बहुत याद करके भी मैं यह याद नहीं कर पा रहा हूं कि इस देश ने पहले कब ऐसा चुनाव और उसका ऐसा प्रचार देखा था. मुझे एकदम शुरू में ही कह देना चाहिए कि यह चुनाव और उसका प्रचार शुरू से एकदम नकली था. थोपे हुए पात्र, बनावटी पटकथा और संवाद, और अभिनय? भारत भूषण भी इससे अच्छा अभिनय कर लेते थे. 543 संसदीय क्षेत्रों में फैले 80 करोड़ से अधिक दर्शक अंत तक यह तय नहीं कर सके कि वे फिल्म देखें कि पात्र. सब देखते ही रह गये और 65 सालों से बने और चलते हुए संसदीय लोकतंत्र का, एक पार्टी ने तमाशा बना दिया. अचानक हमने देखा कि अमेरिकी शैली की भद्दी नकल से अपनी संसदीय प्रणाली को राष्ट्रपति-प्रणाली की तरफ धकेल दिया गया. संसदीय व्यवस्था के सारे कल-पुर्जे देखते रह गये- बेआवाज और बेजान.
यह पहला चुनाव था, जिसमें भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को बैसाखी नहीं बनाया, उसे अपना दिल-दिमाग और हाथ-पांव बना लिया. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को इस बात का श्रेय है कि उसने सबसे पहले दो बातें पहचानीं. पहला यह कि कांग्रेस का किला एकदम खोखला हो चुका है और दूसरा यह कि भारतीय जनता पार्टी की दीवारें एकदम जर्जर हो चुकी हैं. अब उसे चुनाव इतना ही करना था कि वह खोखले किले को गिराने भर का काम करे कि अपनी पार्टी की दीवारें भी बदले? और किसी दूरदर्शी, राजनीतिक महत्वाकांक्षा वाले संगठन की तरह उसने फैसला किया कि उसे दोनों काम एक साथ ही करने होंगे- और इस तत्परता व उत्कटता से करना होगा कि सारे हिंदू व हिंदुत्व वाले यह समझ जाएं कि यह इस बार नहीं, तो फिर कभी नहीं वाला मौका है. उसने बिना किसी मुरव्वत के इन दोनों काम को अंजाम दिया. उसने पार्टी के भीतर भी और देश में भी एक महाभारत रचा.
बिना किसी लाग-लपेट के उन सबको किनारे कर दिया, जो भाजपा के चिर-परिचित चेहरे थे. उसने बेहैसियत नरेंद्र मोदी को पीछे से उठा कर आगे ला बिठाया. (जैसा इस्तेमाल उसने कभी नितिन गडकरी का किया था). इसे अंजाम देने के लिए राजनाथ सिंह अध्यक्ष पद पर स्थापित किये गये. फिर अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, वेंकैया नायडू जैसे जड़विहीन लोगों को मजबूर कर दिया कि वे चुन लें- संघ की ताबेदारी या राजनीति बियावान? जिसने जो चुना, हम देख ही रहे हैं.
कांग्रेस बुरी फंसी. नेहरू-परिवार के प्रभामंडल के भीतर कांग्रेस ने जो सौर-संसार रचा था, उसकी असलियत जांचने और बतानेवाली राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ जैसी कोई व्यवस्था उसके पास नहीं थी. उसे यह पता ही नहीं चला कि अब उसके पास बच गया है वह नेहरू-परिवार, जिसका कोई प्रभामंडल नहीं है. दूसरे खिलाडि़यों के पास कुछ भी नहीं था सिवाय एक-एक राज्यों की सत्ता के- मुलायम सिंह, जयललिता, ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, नवीन पटनायक आदि सभी का सच इतना ही था.
ऐसे में राष्ट्रीय चुनाव का एजेंडा तय हुआ नागपुर में. संघ ने दोहरी रणनीति अपनायी. उसने एक सच को निशाने पर लिया और एक झूठ का घटाटोप खड़ा किया. सच था पिछले 10 सालों से केंद्र में चल रही दिशाहीन, नेतृत्वविहीन वह सरकार, जिसके मुखिया थे मनमोहन सिंह. मुखिया की दो ही पहचान होती है- वह मुख्य भी होता है और उसका मुख भी होता है. मनमोहन सिंह के पास दोनों ही नहीं था- ईश्वर ने मुख नहीं दिया और सोनिया-राहुल ने मुख्य बनने नहीं दिया.
