थी.

1991 के आम चुनाव में 120 सीटें जीत कर भाजपा ने ऐसी दो-दलीय व्यवस्था कायम कर दी. 1991 को मिला कर तब से हुए छह चुनावों में भाजपा और कांग्रेस तीन-तीन बार क्र मश: पहले और दूसरे स्थान पर रही हैं. यानी एक दूसरे के आगे-पीछे. 1991 में ही भारतीय राजनीति में एक और युगीय परिवर्तन आया था जब पहली बार एक वैकल्पिक विचारधारा का उदय हुआ था. दरअसल आजादी के बाद से लगभग हर राजनीतिक दल की प्रतिबद्धता मोटे तौर पर समाजवाद के प्रति ही रही थी. इसकी दो वजहें थीं.

एक, महात्मा गांधी के विचार और दर्शन ने पहले से ही स्वतंत्र भारत के लिए दरिद्रता निवारण की प्राथमिकता तय कर दी थी. गरीब-बेसहारा के नाम पर हासिल आजादी में मुक्त बाजार की व्यवस्था प्रधान नहीं हो सकती थी. और, दूसरी वजह यह कि अमेरिका के पाकिस्तान की ओर झुकाव के चलते भारत साम्यवादी सोवियत संघ का करीबी बन गया था, जिस कारण राजनीतिक विचार पर समाजवादी और कल्याणकारी सोच और भी काबिज हो गयी थी.

बदले वैश्विक परिदृश्य में आये मनमोहन

1980 के दशक में सोवियत संघ कमजोर होता गया और अंतत: 1991 में उसका विघटन हो गया. इसने एक झटके में अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत को अकेला कर दिया. इस घटना के चंद महीने पहले ही कांग्रेस भारत में दोबारा सत्ता में आयी थी और उस वक्त के प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने जाने-माने अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बनाया था. मनमोहन सिंह ने आते ही खाली खजाने का हवाला देकर आनन-फानन में दशकों से संरक्षित रही भारतीय अर्थव्यवस्था को अंतरराष्ट्रीय व्यापार के लिए खोलना शुरू कर दिया.

पश्चिमी यूरोप और अमेरिका की तर्ज पर मुक्त बाजार की इस विचारधारा में निजी व्यापार को बढ़ावा मिला और कल्याणकारी नीतियों और खर्च में कटौती शुरू हुई. उस वक्त लगा कि समाजवादी कल्याणकारिता के दौर का हमेशा के लिए अंत हो गया. लेकिन 1996 के चुनाव में कांग्रेस की तब तक की सबसे बुरी हार की वजह मुक्त बाजार की नयी विचारधारा ही बतायी गयी.

सोनिया को भाया कल्याणकारी रास्ता

अगले दो चुनाव हारने के बाद कांग्रेस की नयी नेता सोनिया गांधी राज्य सत्ता को कल्याणकारी उत्तरदायित्व तक लौटाने पर जोर देने लगीं. जब 2004 में एनडीए की मुक्त-बाजारी सरकार भी अप्रत्याशित रूप से हारी तो सोनिया का यह विश्वास दृढ़ हो गया. 2004 में प्रधानमंत्री बने मनमोहन सिंह खुले बाजार और समाजवाद की मिश्रित विचारधारा लेकर आगे बढ़ने लगे.

गरीबों को रोजगार का संवैधानिक हक देकर काम दिलाने पर सरकारी कोष से हजारों करोड़ों रु पयों का खर्च आने लगा. कार्यकाल खत्म होते-होते यूपीए सरकार ने देशभर में किसानों पर हजारों करोड़ों का कर्ज भी माफ कर दिया. जब यूपीए ने 2009 का आम चुनाव भी जीत लिया तो दोबारा प्रधानमंत्री बने मनमोहन सिंह वस्तुत: कल्याणकारी नेता बन गये. और अब दो साल पहले राहुल गांधी के उदय से कांग्रेस की सार्वजनिक दावेदारी और भी समाजवादी हो गयी है.

मोदी पर होगा दबाव

पिछले कुछ वर्षो से भारतीय राजनीति में मुक्त बाजार और समाजवाद की इस मिली-जुली विचारधारा का द्वंद्व चल रहा है और आगे भी जारी रहेगा. पूंजीवादी व्यवस्था के दबाव में सरकारें खुले बाजार के नियम हावी करती हैं, तो चुनाव जीतने की विवशता सरकारों को समाजवादी नारे और नीतियों की ओर खींचती हैं. बाजार और समाजवाद का यह अंतर्विरोध भारतीय राजनीति में राष्ट्रीय स्तर पर दो-दलीय व्यवस्था को पुख्ता करता है. फिलहाल राजनीतिक क्षितिज पर भाजपा और कांग्रेस के अलावा कोई तीसरी पार्टी नहीं है जो इस जिम्मेदारी का निर्वाह कर सके.

मोदी यदि प्रधानमंत्री बनते हैं, तो उन पर भी इन्हीं पारस्परिक विरोधी विचारधाराओं का दबाव रहेगा. जब यूपीए सरकार कल्याणकारी अधिक होने लगी, तो मोदी पूंजीवाद और मुक्त बाजार की भाषा बोलने लगे. बतौर प्रधानमंत्री मोदी को भी आने वाले वक्त में कल्याणकारी होना पड़ेगा. क्योंकि, जैसा कि भाजपा ने पहले देखा, बाजारी नीतियां चुनाव हराती हैं, जिताती नहीं. ऐसे में कांग्रेस फटाफट द्विकोणीय ध्रुवीकरण के दूसरे कोण पर जाकर बैठ जायेगी. जब तक समाजवाद और बाजार का द्वंद्व रहेगा भाजपा और कांग्रेस, दोनों कमोबेश एक-दूसरे के आगे-पीछे रहेंगी.

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