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सुब्रह्मण्यम की वायलिन वाया नोट्टूस्वरा : संगीत

डॉ एल सुब्रह्मण्यम ने बीते दिनों स्पिक मैके ‘विरासत शृंखला 2018’, आईआईटी, दिल्ली में वायलिन वादन किया. उनके वायलिन को सुनना, संगीत प्रेमियों के लिए, अलौकिक अनुभव है. सुब्रह्मण्यम वायलिन को जिन तरीकों से बजाते हैं, श्रोता को सुरों की ईश्वरीय-माया का दर्शन होता है. वायलिन को, कर्नाटक संगीत का हिस्सा, उसकी ‘त्रिमूर्ति’ के एक […]

डॉ एल सुब्रह्मण्यम ने बीते दिनों स्पिक मैके ‘विरासत शृंखला 2018’, आईआईटी, दिल्ली में वायलिन वादन किया. उनके वायलिन को सुनना, संगीत प्रेमियों के लिए, अलौकिक अनुभव है. सुब्रह्मण्यम वायलिन को जिन तरीकों से बजाते हैं, श्रोता को सुरों की ईश्वरीय-माया का दर्शन होता है.

वायलिन को, कर्नाटक संगीत का हिस्सा, उसकी ‘त्रिमूर्ति’ के एक अंग मुथुस्वामी दीक्षित (1775-1835) ने, ईस्ट इंडिया कंपनी की छावनियों से सुनायी पड़नेवाले संगीत से आकर्षित होकर बनाया. उन्होंने अपने भाई बालुस्वामी को वायलिन सीखने के लिए कैंटोनमेंट में भेजा और पश्चिमी क्लासिकल पर आधारित कर्नाटक गीतों की रचना- ‘नोट्टूस्वरा’, नोट्स पर आधारित स्वर- भी की. बालुस्वामी ने बाद में भारत के, उस समय के, यूरोपीय ऑर्केस्ट्रा में बजाया भी.
वायलिन, संगीत के साथ जैसा होता है, का भारतीयकरण हुआ, और खरामा-खरामा, गायन सुरों को निकालने की काबिलियत और रखने-उठाने की आसानी के चलते, कर्नाटक संगीत में वीणा की जगह लेना शुरू कर दिया. इस बीच वायलिन ने यहां यूरोप में अकेले बजाये जाने की कला को खो दिया और कर्नाटक संगीत का सह-वाद्य बन गया. प्रो वी लक्ष्मीनारायण अय्यर इस ‘खोने’ का नुकसान समझनेवाले पहले संगीतशास्त्री थे, दूसरे शब्दों में, उन्हें यह नहीं पसंद था: आपको संगत के लिए बुलाया जाये और यदि आपके संगीत को, मुख्य संगीत से, अधिक पसंद किया जाये, तो ऐसे में यह तय होना है कि अगली दफा आपकी ‘नहीं’ हों.
उनकी जबरदस्त लगन से, वायलिन की कर्नाटक-सहवाद्य से दूसरी धारा निकली, जहां उसकी पश्चिमी शैली का कर्नाटक रागों से संगम हुआ. जाफना, श्रीलंका में बसे जिस अय्यर परिवार में यह मशक्कत चल रही है, उसका छोटा पुत्र, लक्ष्मीनारायण सुब्रह्मण्यम अपने पिता को बड़े भाइयों और अन्य शिष्यों को शिक्षा देते देख-सुन रहा है, और जल्द ही उसका सीखना शुरू होता है.
छह वर्ष का होते-होते उसका पहला कार्यक्रम हो जाता है. मां सीतालक्ष्मी घर पर शाम को गायन करती हैं और साथ वायलिन पर पिता होते हैं, जो नियम से लक्ष्मीनारायण को उसके दोपहर के खाने के बाद रियाज कराते हैं. 1958 के दंगों से बच, अय्यर परिवार चेन्नई आता है, और संगीतकार बेटा अपनी पारंगतता के बावजूद, मां की इच्छा के मुताबिक मेडिकल की डिग्री हासिल कर डॉ एल सुब्रह्मण्यम बनता है.
डॉ एल सुब्रह्मण्यम ने बीते दिनों स्पिक मैके ‘विरासत शृंखला 2018’, आईआईटी, दिल्ली में वायलिन वादन किया. उनके वायलिन को सुनना, संगीत प्रेमियों के लिए, अलौकिक अनुभव है. यह अनुभव अद्वितीय भी है, क्योंकि वे वायलिन की पश्चिमी शैली को, जिसमें वादक तारों पर, घोड़े के बालों की प्रत्यंचा चढ़ी धनु से, अलौकिक स्वर (बिथोवन सिम्फनी याद कीजिये) पैदा करता है,
हिंदुस्तानी कर्नाटक सुन रहे होते हैं. सुब्रह्मण्यम वायलिन को जिन गतियों, तरीकों से बजा रहे होते हैं, श्रोता को सुरों की ईश्वरीय-माया का दर्शन भी होता है, साथ-ही वायलिन वादन पर उनका हद से बेहद नियंत्रण भी दिखता है, कुछ ऐसा कि श्रोता डरने लगें कि कहीं उनसे गलती न हो जाये, जैसे कोई नटनी हवा में रस्सी पर दौड़े और आंखे सांस थामे देखें और डर से मुंदी जायें.
उस शाम कर्नाटक संगीत की प्रथा, जिसमें बीच कार्यक्रम, बजाय मुख्य संगीतकार सह-वादक, अपने सुरों को- जो कई दफा बिलकुल अलग होते हैं- छेड़ते हैं, ने दुखी किया. श्रोता एल सुब्रह्मण्यम को सुनने आये हैं और कम से कम मुझे तो हर-पल में उन्हीं का संगीत चाहिए, फिर अगर एक बड़े हिस्से में उनके बजाय संगतियों का संगीत हो, तो दुख होना लाजमी है, इसका एक बड़ा कारण उत्तर के संगीत में ऐसा नहीं पाया जाना भी है. कल्पना कीजिये: आपके प्रिय संगीतकार, मसलन पंडित जसराज, गायन को बीच में रोक दें, फिर कोई आधे घंटे, एक-एक करके, संगतियों को सुनना पड़े!
भरत तिवारी, कला समीक्षक

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