हमें याद होना चाहिए कि जब सारा देश और सारा मीडिया इस जयकारे में लगा था कि सोनियाजी ने अपना ताज निकाल कर मनमोहन सिंह को पहना कर कैसा त्याग किया है, तब किसी ने यह नहीं पूछा कि अपने देश और अपने प्रशासन का क्या होगा, जब उसे देखने-संभालने और चाबुक फटकारनेवाला कोई होगा ही नहीं? सारी सत्ता अपने हाथ में रख कर सत्ताविहीन हो जाने की सोनिया-गुट की वह रणनीति कितने भयावह परिणाम ले कर आयी, इसे कांग्रेस भी देख रही है और देश भी.
पिछले दस सालों में देश में कोई मजबूत सरकार नहीं रही, घटक पार्टियों ने अपने-अपने मंत्रालयों में अपनी-अपनी सरकार बना ली और भ्रष्टाचार की ऐसी अथक, लंबी दास्तां लिखी गयी, जिसे सुनना और देखना आत्मग्लानि से भर देता है. इस पर हमला करके देश के मतदाता को कांग्रेस से दूर ले जाना संघ परिवार के लिए बहुत आसान था. उसने वह अच्छी तरह किया. लेकिन अभी चुनौती का दूसरा छोर भी तो संभालना था. यह चुनौती थी कि कांग्रेस से दूर गया मतदाता भारतीय जनता पार्टी की तरफ आये. फासीवाद के शब्दकोश का पहला वाक्य ही यह है कि कोई झूठ ऐसा नहीं होता है, जिसे हजारों लोग मिल कर, हजारों बार बोलें तो वह सच जैसी प्रतिष्ठा न पा ले. बस, वह रसायन तैयार हो गया, जिससे 2014 का राष्ट्रीय चुनाव लड़ा जानेवाला था.
वह कहते हैं न कि सच के पांव होते हैं, जबकि झूठ के पास होते हैं पंख. एक झूठ तैयार किया गया विकास का गुजरात मॉडल. न वैसा कुछ गुजरात में हुआ कि जिसे मॉडल कहा जा सके और न किसी ने उसे देखा, लेकिन उसके होने का शोर इतनी बार, इतने कंठों से मचाया गया कि देश ने मान लिया कि उसे दिखाई भले न दे रहा हो लेकिन वह हुआ तो है. पीसी सरकार का जादू और नरेंद्र मोदी का विकास दोनों एक-से ही थे और हैं.
यूपीए की पूरी छवि को ध्वस्त करने के साथ-साथ मोदी-मॉडल को स्थापित किया गया. काला और सफेद जब साथ-साथ होते हैं, तभी ध्यान खींचते हैं. कांग्रेस और नरेंद्र मोदी को इसी तरह आमने-सामने खड़ा किया गया. हम ध्यान देंगे तो यह देख व समझ पायेंगे कि जिस मोदी-मॉडल के आधार पर सारा चुनाव लड़ने की बात कही गयी थी, वह मॉडल एकदम बेबुनियाद है, यह सबसे अधिक किसे पता था? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को. इसलिए उसने मोदी-दल को जो पटकथा लिख कर दी थी, उसमें गुजरात के विकास की बात उतनी ही दूर तक करनी थी, जितनी दूर तक ले जाने से उसकी पोल न खुलने लगे.
विकास का गुजरात मॉडल खूब चलाया गया. वह मॉडल क्या है, गुजरात में कहां दिखाई देता है, उससे कौन लाभान्वित हुआ है आदि बातें किसी ने, कभी नहीं बतायीं. लेकिन सौ मुंह से यह बात इस तरह फैलायी गयी कि दूसरे सारे दल हक्का-बक्का रह गये. तिनका तो सभी की दाढि़यों में था, चोर-चोर कहनेवाला एक संगठित, मुखर संगठन सामने आ गया, तो राहुल हकलाने लगे, सोनिया के भाषण-लेखकों को न कोई तर्क सूझा, न जवाब. मुलायम-अखिलेश हमेशा से यही मान कर बैठे थे कि उत्तर प्रदेश के जातीय समीकरण के बल पर ही वे दिल्ली भी हथिया लेंगे. वे सेफई उत्सव को ही सरकार का सबसे बड़ा कार्यक्रम मान बैठे थे.
