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इंडियन स्वाद: गर्मियों में ठंडे खाने की बात

कोई भी मौसम हो, जब हमें भूख लगती है, तो घर में हम यही कहते पाये जाते हैं कि जल्दी से गरमा-गरम खाना पराेस दो. यहां तक कि भीषण गर्मी के मौसम में भी हम गर्म खाना ही खाना पसंद करते हैं. हमारी समझ में इसका प्रमुख कारण आबोहवा है. खाना यदि गर्म परोसा जाये, […]

कोई भी मौसम हो, जब हमें भूख लगती है, तो घर में हम यही कहते पाये जाते हैं कि जल्दी से गरमा-गरम खाना पराेस दो. यहां तक कि भीषण गर्मी के मौसम में भी हम गर्म खाना ही खाना पसंद करते हैं. हमारी समझ में इसका प्रमुख कारण आबोहवा है. खाना यदि गर्म परोसा जाये, तो उसमें रोग पैदा करनेवाले जीवाणुओं-विषाणुओं के पैदा होने की संभावना बहुत कम हो जाती है. लेकिन, गर्मियों में कुछ ठंडे खाने भी खाये जाने चाहिए.

भारत में गरमागरम खाने का रिवाज है और घोर गरमी के मौसम में भी हम यही चाहते हैं कि खाना गरम ही परोसा जाये! हां, ठंडी खीर की बात अलग है! बहुत माथा-पचीसी के बाद भी हम दो-चार ही ऐसे व्यंजनों के नाम याद कर पा रहे हैं, जिन्हें ठंडे खाने की सूची में शामिल किया जा सकता है. कुछ बरस पहले लखनऊ के पड़ोस के एक कस्बे में किसी सूफी संत की दरगाह पर हमें खमीरी रोटी के साथ मिट्टी के सकोरे में साबुत काली मसूर की ठंडी दाल खाने का मौका मिला था.
दाल एकदम फिरनी की तरह जमी हुई थी और बहुत स्वादिष्ट थी. दिन में तापपान बढ़ने लगा था और गरम कुछ खाने का मन हो ही नहीं सकता था. तभी से जैसे ही ग्रीष्म ऋतु की पदचाप सुनायी देती है, हमें वह दाल रह-रहकर याद आने लगती है.
दक्षिण भारत में गरमी (कुछ महीनों को छोड़) स्थायी भाव है, शायद इसीलिए वहां ‘तैर सादम’ का चलन है: दही-चावल जिनमें करी पत्ते, काली और लाल हरी-मिर्च के साथ मेथीदाने और राई का तड़का लगाया जाता है. इसे ठंडा ही परोसा जाता है.
तमिलनाडु में ‘पुलिहोरा’, ‘चित्रान्न’ नामक जो सात्विक पुलावनुमा चावल के व्यंजन बनाये जाते हैं, वे सफर में साथ ले जाने के लिए अच्छे समझे जाते हैं और वे भी अधिकतर ठंडे खाये जाते हैं. ‘नीरमोरु’ यानी तड़के वाली छांछ या नारियल के दूध के शोरबेदार व्यंजनों (केले के तने की तरकारी या अप्पम का साथ निभानेवाला ‘स्टू’) के तेवर गरम होना जरूरी नहीं.
बिहार तथा पूर्वांचल में चूड़ा मटर और दही चूड़ा के शौकीनों को ठंडक का महात्म्य समझाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए. हां, बैगन-आलू-टमाटर के चोखे का मजा भी ठंडक के साथ ही है.
बंगाल और ओडिसा में गरमी की दोपहर पांथा भात उर्फ पकाल के नाम आरक्षित रहा करती थी. रात के पके भात को पानी भरी परात में रख छोड़ा जाता है, ताकि इसमें हल्का खमीर चढ़कर इसे सुपाच्य बना दे. इसे नींबू या आम के अचार की फांकों के साथ खाया जाता है. अगर साधन और समय हों, तो इसको आलू, थाल बैगन या परवल की भाजी से थाली सजायी भी जा सकती है.
सोचने की बात यह है कि जहां पश्चिम में कई व्यंजन (‘कोल्ड कट’ के रूप में मांस, सलाद, ‘रोस्ट’, समुद्री जीव-जंतु आदि) ठंडे परोसे जाते हैं, हमारे यहां वैसा क्यों नहीं होता? यहां हमारा अभिप्राय पचडी, रायता, कचुंबर, चटनी आदि से नहीं, वरन मुख्य खाद्य सामग्री से है. हमारी समझ में इसका प्रमुख कारण आबोहवा है. खाना यदि गर्म-गर्म परोसा जाये, तो उसमें रोग पैदा करनेवाले जीवाणुओं-विषाणुओं के पैदा होने की संभावना बहुत कम हो जाती है.
भारत के मैदानी इलाकों में जहां गर्मी के साथ नमी रहती है, ठंडे भोजन को निरापद नहीं समझा जा सकता था. इसका दूसरा कारण यह जान पड़ता है कि भारतीय खान-पान में भोजन की तासीर (गुण-शारीरक कुदरती ‘दोषों’-कफ, पित्त, वात- पर उसके प्रभाव) को तापमान से अधिक महत्वपूर्ण समझा जाता है. इसीलिए एक जमाने में बदलती ऋतुओं के साथ हमारे भोजन में इस्तेमाल किये जानेवाले मसाले बदले जाते थे, जो दाह-ताप को शांत करते थे.
रोचक तथ्य
दक्षिण भारत में ‘तैर सादम’ का चलन है: दही-चावल जिनमें करी पत्ते, काली और लाल हरी-मिर्च के साथ मेथीदाने और राई का तड़का लगाया जाता है.
तमिलनाडु में ‘पुलिहोरा’, ‘चित्रान्न’ नामक जो सात्विक पुलावनुमा चावल के व्यंजन बनाये जाते हैं, वे सफर में साथ ले जाने के लिए अच्छे समझे जाते हैं.
पश्चिम में कई व्यंजन (‘कोल्ड कट’ के रूप में मांस, सलाद, ‘रोस्ट’, समुद्री जीव-जंतु आदि) ठंडे परोसे जाते हैं, पर हमारे यहां वैसा नहीं होता.
‘नीरमोरु’ यानी तड़के वाली छांछ या नारियल के दूध के शोरबेदार व्यंजनों (केले के तने की तरकारी या अप्पम का साथ निभानेवाला ‘स्टू’) के तेवर गरम होना जरूरी नहीं.
पुष्पेश पंत
बिहार तथा पूर्वांचल में चूड़ा मटर और दही चूड़ा के शौकीनों को ठंडक का महात्म्य समझाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए. हां, बैगन-आलू-टमाटर के चोखे का मजा भी ठंडक के साथ ही है.

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