ममता, जयललिता, नीतीश और नवीन पटनायक की कुल राजनीति अपने समर्थन का गाजर दिखा कर, केंद्र से पैसा व परियोजना झटकने तक की थी. मोदी मॉडल को अपने किसी काम से चुनौती देने की हिम्मत किसी में नहीं थी. आम आदमी पार्टी दिल्ली में टिकी रहती, तो मोदी को कार्यक्रमों के स्तर पर सीधी चुनौती दे सकती थी, लेकिन खास बनने के चक्कर में वह आम भी नहीं रही. विकास के इस झूठ ने जैसे ही जड़ पकड़ी, वैसे ही राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की पटकथा का दूसरा पन्ना थमा दिया गया.
मोदी-अभियान का असली चेहरा सामने आया. मोदी-अभियान में कुछ भी वर्जित नहीं रहा- न निजी हमले, न पारिवारिक मर्यादा, न संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा, न जातीय व धार्मिक उन्माद, न धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल, न भड़काऊ नारे. इस पूरे अभियान में जिस तरह पैसा बहाया गया, उसकी तो कभी कल्पना भी नहीं थी. मोदी-अभियान यहां भी सबसे अव्वल रहा.
मुजफ्फरनगर के दंगों में पहुंचने का वक्त जिन राजनीतिज्ञों के पास नहीं था, वे ही सारे देश में हवाई दौरे करते मिले. चुनाव कानून 70 लाख रुपयों की मर्यादा एक संसदीय उम्मीदवार पर लगाता है, तो उसने पार्टियों को क्यों किसी मर्यादा से नहीं बांधा, अगर यह सवाल एक तरफ है, तो दूसरी तरफ यह सवाल भी तो है कि क्या राजनीति चोरों-लुटेरों का ऐसा गठबंधन है, जिसे केवल कानून की लाठी ही सीधा रख सकती है? उसके पास अपनी नैतिकता को मापने और अपने पतन को थामने की कोई विवेक-डोर नहीं होती है? पूरे चुनाव अभियान में किसी पार्टी के किसी नेता ने एक बात भी ऐसी नहीं कि जिससे लोकतंत्र की समझ बढ़ी हो या फिर जिसने सार्वजनिक जीवन को ऊंचा उठाया हो. मुझसे कोई कहे कि इस पूरे अभियान का सबसे बेशकीमती वाक्य चुनूं, तो मैं राहुल गांधी का एक ही वाक्य चुनूंगा- नीच जाति नहीं होती है, नीच सोच होती है. यह एकमात्र अर्थपूर्ण वाक्य था, लेकिन अफसोस कि राहुल का यह कथन उनकी पार्टी पर भी ज्यों-का-त्यों लागू होता है.
इस चुनाव-प्रचार अभियान ने हमारे लोकतंत्र और इसकी संस्थाओं पर जैसे घातक प्रहार किये हैं, व्यापारिक संस्थानों को राजनीति की कुंडली लिखने का जैसा अधिकार दिया है, हर मर्यादा को तोड़ कर चुनावी सफलता पाने की जो भूख जगायी है, ये सब अभिशाप की तरह फूटेंगे. मुझे शक है कि आगे कोई सरकार, कोई संसद, कोई राजनीतिक दल व लोकतांत्रिक संस्थाएं उस तरह काम कर सकेंगी कि जैसे हम उन्हें काम करते देखते आये थे. वे सब बहुत अच्छा काम कर रही थीं, ऐसा नहीं था, लेकिन उन्हें संविधान, परंपरा, नीति, व्यावहारिकता आदि का बोध था.
मीडिया भी कभी-कभार उन पर असर डालता था. लेकिन इस बार मीडिया जमीन पर उतर आया. आगे यह सब बहुत कठिन होगा. लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत उसकी बंद मुट्ठी में होती है. लोकतंत्र विरोधी ताकतें इसलिए पहला हमला उसी बंद मुट्ठी पर करती हैं, क्योंकि मुट्ठी एक बार खुल जाये तो किसी के लिए कोई रोक नहीं रहती है. इस चुनाव अभियान ने हमें इस मुकाम पर ला कर खड़ा कर दिया है.
क्या यह गाड़ी पटरी पर लौटेगी? जवाब तीन जगहों से मिलेगा- हमारी न्यायपालिका ज्यादा कठोर बने, हमारा चुनाव आयोग अदालत की मदद से संपूर्ण चुनाव-प्रक्रिया पर अपनी पकड़ अधिकाधिक मजबूत करे तथा अगला चुनाव जल्दी सामने आ खड़ा हो. आप पूछते हैं कि मैं यह आशा कैसे रखता हूं? तो जवाब बशीर बद्र देते हैं :-
शिद्दत की धूप, तेज हवाओं के बावजूद, मैं शाख से घिरा हूं, नजर से गिरा नहीं.